शतावरी का पौधा एक बारहमासी, कांटेदार पर्वतारोही है इसे 'शतावर', 'शतावरी', 'सतावरी', 'सतमूल' और 'सतमूली' के नाम से भी जाना जाता है। यह पौधा पूरे भारत, श्रीलंका और पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है। आयुर्वेद में इसे 'औषधियों की रानी' माना जाता है। इसकी गांठ या कंद का उपयोग किया जाता है।
इसका पौधा एक मीटर से दो मीटर लंबा कई शाखाओं वाला कंटीला बेल जैसा रूप होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होती हैं। यह पौधा सभी प्रकार के जंगलों और मैदानी इलाकों में पाया जाता है।
सतवारी के औषधीय उपयोग
इसका प्रयोग स्त्रीरोग संबंधी रोगों जैसे प्रसव के बाद दूध की कमी, बांझपन, गर्भपात, रजोनिवृत्ति के लक्षणों के उपचार आदि में किया जाता है। यह जोड़ों के दर्द और मिर्गी में भी लाभकारी है। इसका उपयोग प्रतिरक्षा बढ़ाने के साथ-साथ पेशाब के दौरान जलन को कम करने, तंत्रिका तंत्र और पाचन तंत्र के रोगों, ट्यूमर, गले में संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। भूख न लगना और अनिद्रा में भी यह पौधा लाभकारी है। अतिसक्रिय बच्चे और कम वजन वाले लोग भी शतावरी से लाभान्वित होते हैं। यह महिलाओं के लिए एक बेहतरीन टॉनिक माना जाता है।
मिट्टी और जलवायु
आमतौर पर शतावरी की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, जैसे काली मिट्टी, मध्यम काली, लाल दोमट, चिकनी मिट्टी, पथरीली मिट्टी और हल्की मिट्टी जिसका पीएच मान 7-8, विद्युत चालकता - 0.15, कार्बनिक कार्बन 0.79% और फास्फोरस 7.3 किग्रा/एकड़ होना चाहिए। इसकी खेती 10° से 45° तापमान में की जा सकती है और इसके पौधे और जड़ों की विकास के लिए 25°-35° तापमान सही माना जाता है। इसे उपोष्णकटिबंधीय और उप-समशीतोष्ण कृषि-जलवायु क्षेत्रों में 1400 मीटर तक आसानी से उगाया जा सकता है।
खेत की तैयारी
मिट्टी को 20-30 सेंटीमीटर गहरी जुताई के बाद कुछ दिनों के बाद 2-3 हैरो से जुताई करें। घास और खरपतवार हटा दिए जाते हैं। भूमि को ठीक से समतल किया जाता है और सिंचाई के लिए एक चैनल के रूप में 15-20 सेंटीमीटर की जगह छोड़कर रोपण के लिए 40-45 सेंटीमीटर चौड़ी मेड़ तैयार की जाती है।
बुवाई का समय
शतावरी के पौधे को लगाने का सही समय जून से अगस्त तक का होता है, लेकिन अगर जमीन उपजाऊ हो और पानी भरपूर मात्रा में उपलब्ध हो तो आप इसकी खेती किसी भी महीने से शुरू कर सकते हैं।
नर्सरी उगाना और रोपण
अप्रैल में बीजों को 5 सें.मी. की दूरी पर उठी हुई क्यारियों में बोया जाता है ताकि मॉनसून शुरू होने तक इसके कठोर बीजावरण का क्षय हो सके। जून में मानसून की पहली बौछार के 8 से 10 दिनों में अंकुरण शुरू हो जाता है। पौधों को 60 x 60 सेमी की दूरी पर मेड़ों पर लगाया गया और जब पौधे 45 सेमी की ऊंचाई प्राप्त कर लेते हैं तो उन्हें बांस के डंडे प्रदान किए जाते हैं।
हवाई तने के आधार पर मौजूद प्रकंद डिस्क के विभाजन से वनस्पति प्रसार होता है। राइजोमेटस डिस्क एरियल शूट के आसपास कई वनस्पति कलियों को विकसित करती है। डिस्क को इस तरह विभाजित किया जाता है कि प्रत्येक टुकड़े में कम से कम दो कलियाँ और 2-3 कंद मूल हों। इन टुकड़ों को कलियों के ऊपर 1 सें.मी. मिट्टी के साथ लगाया जाता है और इसके बाद सिंचाई की जाती है। रोपण के 8-10 दिनों में अंकुरण शुरू हो जाता है।
खरपतवार नियंत्रण
बरसात के महीनों के दौरान दो निराई की जाती है, उसके बाद अगले 2-3 महीनों में एक।
सिंचाई
वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद शीत ऋतु में दो सिंचाई तथा ग्रीष्म ऋतु में प्रति माह एक सिंचाई की दर से सिंचाई की जाती है।
खाद, उर्वरक और कीटनाशक
औषधीय पौधों को बिना रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग के उगाना होगा। जैविक खाद जैसे, फार्म यार्ड खाद (FYM), वर्मी-कम्पोस्ट, हरी खाद आदि का उपयोग प्रजातियों की आवश्यकता के अनुसार किया जा सकता है। रोगों से बचाव के लिए नीम (गिरी, बीज और पत्ते), चित्रकमूल, धतूरा, गाय के मूत्र आदि से जैव कीटनाशक (या तो एकल या मिश्रण) तैयार किए जा सकते हैं।
फसल की खुदाई और उपज
शतावरी की फसल 16 माह में खुदाई के योग्य हो जाती है, खुदाई करते समय इस बात का ध्यान रखें कि इसकी जड़ें कटी, छिली या मिट्टी में नहीं रहनी चाहिए। खेती के वैज्ञानिक तरीकों के कारण भारत के कई राज्यों में किसान वर्तमान में प्रति पौधे 5 से 7 किलोग्राम जड़ों का उत्पादन कर रहे हैं।
सामान्यतः शतावरी की उपज प्रति पौधा 1 से 2 किग्रा गीली जड़ मानकर प्रति एकड़ लगभग 12000 से 14000 किग्रा (12-14 टन) गीली जड़ प्राप्त होती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि गीली जड़ों को छीलकर सुखाने के बाद 15-20 प्रतिशत शेष रह जाता है। इस प्रकार एक एकड़ में कम से कम 1500 से 2000 किग्रा सूखी जड़ प्राप्त हो जाती है। जिसकी बाजार में कीमत 150 रुपये से लेकर 200 रुपये प्रति किलो तक है।