Vikas Singh Sengar
03-01-2022 02:19 AMडा. विकास सिंह सेंगर1, गोविंद कुमार1, अमित सिंह1, संजय दत्त गहतोड़ी1,, दीपक कुमार 2 ,आदित्य अभिनव2, एवं दिव्यांशी तोमर 2
1. असिस्टेंट प्रोफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर, शिवालिक इंस्टीट्यूट आफ प्रोफेशनल स्ट्डीज देहरादून उत्तराखंड
2. तृतीय वर्ष बी. एस. सी., कृषि संकाय, शिवालिक इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज
भारत के विकास और प्रगति में कृषि और सम्बद्ध क्षेत्र का मुख्य योगदान है। भारत का आर्थिक और सामाजिक ढाँचा कृषि और सम्बद्ध क्षेत्र पर टिका है। कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला है, भारत में खेती-किसानी जोखिम भरा उद्यम है जिसमें सालाना आमदनी मौसम पर निर्भर करती है। खेती में बढ़ती उत्पादन लागत व घटते मुनाफे के कारण युवाओं का झुकाव भी खेती की तरफ कम होता जा रहा है। कृषि खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य और अन्य सामान के उत्पादन से संबंधित है। कृषि एक मुख्य विकास था, जो सभ्यताओं के उदय का कारण बना, इसमें पालतू जानवरों का पालन किया गया और पौधों (फसलों) को उगाया गया, जिससे अतिरिक्त खाद्य का उत्पादन हुआ। इसने अधिक घनी आबादी और स्तरीकृत समाज के विकास को सक्षम बनाया। कृषि का अध्ययन कृषि विज्ञान के रूप में जाना जाता है
ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े स्तर में युवाओं का शहरों की ओर पलायन हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि में कमी, कम आमदनी की वजह से रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। कृषि-आधारित उद्यम को रोजगार के विकल्प के रूप में अपनाया जा सकता है।
कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र : भारत में खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन, बागवानी, मुर्गी पालन, मछली पालन, वानिकी, रेशम कीट पालन, कुक्कुट पालन व बत्तख पालन आमदनी बढ़ाने का एक अहम हिस्सा बनता जा रहा है। भारत की राष्ट्रीय आय का एक बड़ा हिस्सा कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों से प्राप्त होता है। भारत के कुल निर्यात में 16 % हिस्सा कृषि से प्राप्त होता है। भारत की लगभग आधी श्रमशक्ति कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों में ही लगी हुई है। कृषि विकास दर वर्ष 2016-17 में 4.9 % थी। वर्ष 2016-17 सर्वेक्षण के आधार पर कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों का भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 17.8 % योगदान, किसी समय आयात पर निर्भर रहने वाला भारत 27.568 करोड़ टन खाद्यान्नों का उत्पादन कर रहा है। भारत गेहूँ, धान, दलहन, गन्ना और कपास जैसी अनेक फसलों में चोटी के उत्पादकों में शामिल है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सब्जी और फल उत्पादक देश भारत बन गया है। भारत में 2.37 करोड़ हेक्टेयर में बागवानी फसलों की खेती की जाती है जिससे वर्ष 2016-17 में 30.5 करोड़ टन बागवानी फसलों का उत्पादन हुआ था | भारत विश्व में मसालों का सबसे बड़ा उत्पादक व निर्यातक है। भारत की अर्थव्यवस्था में पशुपालन और डेयरी उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत 16.5 करोड़ टन, विश्व दुग्ध उत्पादन में 19 % का योगदान करता है। कुक्कुट पालन में भारत विश्व में सातवें स्थान पर है। अण्डा उत्पादन में भारत का विश्व में तीसरा स्थान है। भारत में 6 लाख टन माँस का कुक्कुट उद्योग उत्पादन करता है। मौजूदा समय पर भारत दुनिया का दूसरा बड़ा मछली उत्पादक देश है। मछली पालन में देश के सकल घरेलू उत्पादन में करीब एक प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्ष 2015-16 में मछलियों का उत्पादन 1.08 करोड़ टन था।
सरकारी प्रयास व योजनाएँ : किसानों की आय बढ़ाने व ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूती के लिये परम्परागत तकनीक के स्थान पर आधुनिक तकनीकों पर जोर दिया जा रहा है। अधिकांश सीमान्त और छोटे किसान पारम्परिक तरीके से खेती करते रहते हैं, खेती की लागत निकाल पाना भी मुश्किल होता है। मौजूदा कृषि कानून कृषि लागत कम करने में मील का पत्थर साबित होगा।
खाद, बीज, डीजल, बिजली और कीटनाशकों के महँगे होते जाने से खेती की लागत बढ़ती जा रही है साथ ही हमें उपज का सही मूल्य नहीं मिल रहा है। समाधान हेतु बजट 2018-19 में सरकार ने किसानों को उत्पादन लागत का डेढ़ गुना कीमत देना तय किया था। खेती को मजबूत करने, किसानों की उपज का बेहतर मूल्य दिलाने की दिशा में सरकार ने कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं व प्रौद्योगिकियों प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, आई.सी.टी तकनीक, फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि, राष्ट्रीय कृषि बाजार, ई-खेती व किसान मोबाइल एप की शुरुआत की है। सरकार द्वारा किए गए ये कृषि संबंधी सुधार किसानों की आय बढ़ाने में कृंतिकारी साबित होंगे।
सरकार फसलों का उत्पादन बढ़ाने, खेती की लागत कम करने, फसल उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान को कम करने और खेती से जुड़े बाजारों का सुधार कर रही है किसानों के हित में आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों में उतार चढ़ाव की समस्या से बचने के लिये ‘ऑपरेशन ग्रीन’ योजना शुरू की गई है। भारतीय किसानों के समक्ष गम्भीर समस्या उत्पादन का सही मूल्य न मिलना है। बिचौलियों और दलालों के कारण किसानों को कृषि उत्पाद बहुत कम दामों में बेचने पड़ते हैं। कृषि उत्पाद जैसे सब्जियाँ, फल,फूल, दूध और दुग्ध पदार्थ बहुत जल्दी खराब हो जाते हैं। इन्हें लम्बे समय तक संग्रह करके नहीं रखा जा सकता है। और न ही किसानों के पास इन्हें संग्रह करने की सुविधा|राष्ट्रीय-स्तर पर छोटे और सीमान्त किसानों की संख्या 86% है। इनके थोक मंडियों तक पहुँचना आसान नहीं है। मंडियाँ दूर होने से उपज आसपास के बिचौलियों व व्यापारियों के हाथों बेचने के लिये मजबूर होते हैं। सरकार स्थानीय मंडियों व ग्रामीण हाटों को विकसित करने की जरूरत पर जोर दिया है।
पशुपालन एवं डेयरी विकास को बढ़ावा देने के लिये कई राज्यों में पशुपालन एवं डेयरी विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है। केन्द्र सरकार मछली उत्पादन बढ़ाने के लिये बुनियादी सुविधाएँ विकसित कर रही है जिससे मछलियों के भण्डारण और विपणन में आसानी हो और मत्स्य पालन एक फायदे का सौदा साबित हो सके।
कृषि और इससे सम्बन्धित उद्यम की हालत में सुधार व इनको अपनाते समय निम्नलिखित मुख्य बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए
1. किसानों की आय में बढ़ोत्तरी।
2. कृषि जोखिम में कमी ।
3. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़े।
4. कृषि क्षेत्र का निर्यात बढ़े।
5. ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता में सुधार।
6. इसके अलावा कृषि का बुनियादी ढाँचा विकसित हो।
ग्रामीणों किसानों व पशुपालकों की आय बढ़ाने के लिये देश में कृषि उद्यम के अनेक विकल्प हैं जिन्हें अपनाकर किसान आय बढ़ाने के साथ जीवन स्तर ऊँचा कर सकते हैं। इन उद्यम से बड़े उद्योगों की अपेक्षा प्रति इकाई पूँजी द्वारा अधिक लाभ कमाया जा सकता है। उद्यम रोजगारपरक भी होते हैं। कृषि एवं इससे सम्बन्धित उद्यम किसानों की आय व ग्रामीण युवाओं के लिये रोजगार के अवसर बढ़ा सकते हैं जिनमें से कुछ निम्न प्रकार है।
पशुपालन एवं डेयरी उद्योग : पशुपालन एवं डेयरी उद्योग भारतीय कृषि का अभिन्न अंग हैं। भूमिहीन श्रमिकों, छोटे किसानों व बेरोजगार ग्रामीण युवाओं के लिये पशुपालन एक अच्छा उद्यम है। भारतीय कृषि में खेती और पशु शक्ति के रिश्ते को अलग कर पाना अभी तक एक कल्पना मात्र ही थी। मगर आज के मशीनीकृत युग में इस कल्पना को भी एक जगह मिलने लगी है। इसे रोजगार की दृष्टि से देखें तो खेती और पशुपालन एक दूसरे के अनुपूरक उद्यम हैं, जिसमें कृषि की लागत का एक हिस्सा तो पशुओं से प्राप्त हो जाता है| पशुओं का चारा आदि फसलों से मिल जाता है। पशुओं से दूध प्राप्त होता है,जिस पर पूरा डेयरी उद्योग टिका हुआ है; जिसमें दूध के परिरक्षण ,पैकिंग और इससे बनने वाले विभिन्न उत्पादों दूध का पाउडर, दही, छाछ, मक्खन, घी, पनीर आदि के निर्माण व विपणन में संलग्न छोटे स्तर की डेरियों से लेकर अनेक राज्यों के दुग्ध संघों एवं राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड जैसे संस्थानों द्वारा हजारों लाखों को रोजगार प्राप्त हो रहा है। पशुपालन विस्तार से रोजगार बढ़ने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं।पशुओं से प्राप्त दूध एवं पशु शक्ति के विभिन्न उपयोगों के अलावा उनके गोबर से प्राप्त गोबर गैस को भी हम विभिन्न कार्यों के लिये उपयोग कर सकते हैं। पशुओं के बाल, उनके माँस चमड़े एवं हड्डी पर आधारित उद्योगों द्वारा रोजगार बढ़ाने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं। दूध के प्रसंस्करण व परिरक्षरण से मूल्य संवर्धन किया जा सकता है जिससे कम पूँजी लगाकर स्वरोजगार प्राप्त किया जा सकता है।
मुर्गीपालन : माँस व अण्डों की उपलब्धता के लिये व्यावसायिक स्तर पर मुर्गी और बत्तख पालन को कुक्कुट पालन कहा जाता है। भारत में विश्व की सबसे बड़ी कुक्कुट आबादी है, अधिकांश कुक्कुट आबादी छोटे, सीमान्त और मध्यम वर्ग के किसानों के पास है। भूमिहीन किसानों के लिये मुर्गीपालन रोजी-रोटी का मुख्य आधार है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में कुक्कुट पालन से अनेक फायदे हैं| किसानों की आय में बढ़ोत्तरी देश के निर्यात व जीडीपी में अधिक प्रगति तथा देश में पोषण व खाद्य सुरक्षा की सुनिश्चितता आदि। कुक्कुट पालन का उद्देश्य पौष्टिक सुरक्षा में माँस व अण्डों का प्रबन्धन करना है। मुर्गीपालन बेरोजगारी घटाने के साथ देश में पौष्टिकता बढ़ाने का भी बेहतर विकल्प है। बाजार परिदृश्य में कुक्कुट उत्पाद उच्च जैविकीय मूल्य के प्राणी प्रोटीन के सबसे सस्ते उत्पाद हैं। बढ़ती आबादी, खाद्यान्न आदतों में परिवर्तन, औसत आय में वृद्धि, बढ़ती स्वास्थ्य सचेतता व तीव्र शहरीकरण कुक्कुट पालन के भविष्य को स्वर्णिम बना रहे हैं। आज के युग में मांसाहारी वर्ग के साथ-साथ शाकाहारी वर्ग भी अण्डों का बेहिचक उपयोग करते है। जिससे मुर्गीपालन उद्यम के बढ़ने की सम्भावनाएँ प्रबल होती जा रही हैं। चिकन प्रसंस्करण को व्यावसायिक स्वरूप देकर विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सकती है। कृषि से प्राप्त उप उत्पादों को मुर्गियों की खुराक के रूप में उपयोग करके इस उद्यम से रोजगार प्राप्त किया जा सकता है। इस उद्यम की शुरुआत के लिये भूमिहीन ग्रामीण बेरोजगार, बैंक से ऋण लेकर कम पूँजी से अपना उद्यम प्रारम्भ कर सकते हैं तथा अण्डों के साथ-साथ चिकन प्रसंस्करण करके स्वरोजगार प्राप्त कर सकते हैं।
सुअर पालन : विदेशी सुअर की अच्छी नस्लें बर्कशायर, यार्कशायर एवं हैम्पशायर का उपयोग एकीकृत खेती में करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है। सुअर पालन के लिये जमीन की बहुत कम आवश्यकता होती है। बहुत कम पूँजी में इस उद्यम की शुरुआत की जा सकती है। एक मादा सुअर एक बार में 10 से 12 बच्चों को जन्म देती है। इसलिये सुअर पालन उद्यम का विस्तार बहुत ही शीघ्र किया जा सकता है।सुअरों के राशन हेतु बेकरी एवं होटलों के बचे हुए तथा कुछ खराब खाद्य पदार्थों का उपयोग कर सकते हैं। अन्य पशुओं की अपेक्षा प्रति इकाई राशन से सुअरों का वजन भी सबसे अधिक बढ़ता है जिससे लागत के अनुपात में आय अधिक होती है। अतः यह एक लाभकारी उद्यम है जिसको अपनाकर किसान भाई अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं।
मछली पालन : भारत में खारे जल की समुद्री मछलियों और ताजे पानी में मछली पालन किया जाता है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में छोटे तालाबों में मछली पालन किया जाता है। भूमि के एक छोटे से टुकड़े में तालाब बनाकर या तालाब को किराये पर लेकर व्यावसायिक ढंग से मछली पालन किया जा सकता है।मछली उद्योग से जुड़े अन्य कार्यों जैसे मछलियों का श्रेणीकरण एवं पैकिंग करना, उन्हे सुखाना एवं उनका पाउडर बनाना तथा बिक्री करने से काफी लोगों को रोजगार प्राप्त हो सकता है।मछली पालन में पूँजी की अपेक्षा श्रम का अधिक महत्त्व होता है। अतः इस उद्योग में लागत की तुलना में आमदनी अधिक होती है।
भेड़-बकरी पालन : भूमिहीन बेरोजगारों के लिये भेड़ और बकरियों का पालन अच्छा उद्यम है। इस उद्यम को कम पूँजी से भी प्रारम्भ किया जा सकता है। इसलिये बकरियों को ‘गरीब की गाय’ कहा जाता है। बकरियों को चराने मात्र से उनका पेट भरा जा सकता है। बकरी से जब चाहों तब दूध निकाल लो, इसी कारण से इसे चलता फिरता फ्रिज कहा जाता है। भेड़ तथा बकरियों के माँस पर किसी प्रकार का धार्मिक प्रतिबन्ध नहीं है। भेड़ को ऊन उद्योग की रीढ़ की हड्डी माना जाता है।माँस, ऊन तथा चमड़ा उद्योग के लिये कच्चे माल का स्रोत होने के कारण , इस उद्यम के द्वारा रोजगार की प्रबल सम्भावनाएँ हैं। वैज्ञानिक ढंग से भेड़-बकरी पालन पालन करने से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। अतः यह उद्यम किसानों की आय दोगुना करने में सहायक है।
मशरूम की खेती : स्वास्थ्य के लिये सन्तुलित भोजन में प्रोटीन का विशेष महत्त्व है। मशरूम प्रोटीन का अच्छा स्रोत है। मशरूम की खेती के लिये जमीन और पूँजी की ज्यादा जरूरत नही होती है। छप्पर के शेड में मशरूम की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। पौष्टिकता की दृष्टि से मशरूम की माँग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।मशरूम की खेती से रोजगार प्राप्त करके अच्छा लाभ कमाया जा सकता है। इस उद्यम के लिये तकनीकी ज्ञान होना आवश्यक है| मशरूम की खेती भी किसानों की आय बढ़ाने के साथ ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार सृजन का अच्छा माध्यम है।
बागवानी फसलों की खेती : बागवानी फसलों से रोजगार के अवसर बढ़े हैं। साथ ही साथ लघु और सीमान्त किसानों की आय में वृद्धि हो रही है। सब्जियाँ अन्य फसलों की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्र से कम समय में अधिक पैदावार देती है। साथ ही,कम समय में तैयार हो जाती हैं। फलों में नींबू , केला,व पपीता तथा फूलों, सब्जियों और पान की खेती के लिये कम जमीन की आवश्यकता होती है। जमीन की तुलना में रोजगार काफी लोगों को उपलब्ध हो जाता है। इनकी दैनिक एवं नियमित माँग अधिक होने के कारण ,इनकी खेती से लागत की तुलना में आमदनी अधिक होती है। फल, फूल व सब्जियों की खेती से प्राप्त होने वाले उत्पादों की तुड़ाई, कटाई, छंटाई श्रेणीकरण, पैकिंग से लेकर विपणन तक के कार्यों में मानव श्रम की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र से ग्रामीणों को रोजगार मिलने की अधिक सम्भावना है। रोजगार मिलने के साथ फूलों फल व सब्जियों की छंटाई, श्रेणीकरण पैकिंग आदि से उत्पादों की गुणवत्ता को बढ़ाकर अधिकतम लाभ भी कमाया जा सकता है। किसानों की आय में कृंतिकारी परिवर्तन करने के लिए यह उद्यम बहुत उपयोगी है।
कृषि उत्पादों का मूल्य संवर्धन : फसलों से प्राप्त उत्पादों के प्रसंस्करण और परिरक्षण से मूल्य संवर्धन किया जा सकता है जैसे कि मूँगफली से भुने हुए नमकीन दानें, मूँग से नमकीन बनाना, चिक्की,दूध व दही बनाना; आलू व केले से चिप्स बनाना; गन्ने से गुड़ बनाना, गुड़ के शीरे व अंगूर से शराब व अल्कोहल बनाना, सोयाबीन से दूध व दही बनाना; फलों से शर्बत, जैम, जेली व स्क्वैश बनाना, तिलहनों से तेल निकालना, दलहनी उत्पादों से दालें बनाना, धान से चावल निकालना आदि। इसके अलावा दूध के परिरक्षण व पैकिंग के इससे और बनने वाले विभिन्न उत्पादों दूध का पाउडर, दही, छाछ, मक्खन, घी, पनीर आदि के द्वारा दूध का मूल्य संवर्धन किया जा सकता है। लाख से चूड़ियाँ तथा खिलौने बनाना, फूलों से सुगन्धित इत्र बनाना, कपास के बीजों से रुई अलग करना व पटसन से रेशे निकालने के अलावा कृषि के विभिन्न उत्पादों से अचार एवं पापड़ बनाना आदि के द्वारा मूल्य संवर्धन किया जा सकता है|कम पूँजी लगाकर स्वरोजगार प्राप्त करके आय में इजाफा किया जा सकता है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग श्रम आधारित होता है। इसे निर्यात का प्रमुख उद्योग बनाकर कामगारों के लिये रोजगार के काफी अवसर पैदा किये जा सकते हैं।
कृषि-आधारित कुटीर उद्योग-धन्धे : ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन, आय बढ़ाने में कुटीर उद्योगों की बड़ी भूमिका होती है। कृषि आधारित कुटीर उद्योगों द्वारा ग्रामीण युवकों को कम पूँजी से रोजगार मिल सकता है। कृषि आधारित कुटीर उद्योग धन्धों हेतु संसाधन जुटाने के लिये पूँजी व्यवस्था में ग्रामीण बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कृषि विकास शाखाओं एवं सहकारी समितियों का बड़ा योगदान होता है। इनके माध्यम से कृषि पर आधारित कुटीर उद्योग-धन्धों को आरम्भ करने हेतु सरकार द्वारा संचालित योजनाओं से ग्रामीण बेरोजगारों को कम ब्याज दर तथा आसान किश्तों पर ऋण दिया जा रहा है।कृषि आधारित कुटीर उद्योग धन्धों में बाँस ,अरहर तथा अन्य फसलों एवं घासों के तनों एवं पत्तियों द्वारा डलियाँ, टोकरियाँ, चटाइयाँ, टोप व टोपियाँ तथा हस्तचालित पंखे बुनना, रस्सी व मोढ़े बनाना, कुर्सी व मेज बनाना आदि प्रमुख हैं। रूई से रजाई-गद्दे तकिये बनाने के अलावा सूत बनाकर हथकरघा निर्मित सूती कपड़ा बनाने, जूट और पटसन के रेशे से विभिन्न प्रकार के थैले टाट निवाड़ व गलीचों की बुनाई करने जैसे कुटीर उद्योगों को अपनाया जा सकता है।लकड़ी का फर्नीचर बनाना, स्ट्रा बोर्ड, कार्ड बोर्ड व सॉफ्टबोर्ड तथा साबुन बनाना आदि अन्य कुटीर उद्योगों द्वारा आय व रोजगार के साधन बढ़ाये जा सकते हैं।
बीज उत्पादन एवं नर्सरी : फल, फूलों और सब्जियों के बीज प्रायः अत्यन्त छोटे होते हैं जो बिना उपचार के नहीं उगते हैं कुछ का तो सिर्फ वानस्पतिक वर्धन ही किया जा सकता है।बाग-बगीचों और पुष्प वाटिकाओं में फल, फूलों एवं शोभाकारी पेड़-पौधों के साथ बागवानी की अन्य फसलों के लिये सामान्यतः बीजों की सीधी बुवाई न करके नर्सरी में पहले पौध तैयार करते हैं। इसके बाद खेत में रोपण करते हैं।जिन ग्रामीण बेरोजगारों के पास जमीन और पूँजी की कमी है, वे इस उद्यम को अपनाकर अच्छा लाभ कमाने के साथ अन्य लोगों को भी रोजगार उपलब्ध करवा सकते हैं। नर्सरी पौध तैयारी करने के लिये तकनीकों का प्रयोग करना पड़ता है। अतः व्यक्ति का दक्ष एवं प्रशिक्षित होना जरूरी है।पढ़े-लिखे युवा सब्जी बीज उत्पादन को एक उद्यम के रूप में अपनाकर अपनी आमदनी भी बढ़ा सकते हैं।
मधुमक्खी पालन: मधुमक्खी पालन कृषि आधारित उद्यम है। शहद और इसके उत्पादों की बढ़ती माँग के कारण मधुमक्खी पालन एक लाभदायक और आकर्षक उद्यम बनता जा रहा है। मधुमक्खी पालन में कम समय कम लागत में और कम पूँजी निवेश की जरूरत होती है। मधुमक्खी पालन फसलों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मधुमक्खी पालन, फार्म पर फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में भी सहायक है। मधुमक्खी पालन के लिये सरकार की ओर से समय पर अनेक योजनाएँ चलाई जाती हैं। मधुमक्खी पालन करने वालों को प्रशिक्षण के साथ-साथ ऋण की भी सुविधा मिलती है।
औषधीय एवं सुगन्धीय पौधों की खेती : भारत में आजकल दवाइयों के लिये औषधीय पौधों और फल-फूल इत्यादि की खेती कारोबार के लिये की जा रही है। लहसुन, प्याज, अदरक, करेला, पुदीना और चौलाई जैसी सब्जियाँ पौष्टिक होने के साथ औषधीय गुणों से भी भरपूर हैं। इनसे कई तरह की आयुर्वेदिक औषधि व खाद्य पदार्थ बनाकर किसान आमदनी बढ़ा सकते हैं।
उपरोक्त जानकारी के आधार पर कोई भी किसान यह निर्णय कर सकता है कि कृषि व इससे सम्बन्धित उद्यम में से अपनी परिस्थिति के अनुसार वह कौन से उद्यम को अपनाकर अपनी जीविका चलाने के साथ-साथ लाभ भी कमा सकता है। इसके अलावा सरकार द्वारा कौन-कौन सी सुविधाएँ व अनुदान उपलब्ध कराये जा रहे हैं, आदि जानकारियों का लाभ उठाकर किसानभाई स्वरोजगार की तरफ उन्मुख हो सकते हैं। उपरोक्त उद्यमों का सही मात्रा में समावेश करके किसान अपनी आय दूना करने से भी अधिक आय अर्जित कर सकते हैं। इन विधाओं का प्रयोग करके किसान भाई माननीय प्रधानमंत्री जी की आकांक्षा और उपेक्षा को निर्धारित समय से पहले ही पूर्ण करके अपने जीवन स्तर में चहुंमुखी विकास कर सकते है। साथ ही साथ देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे सकते हैं।
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