Sanjay Kumar Singh
05-06-2023 05:03 AMप्रोफेसर (डॉ) एस के सिंह
सह निदेशक अनुसंधान
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (फल)
डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय,पूसा, समस्तीपुर बिहार
QRT, CIAH,बीकानेर एवं आईसीएआर - एआईसीआरपी (शुष्क फल) के बतौर सदस्य मुझे हार्टिकल्चर रीसर्च स्टेशन, हीरेहल्ली,कर्नाटक जो IIHR, बैंगलोर का एक अनुसंधान केंद्र है वहा जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। भ्रमण के दौरान मुझे एवोकैडो फल (Avocado fruits) खाने को मिला ,फल का स्वाद शब्दों में व्यक्त कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है....इसे खाते समय लग रहा था की मैं दुध की मलाई से बने किसी उच्च स्तरीय मिठाई को खा रहा हूं। इस वर्ष जुलाई अगस्त से अखिल भारतीय समन्वित फल परियोजना के अंतर्गत इसके कुछ पेड़ पूसा में लगा कर इसकी खेती की संभावना को परखने का प्रयास प्रस्तावित है। इसमें फल आने में 5 से 6 वर्ष लगते है उसके उपरांत ही बिहार की कृषि जलवायु में इस फल की खेती से संबंधित पैकेज एंड प्रैक्टिसेज दे पाना संभव होगा। भ्रमण के दौरान हमने वहा के वैज्ञानिक से विस्तार से चर्चा की की क्या इसकी खेती बिहार की कृषि जलवायु में किया जा सकता है की नही। उनसे हुईं वार्ता के आधार पर एवोकैडो की खेती कैसे की जाय जानते है।
एवोकैडो की खेती खास तरह के फलों को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इसका फल स्वास्थ के लिए अधिक लाभकारी होता है। यह एक विदेशी फल है, जिसका प्रचलन आज कल भारत में भी अधिक देखने को मिल रहा है। यह अधिक पौष्टिक फल है, जिसमे पोटेशियम केले से भी अधिक पाया जाता है। दक्षिण अमेरिका और लेटिन के बहुत से व्यंजनों जैसे :- चिपोतले चिलीस, गुयाकमोले, चोरीज़ों ब्रेकफ़ास्टस और टोमेटिल्लो सूप में एवोकैडो फल का उपयोग अधिक किया जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो से भारत में भी इस फल का इस्तेमाल तरह-तरह के व्यंजनों को बनाने के लिए किया जाने लगा है। इसके फलो में स्वास्थ संबंधित पोषक तत्व यथा ओमेगा-3, फैटी एसिड, एवोकैडो फाइबर, विटामिन ए, बी, सी, ई और पोटेशियम युक्त पोषक तत्व मौजूद होते है, जो हमें तनाव से लड़ने में सहायता प्रदान करते है। दक्षिण मध्य मैक्सिको में इसकी खेती मुख्य रूप से की जाती है। लेकिन अब भारत में भी इसकी खेती होने लगी है।
भारत में अभी एवोकैडो की खेती बहुत ही कम क्षेत्रफल में हो रही है। लेकिन दक्षिण भारत में इसकी खेती व्यापारिक रूप से हो रही है। जिन इलाको में एवोकैडो की खेती प्रचलित हो रही है वह है महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के कुछ भाग भी शामिल है। हिमाचल एवं सिक्किम में तक़रीबन 800 से 1600 मीटर की ऊंचाई पर एवोकैडो की खेती सफलतापूर्वक हो रही है।
आइए जानते है की एवोकाडो फल क्या है?
एवोकाडो का वैज्ञानिक नाम पर्सिया अमरीकाना है। यह एक तरह का खास फल है। जिसकी सर्वप्रथम उत्पत्ति तक़रीबन 7 हज़ार वर्ष पूर्व दक्षिणी मैक्सिको और कोलंबिया शहर में हुई थी। यह बेरी की तरह दिखने वाला बड़े आकार का गुद्देदार फल होता है, जिसके अंदर एक बड़ा बीज होता है। जिस वजह से इसे एलीगेटर पियर्स नाम से भी जानते है। पूरी दुनिया में इसकी कई किस्मो को उगाया जाता है, जिसमे से हास एवोकाडो सबसे लोकप्रिय क़िस्म है। हास एवोकाडो क़िस्म के फल में पोषक तत्व अन्य प्रजातियों की तुलना में अधिक होते हैं। एवोकाडो फल का सेवन हमारे लिए बहुत ही पौष्टिक एवं फायदेमंद होता है। एवोकाडो का सेवन हृदय स्वास्थ्य के लिए, पाचन शक्ति को मजबूत करने में, वजन घटाने को घटाने में, आँखों की रौशनी को बढ़ाने में सहायक होता है। एवोकाडो खाने से कैंसर के होने की संभावना भी कम होती है। एवोकाडो फल खाने से हड्डियां मजबूत होती है, लिवर को स्वस्थ करने में सहायक, किडनी को सुरक्षा मिलती है, डायबिटीज नियंत्रित होता है, यादास्त अच्छी होती है, चेहरे की झुर्रियों में कमी आती है।
एवोकैडो की खेती के लिए उपयुक्त कृषि जलवायु क्या होनी चाहिए?
एवोकैडो दक्षिण अमरीकी उपमहाद्वीप का पौधा है, जिस वजह से इसके पौधों को उष्ण कटिबंध जलवायु की आवश्यकता होती है। 20 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले क्षेत्र जहां पर 60 से 70 प्रतिशत तक नमी होती है, वहां इसकी पैदावार अच्छी प्राप्त होती है। इसके पौधे शर्दियो में 5 डिग्री तक के तापमान को आसानी से सहन क़र लेते है, किन्तु 5 डिग्री से कम तापमान होने पर पौधा प्रभावित होता है। इसके अलावा 40 डिग्री से अधिक तापमान होने पर फल और फूल दोनों ही मुरझा क़र गिरने लगते है। जिन क्षेत्रों में लीची की खेती होती है उन क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है।
एवोकैडो की खेती के लिए उपयुक्त मृदा
दोमट एवं बलुई दोमट मृदा इसके लिए उपयुक्त रहेगी। भारत के ज्यादातर भागो में लाल मिट्टी मौजूद होती है, तथा लाल मिट्टी को उत्पादन के लिहाज़ से अच्छा नहीं माना जाता है। क्योकि लाल मिट्टी में पानी का रुकाव नहीं होता है, जिससे मिट्टी में कम चिकनाई होती है। लेटेराइट मिट्टी में अधिक मात्रा में चिकनाई पायी जाती है, जिस वजह से लेटेराइट भूमि एवोकैडो की खेती के लिए उपयुक्त होती है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु के कुछ भाग और हरियाणा, पंजाब के ऊपरी भाग में इसकी खेती आसानी से किया जा सकता है।
इसके पौधों को 50-70 प्रतिशत नमी की जरूरत होती है। जिस वजह से हरियाणा, पंजाब और उत्तर पूर्वी राज्य व् दक्षिण भारत के पश्चिमी तट से पूर्वी क्षेत्र तक इसकी खेती की जा सकती है।
एवोकैडो की उन्नत किस्में
भारत में एवोकैडो की उगाई जाने वाली किस्मे इस प्रकार है फुएर्टे, पिंकर्टन,हैस, पर्पल, पोलक, ग्रीन, पेराडेनिया पर्पल,हाइब्रिड ट्रैप।
एवोकैडो फसल में भूमि की तैयारी
एवोकैडो के बीज से पौध को तैयार क़र उनकी रोपाई की जाती है। इसके लिए बीजो को 5 डिग्री तापमान या फिर सूखे पीट में भंडारित क़र तैयार किया जाता है। इसके फलो से लिए गए बीजो को पॉलीथीन बैग या नर्सरी बेड पर सीधे तौर पर बुवाई के लिए इस्तेमाल करते है। नर्सरी में बीजो को 6 माह तक उगाने के बाद खेत में लगाने के लिए निकाल लेते है। सबसे पहले खेत की गहरी जुताई कर खरपतवार को निकाल दिया जाता है। इसके बाद खेत में हल्की सिंचाई कर देते है, हल्की सिंचाई करने से खेत की मिट्टी नम हो जाती है, नम भूमि में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरी कर लेते है। भुरभुरी मिट्टी को पाटा लगाकर समतल करने के बाद खेत में पौध रोपाई के लिए 90X90 सेमी आकार वाले गड्डो को तैयार क़र लेते है। इसके बाद इन गड्डो में मिट्टी के साथ 1:1 के अनुपात में खाद को मिट्टी में मिलाकर मई जून माह में भर दिया जाता है। बिहार की कृषि जलवायु में इसे जुलाई अगस्त में लगाना अच्छा रहेगा। पौधों को 8 से 10 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है।
एवोकैडो में सिंचाई
एवोकैडो के फलों को नमी की जरूरत होती है। इसलिए खेत की पहली सिंचाई पौध रोपाई के तुरंत बाद की जाती है। इसके बाद शुष्क और गर्म जलवायु में पौधों को 3 से 4 सप्ताह में पानी देना होता है। सर्दियों के मौसम में मोलचिंग विधि का इस्तेमाल क़र नमी की कमी से बचाव किया जाता है। बारिश के मौसम में जरूरत पड़ने पर ही पौधों को पानी दे, तथा जल भराव होने पर खेत से पानी निकाल दे। ज्यादा बेहतर होगा की फसल की सिंचाई हेतु ड्रिप विधि का प्रयोग किया जाए।
एवोकैडो में खरपतवार प्रबंधन
एवोकैडो की फसल को खरपतवार से बचाने के लिए निराई-गुड़ाई की जाती है। इसके अतिरिक्त जब पौधे छोटे होते है, तब रासायनिक तरीके से खरपतवार को नष्ट क़रते है। इसके लिए खरपतवारनाशी दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है।
एवोकैडो में लगने वाले रोग एवं कीट
एवोकैडो की फसल में स्केल्स, मिली बग्स और माइट्स जैसे सामान्य कीट आक्रमण करते है। जिसके बचाव के लिए उपयुक्त कीट नाशक जैसे डायमथोएट 2 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जा सकता है। एवोकाडो के खेत में फसल पर पत्ती का धब्बा, जड़ सड़न और फलों का धब्बा रोग आक्रमण करते है। जिसमे जड़ सड़न रोग से बचाव के लिए पौध रोपाई से पूर्व मिट्टी में रोको एम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगा देना चाहिए।
एवोकैडो फल की तुड़ाई
एवोकैडो का फल पौध रोपाई के 5 से 6 वर्ष पश्चात् तुड़ाई के लिए तैयार हो जाता है। इस दौरान आपको एवोकैडो के खेत से दो तरह के फल प्राप्त हो जाते है, जो हरे और बैगनी रंग के होते है। इसमें बैगनी किस्म वाले फल का रंग बैंगनी से मैरून में परिवर्तित हो जाता है, तथा हरे रंग वाले फल हरे से पीले रंग में बदल जाते है। पूर्ण रूप से तैयार एवोकैडो के फल का बीज पीले-सफ़ेद से गहरे भूरे रंग का हो जाता है। कटाई के बाद भी इसके फल नरम होते है, जिन्हे पकने में 5 से 10 दिन का समय लगता है।
एवोकैडो की कीमत
एवोकैडो की पैदावार उन्नत क़िस्म, खेत प्रबंधन और पेड़ की उम्र पर निर्भर करती है। सामान्य तौर पर एक पेड़ 250 से 500 फल प्राप्त किए जा सकते है जबकि 10 से 12 वर्ष पुराने पेड़ से 350से 550 फल प्राप्त हो सकते है। इस समय महानगरों में एवोकैडो का बाज़ार मूल्य गुणवत्ता के अनुसार 350 से लेकर 550 रूपए प्रति किलो है। यह नई जेनरेशन के फल है इसे आज के युवक एवं युवतियां बड़े ही चाव से खा रहे है। इसकी खेती करके किसान फसल से अधिक मुनाफा कमा सकते है।
माननीय कुलपति डॉ पीएस पांडेय ने डॉ एस के सिंह ,प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (फल) एवं इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक डॉ एके पांडा के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा की विश्वविद्यालय ने सही समय पर सही शुरुवात किया है। इस फल फसल पर शुरू किया गया अनुसंधान आने वाले समय में मील का पत्थर साबित होगा।
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