Sanjay Kumar Singh
21-12-2022 02:56 AMडॉ. एसके सिंह
प्रोफेसर सह मुख्य वैज्ञानिक( प्लांट पैथोलॉजी)
एसोसिएट डायरेक्टर रीसर्च
डॉ. राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय
पूसा , समस्तीपुर बिहार
पपीता का वैज्ञानिक नाम कॅरिका पपया ( carica papaya) है। इसकी फेमिली केरीकेसी ( Caricaceae) है। इसका औषधीय उपयोग होता है। पपीता स्वादिष्ट तो होता ही है इसके अलावा स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। सहज पाचन योग्य है। पपीता भूख और शक्ति बढ़ाता है। यह प्लीहा, यकृत को रोगमुक्त रखता और पीलिया जैसे रोगों से मुक्ती देता है। कच्ची अवस्था में यह हरे रंग का होता है और पकने पर पीले रंग का हो जाता है। इसके कच्चे और पके फल दोनों ही उपयोग में आते हैं। कच्चे फलों की सब्जी बनती है। इन कारणों से घर के पास लगाने के लिये यह बहुत उत्तम फल है।
इसके कच्चे फलों से दूध भी निकाला जाता है, जिससे पपेन तैयार किया जाता है। पपेन से पाचन संबंधी औषधियाँ बनाई जातीं हैं। अत: इसके पक्के फल का सेवन उदरविकार में लाभदायक होता है। पपीता सभी उष्ण समशीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों में होता है। उच्च रक्तदाब पर नियंत्रण रखने के लिए पपीते के पत्ते को सब्जी में प्रयोग करते है। पपीते में ए, बी, डी विटामिन और केल्शियम, लोह, प्रोटीन आदि तत्त्व विपुल मात्रा में होते है। पपीते से वीर्य बढ़ता है। त्वचा रोग दूर होते है। ज़ख्म जल्दी ठीक होते है। मूत्रमार्ग की बिमारी दूर होती है। पाचन शक्ति बढ़ती है। मूत्राशय की बिमारी दूर होती है। खॉसी के साथ रक्त आ रहा हो तो वह रुकता है। मोटापा दूर होता है। कच्चे पपीता की सब्जी खाने से स्मरणशक्ती बढती है। पपीता और ककड़ी हमारे स्वास्थ्य केंद्र लिए उपयुक्त है
पपीता के हरे कच्चे फलों को खरोंचने से जो दूध निकला है; इसी को सूखाने से पपेन तैयार होता हैा यह पेप्सिन के समान प्रोटीन पचाने वाला इनंजाइम है। यघपि यह बहुत से औघोगिक कामों में प्रयोग होता है पर इसका प्रमुख उपयोग दवा के रूप में है ।
पपीते की बागवानी फलों के अतिरिक्त पपेन के लिए भी की जाती है। पपेन कच्चे पपीते के फल का सुखाया हुआ दूध है इसके विभिन्न उपयोग हैं। पपीते के औषधीय गुण इसी पपेन के कारण होते हैं क्योंकि यह पौधे के प्रायः प्रत्येक भाग में पाया जाता है; लेकिन सबसे अधिक कच्चे फलों के दूध में होता है । पपेन का आर्थिक उपयोग खाध पदार्थो; खास कर माँस को गलाने; टयूना मछली के कलेजे से तेल निकालने में अधिक होता है। स्नो क्रीम और दन्त मंजन जैसे सौन्दर्य प्रसाधनों को बनाने; रेशम और रेयान से गोंद निकालने; उनको सिकोडने; चमडे के संसाधन और शराब के कारखानों में काफी उपयोग होता है। यह बहुत से रोग जैसे उतकक्षय; अजीर्ण; पाचन संवंधी रोगों में गोल कृति संक्रमण; चमडों के धब्बे मिटाने; गुर्दे की बीमारियों के उपचार में प्रयुक्त किया जाता है। उचित ढंग से पपेन के लिए पपीते की बागवानी करना काफी लाभदायक होगा।
पपेन निकालने की विधि काफी सरल है। पपेन के लिए पपीते की बागवानी वैसे ही की जाती है जैसे फल लेने के लिए। पपेने को हरे कच्चे फल से निकाला जाता है। इसके लिए आधे से तीन चैथाई विकसित फलों फल लगने के 70-100 दिन बाद का चयन करना चाहिए। दूध निकालनेके लिए फल पर लम्बाई में 0.3 सें0 मी0 गहरे एक बार में चार चीरे सुबह 10 बजे से पहले लगाते हैं। चीरे पूरे फल पर लगभग समान दूरी पर लगाना चाहिए। चीरे किसी स्टेनलेस स्टील के ब्लेड या तेज चाकू से लगाते हैं। चीरे लगाते ही फल की सतह पर सफेद दूध निकलने लगता है; जिसे धातु के बर्तन में इकट्ठा न करके किसी उचित चीनी मिट्टी ; कांच के बर्तन में करना एकत्र करना चाहिए। चीरे के कुछ समय बाद तक दूध बहता रहता है और बाद में फल की सतह पर कुछ जम जाता है। उसे भी खुरच कर इकटठा कर लेना चाहिए। चीरे लगाने की क्रिया 2-3 बार 3-4 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। इस तरह प्रत्येक फल में 12 से 16 दिन के अन्तर पर 3-4 बार चीरे लगाए जा सकते हैं। इस बीच में लगभग फल का सम्पूर्ण दूध निकल आता है। उत्तम प्रकार का पपेन बनाने के लिए दूध इकट्ठा करने के बाद सुखा लेना चाहिए। जल्दी सुखाने के लिए दूध का पानी किसी उचित चीज से दबाव डालकर निकाल दिया जाता है।
यह सीधे धूप में या ताप चालित ओवन में 50-55 डिग्री से0 ग्रे0 तापमान पर सुखाया जाता है । तरल दूध में सुखाने से पहले 0.05 प्रतिशत पोटेशियम मेटा-बाई सल्फाइट मिलाने से इसका भण्डारण कुछ हद तक बढ जाता है। सुखाने की क्रिया तब तक जारी रखते हैं; जब तक पदार्थ शल्क के रूप में न आने लगे। अधिक ताप या अधिक तेजी से सुखने पर पपेन का गुण खराब हो जाता है। अतः इस क्रिया को नहीं अपनाना चाहिए। निर्वात में सुखने से काफी अच्छा पपेन बनता है। सूखे हुए दूध को पीसकर बारीक चूर्ण में परिवर्तित कर लेते हैं और 10 मेश की छन्नी से छान लेते हैं। इस तरह तैयार किए हुए चूर्ण को हवा बन्द बोतलों में भर कर सील कर देते हैं। पालीथीन की थैलियां इस काम के लिए उत्तम पाई गई हैं। इस तरह की बहुत सी थैलियों को एक बडे टिन में भंडारण या परिवहन के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।
प्रतिवर्ष पपेन की पैदावार फलों की संख्या और आकार; बागवानी का तरीका और जलवायु अत्यादि बातों पर निर्भर करती है; पूर्ण विकसित फलों से अपूर्ण विकसित या कच्चे फलों की तुलना में अधिक दूध निकलता है। प्रायः अंडाकार फलों से गेाल या लम्बे फलों की तुलना में अधिक पपेने मिलता है। साधारणतया 250-300 कि0 ग्रा0 प्रति हैक्टर प्रथम वर्ष और इसकी आधी उपज द्वितीय वर्ष में अच्छी मानी जाती है। तृतीय वर्ष में उपज इतनी धट जाती है कि पपेन के लिए बगीचा रखना लाभकारी नहीं होता।
पपेन बनाने के लिए फलों से दूध इकट्ठा करने से उनके पकने एवं स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पडता है। चीरा लगाने से फलों का बाहरी रूप विगड जाता है जिससे बाजार में कम दामों पर बिकता है। इस तरह के फलों को डिब्बाबन्दी या जैम; जेली; कैंडी; टॉफी इत्यादि लाभप्रद वस्तुओं के रूप में परिरक्षित किया जा सकता है। इनसे टूटी फूटी भी बनाई जाती है।
पपेन तने; पत्तियाँ एवं डंठलों के रस को अमोनियम सल्फेट संतष्प्ती या एल्कोहल कर्षण क्रियाओं दारा निकाल कर भी बनाया जा सकता है । इस तरह से बनाए हुए पपेन की एन्जाइम क्रिया वैसी ही होती है; जैसी कि फलों से बनाए हुये। पपीते की किस्म पूसा मजेस्टी; कोयम्बटूर-2 और कोयम्बटूर-5 में पपेन की मात्रा काफी होती है। इससे प्रतिवर्ष प्रति पौधा लगभग 300-400 ग्रा0 पपेन पैदा होता है जो अन्य किस्मों से अधिक है।
पपेन अन्तराष्ट्रीय बाजारों में मुख्य रूप से श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका और कांगों से आता है। भारत से भी इसका निर्यात होता है। पपेन खरीदने वाले मुख्य देश अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, पश्चिमी जर्मनी और स्विट्जरलैंड हैं।
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