जैसे की आप जानते है चेरी एक गुठलीदार खट्टा-मीठा फल है जिसकी ज्यादातर खेती यूरोप, अमेरिका, एशिया, तुर्की देशों में होती है। भारत में इसकी खेती उत्तर पूर्वी राज्यो में और उत्तर के कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि राज्यों में की जाती है।
चेरी खाने के फायदे
चेरी में बहुत सारे पोषक तत्व पाये जाते है, जैसे की विटामिन ए, बी, सी, थायमिन, नायसिन, मैगनिज, राइबोफ्लैविन पोटेशियम, काॅपर, एंटीऑक्सीडेंट, पानी, आयरन, फाइबर, फस्फोरस, बीटा-कैरोटीन और क्यूर्सेटिन आदि। रोजाना कम से कम 10 चेरी खाना चाहिए इससे दिल के रोंगों को कम करने में, अच्छी नींद, वजन कम करने में, शरीर के ऊर्जा का स्तर बढ़ाने में, पाचन क्रिया में, कैंसर के बढ़ते टिश्यूज को रोकने मे, शरीर के ऊर्जा का स्तर बढ़ाने में होती है।
चेरी को तीन वर्गो में विभाजित किया गया है
- प्रूनस एवियम जिसे मीठी चेरी कहते है, इसकी मूल क्रोमोजोम संख्या एन- 8 है, और इसमें हार्ट और बिगारो वर्ग की चेरी शामिल है।
- प्रूनस सीरैसस जिसे खट्टी चेरी कहते है, इसमें अमरैलो और मोरैलो वर्ग की चेरी शामिल है।
- ड्यूक चेरी एक पालीप्लायड चेरी है, जो पहले व दूसरे के संकरण से निकली है, इसकी मूल क्रोमोजोम संख्या 2 एन- 32 है।
उन्नत किस्में
व्यवसायिक दृष्टि से चेरी की खेती के लिए कुछ किस्में जैसे की:-
- ब्लेक हार्ट, फ्रोगमोर अर्ली, एल्टन, अर्ली राईवरर्स जो जल्दी तैयार होने वाली चेरी की किस्में है।
- इम्परर, फ्रैंसिस, गर्वरनर उड जो देर से तैयार होते हैं।
- बेडफोर्ड प्रोलोफिक, वाटरलू जो मध्य समय में तैयार होने वाली किस्में है।
- बिगररेउ समूह:- इन चेरी का आकार गोल और रंग अंधेरे से हल्के लाल भिन्न होता है, इसमें किस्में जैसे की सम्मेलन, सिखर सनबर्ट, लैपिंस, सैम और स्टेला आदि है।
- हार्ट समूह:- इसका आकार दिल और रंग अंधेरे से हल्का लाल होता है।
पौधे तैयार करना
चेरी की पौधे को बीज या जड़ कटाई द्वारा तैयार किया जा सकता है। ग्राफ्टिंग से भी इसके पौधे को लगाया जा सकता है। बीज के तरीके से पौधा लगाने के लिए बीज पूरी तरह से पके होने चाहिए और उसे एक दिन के लिए विशेष विधि से भिगो के इन बीज को सूखे और ठंडे स्थान पर संग्रहीत किया जाता है। बीज अंकुरण के लिए शीतल उपचार की जरुरत होती है।
पौधरोपण का समय और तरीका
चेरी के पौधे का रोपण फरवरी और रिंग चश्मा जून और सितम्बर में चढ़ाते हैं। पौधों को ऊपर उठी बेड में लगाए जाते हैं, इन बेड की चैड़ाई 40 – 45 इंच और ऊँचाई लगभग 6 इंच होनी चाहिए। 2 बेड के बीच 18 इंच, 2 पंक्तियों के बीच 6 – 10 इंच और 2 पौधों के बीच 1 इंच की दूरी होना चाहिए। पौधों की रोपाई ठंडे समय में करनी चाहिए। शुरुआत में पौधे लगाने के बाद लकड़ी गाढ़कर पौधो को सहारा देना चाहिए। पौधे के तने पर तेज सूरज की रोशनी नुकसान पंहुचा सकती है, इसके लिए तने पर चूने का लेप लगा देना है या कार्ड बोर्ड की पट्टी से ढ़क देना है।
मिट्टी
चेरी की खेती समुद्रतल से 82,680 इंच की ऊँचाई पर की जा सकती है लेकिन कुल्लू और कश्मीर की घाटियों में इसे 59,055 इंच की ऊँचाई पर भी सफलतापूर्वक खेती किया जा सकता है।
अनुकूल जलवायु
चेरी को कम से कम 120 – 150 दिन तक अच्छी ठंडक यानि 7° सेंटीग्रेट से कम तापमान की जरुरत होती है। जिन जगहों का तापमान उक्त दिनो तक 7° सेंटीग्रेट से कम हो वहा पर चेरी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
भूमि का चुनाव
चेरी की खेती कई तरह के भूमि में की जा सकती है लेकिन रेतीली-टोमट मिट्टी जिसका pH 6.0 – 7.5 हो अच्छा माना जाता है। इस मिट्टी में नमी होना चाहिए और उसके साथ मिट्टी का उपजाऊ होना भी जरुरी है। इसके साथ ही फूल और फल को पाले से भी बचाना चाहिए।
सिंचाई
चेरी को बहुत कम सिंचाई की जरुरत होती है क्युकी चेरी बहुत जल्दी पककर तैयार हो जाते हैं जिस वजह से इन्हें ज्यादा गर्मी का सामना नहीं करना पड़ता। अगर इसकी खेती सूखी जलवायु में किया जाता है तो पानी की ज्यादा जरुरत पडेगी। नमी बनाये रखने के लिए इसके उद्यान में पलवार बिछाना अच्छा होगा। खट्टी चेरी में उत्स्वेदन ज्यादा होता है इसीलिए इसे ज्यादा पानी की जरुरत पड़ती है।
खाद् और उर्वरक
मीठी चेरी के पौधे आडू की अपेक्षा में ज्यादा नाइट्रोजन लेने की क्षमता रखते है। पौधों पे पोटाश की कमी के लक्षण भी नही मिलता क्युकी मिट्टी से पोटाश लेने की क्षमता पौधे में यह ज्यादा होता है।
चेरी के पौधरोपण के समय 10 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद 1 किलोग्राम नीम की खली, 70 ग्राम नाईट्रोजन 35 ग्राम फास्फोरस और 70 ग्राम पोटेशियम प्रति पेड़ प्रति वर्ष की आयु की दर से 10 वर्ष तक देते रहना चाहिए। खाद और उर्वरकों की मात्रा मृदा के परीक्षण तथा किस्म के आधार पर निर्धारित की जाती है।
इसके पौधे लगाने के 5 साल बाद फल देना शुरू होता है और 10 साल तक फल अच्छी तरह आते हैं। इसके पेड़ का अगर ध्यान रखा जाये तो 50 साल तक फल दे सकते है।
रोग एवं कीट रोकथाम
बैक्टीरियल गमोसिस – यह रोग चेरी के पौधों में सबसे अधिक देखा जाता है।
रोकथाम – पतझर और बसंत में एक-एक बोर्डोमिश्रण का छिड़काव और रोगजनित भाग को छीलकर अलग कर चौबटिया पेस्ट लगाना चाहिए।
लीफ स्पाट – पत्तियों में बैंगनी धब्बे जो बाद में बढ़कर लाल-भूरे दिखते हैं, और जब धब्बों के सूखे हुए क्षेत्र झड़ जाते हैं, तो पत्तियों में छेद हो जाता है और पत्ते सूख कर गिर जाते है।
रोकथाम:- कलियों के सूखने के समय या पत्तों के गिरने के समय ज़ीरम या थीरम 0.2% का छिड़काव करें।
भुरी व्याधि – फल तोड़ते समय वातावरण की अर्द्रता के कारण यह रोग देखा जाता है, मीठी और ड्यूक किस्मों में यह रोग अधिक देखा जाता है, सडे़ हुए हिस्सों में पाउडर की तरह भूरे रंग के छेद बन जाते हैं।
रोकथाम:- 15 दिन के अन्तराल पे 2 बार कैप्टान का छिड़काव करें।
ब्लेक फ्लाई – ब्लेक फ्लाई एक ऐसा कीट है जो सबसे ज्यादा चेरी की नये पत्तियों और साखाओं को इसके झुंड कुंचित कर शहद जैसा पदार्थ छोड़ते हैं जिससे फल खाने लायक नही रहता।
रोकथाम – रोकथाम के लिए पौधों में नीम का काढ़ा कीटनाशी या रोगोर का इस्तेमाल करना चाहिए।
फलों की तुड़ाई
इसके पौधे लगाने के 5 साल बाद फल देना शुरू होता है और 10 साल तक फल अच्छी तरह आते हैं। इसके पेड़ का अगर ध्यान रखा जाये तो 50 साल तक फल दे सकते है। मई महीने के बीच में फल पकना शुरू कर देते है लेकिन फल फटने की समस्या कभी-कभी गम्भीर हो जाती है। बिंग और ब्लैक हार्ट किस्मों के फल में यह समस्या अधिक नहीं होती।
उत्पादन
1 पेड़ से लगभग 15 – 25 किलो फल उपज हो जाता है। इसके पकने से पहले ही तोड़ लेना चाहिए नहीं तो पकने के बाद वो जल्दी ख़राब हो सकते है। मीठी चेरी ताजी खायी जाती है और खट्टी को शाक के रुप, मुरब्बा, डिब्बाबन्दी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
भंडारण
इसकी पैकिंग छोटी छोटी टोकरियों या लकड़ी के बक्सों में करनी चाहिए।