Sanjay Kumar Singh
09-03-2023 01:15 AMप्रोफेसर (डॉ) एस.के. सिंह
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना एवम्
सह निदेशक अनुसंधान
डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय
पूसा, समस्तीपुर - 848 125
आम (मैंगिफेरा इंडिका) 'फलों का राजा' कहा जाता है। दरभंगा बिहार को आम की राजधानी कहते है। आम की खेती पूरे विश्व के उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल) और उपोष्णकटिबंधीय (सब ट्रॉपिकल) क्षेत्रों में होती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात मिलकर भारत के आम उत्पादन का 80% से अधिक उत्पादन करते हैं। उत्तर प्रदेश एवं बिहार के अधिकांश आम के बाग 40 वर्ष से पुराने है, जिसमे तरह तरह की बीमारियां देखी जा रही है, जिससे आम उत्पादक किसान बहुत परेशान है। आजकल आम उत्पादक किसान आम की एक नई समस्या से परेशान है, जिसमे बाग के आम के पेड़ एक एक करके सुखते जा रहे है। इस बीमारी में बाग के सभी पेड़ एक साथ नहीं सुख रहे है बल्कि एक एक करके सुख रहे है। आम कई बीमारियों जैसे ख़स्ता फफूंदी, आम की खेती के लिए यह रोग बहुत बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है। यह रोग ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, ब्राजील, भारत, ओमान, पाकिस्तान और स्पेन से रिपोर्ट किया जा चुका है जिसके लिए वर्टिसिलियम, और लासीओडिप्लोडिया, सेराटोसिस्टिस नामक कवक आम में विल्ट रोग के लिए जिम्मेदार सबसे आम कवक जीनस हैं। जिसकी वजह से संवहनी ऊतक के धुंधलापन, कैंकर और विल्टिंग जैसे रोग के लक्षणों की एक विस्तृत श्रृंखला देखी जा सकती हैं। भारत में आम के मुरझाने की यह बीमारी पहले बहुत कम थी लेकिन पिछले दशक के दौरान यह आम की एक प्रमुख बीमारी के तौर पर उभर रही है, जिसकी वजह से इस बीमारी के तरफ सबका ध्यान आकर्षित हो रहा है। इस बीमारी की वजह से आम उद्योग को बहुत नुकसान हो रहा है। यह एक महत्वपूर्ण रोग है जो प्रारंभिक संक्रमण के दो महीने के अंदर ही आम के पौधों की अचानक मृत्यु का कारण बन रहा है। यह रोग पहली बार ब्राजील से 1937, 1940 के दौरान रिपोर्ट किया गया था। इसके बाद यह रोग पाकिस्तान, ओमान, चीन और भारत में देखा गया। भारत में, आम का मुरझाना सेराटोसिस्टिस प्रजाति के कारण होता है। वर्ष 2018 में पहली बार यह रोग उत्तर प्रदेश में रिपोर्ट किया गया था । वर्तमान में उत्तर प्रदेश एवं बिहार में आम की फसल के नुकसान के प्रमुख कारणों में से एक आम का मुरझाना बन गया है।
यह रोग बिहार में बहुत तेजी से अपना पैर पसार रहा है। यह रोग केवल बिहार में ही नहीं बल्कि देश के अन्य आम उत्पादक प्रदेशों में देखा जा रहा है। एक अध्ययन के अनुसार उकठा रोग देश के 15 से अधिक आम उत्पादक प्रदेशों में पाया जाता है। इस रोग का अधिकतम प्रकोप उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, झारखण्ड और तमिलनाडु इत्यादि प्रदेशों में अधिक देखा जा रहा हैं। अभी भी इस रोग पर कम अध्ययन हुआ है। जिन बागों में इस रोग का संक्रमण हुआ हो उस बाग के सभी पेड़ एक साथ नहीं मरते है बल्कि प्रबंधन न करने की स्थिति में धीरे धीरे करके बाग के सभी पेड़ मार जाते है। किसी किसी बाग के सभी पेड़ एक एक करके 4 से 5 वर्ष के अंदर मरते हुए देखा गया है। बिहार में इस समय तकरीबन 20 प्रतिशत के आस पास आम के पेड़ में यह रोग देखा जा रहा है। जिस तरह से एक के बाद एक पेड़ सूख रहे है ठीक उसी तरह से लीची के भी पेड़ सूख रहे है। आम एवम लीची उत्पादक किसानों को तत्काल इस समस्या पर ध्यान देना चाहिए। बाग के सभी पेड़ एक साथ नहीं मरते है इसीलिए बागवान बहुत चिंचित नही होता है लेकिन यहां यह बता देना अत्यावश्यक है की एक बार यह रोग आ गया तो यह तय है की बाग के सभी पेड़ एक एक करके मरेंगे यदि आपने ठीक से इस रोग को प्रबंधित नही किया तो...
उकठा रोग के लक्षण
इस रोग का मूलभूत कारक एक फफूँद सिरेटोसिष्टिस फिबियोटा है। यह फफूँद मुख्य रूप से भूमि में पाया जाता है।
यह मिट्टी जनित रोगज़नक़ पौधे की जड़ प्रणाली और हवाई भागों दोनों को संक्रमित करता है। यह कवक शुरू में आम के पेड़ों की जड़ों और निचले तने को संक्रमित करता है। रोगज़नक़ दोनों दिशाओं (एक्रोपेटल और बेसिपेटल) में व्यवस्थित रूप से बढ़ता है और अंततः पूरे पेड़ को मार देता है। सेराटोसिस्टिस संक्रमित आम के पेड़ों का तना काला हो जाता है और पौधे के पूरी तरह से मुरझाने से पहले गंभीर गमोसिस हो जाता है। विल्ट संक्रमित पेड़ों की पत्तियों में नेक्रोटिक लक्षण दिखाई देते हैं, इसके बाद पूरी पत्ती परिगलन, टहनियों का सूखना और पूरे पेड़ का मुरझा जाना इत्यादि लक्षण देखे जा सकते है अंततः पेड़ों की मृत्यु हो जाती है। संक्रमित पेड़ों की पत्तियाँ पेड़ के पूरी तरह से सूखने के बाद भी बहुत दिनों तक टहनियों से जुड़ी रहती हैं। संक्रमित पेड़ के संवहनी ऊतक लाल-भूरे से गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं। आम की अचानक मृत्यु की गंभीरता जड़ संक्रमण की सीमा में भिन्नता पर निर्भर करती है। अत्यधिक संक्रमित जड़ों वाले पेड़ अचानक विल्ट के लक्षण दिखाते हैं लेकिन जब केवल कुछ जड़ें संक्रमित होती हैं, तो पेड़ को सूखने में अधिक समय लगता है। संक्रमित जड़ें सड़ने लगती हैं और दुर्गंध छोड़ती हैं। संक्रमित लकड़ी का रंग स्लेटी भूरा, गहरा भूरा या काला हो जाता हैं।
रोग चक्र और अनुकूल परिस्थितियाँ
आम में विल्ट के लिए जिम्मेदार रोगकारक सिरेटोसिष्टिस (Ceratocystis) मुख्य रूप से एक जाइलम रोगज़नक़ है। रोगज़नक़ के माइसेलियम और बीजाणु शुरू में ट्रंक या शाखाओं पर घावों के माध्यम से प्रवेश करते हैं। संक्रमित पौधों का जाइलम गहरा लाल-भूरा या काला हो जाता है। रोगज़नक़ संक्रमित मिट्टी और कीट वैक्टर, आम की छाल बीटल हाइपोक्रिफ़लस मैंगिफ़ेरा द्वारा फैलता है। मिट्टी में, कवक अल्यूरियो-कोनिडिया पैदा करता है जो प्रतिरोध संरचनाओं के रूप में काम करता है।
अचानक सूखने के रोग (विल्ट) का कैसे करे प्रबंधन?
सिरेटोसिष्टिस (Cerarocystis) नामक फफूंद के कारण होने वाले आम के विल्ट रोग को प्रबंधित करने के लिए अब तक कोई एकीकृत रोग प्रबंधन रणनीति विकसित नहीं की गई है। हालांकि रोग नियंत्रण के लिए नियमित रूप से बाग की सफाई प्रभावी पाई गईं है। गहरी जुताई से जड़ों को क्षति से बचाने के लिए आम के बागों में कम से कम और उथली जुताई करें। नये बागों में पेड़ों के छत्र से बाहर ही अन्त: फसलें उगाई जायें। इसके अलावा इस रोग के प्रबंधन के लिए आवश्यक है की पेड़ के आस पास पानी नहीं लगने दे। इस रोग से आक्रांत आम के पेड़ और उनके आस-पास के पेड़ों के जड़ क्षेत्र की मृदा में पेड़ की उम्र के अनुसार 50-150 ग्राम थायोफिनेट मिथाइल 70 डब्लयूपी (रोको एम नामक फफूंदनाशक) का घोल @ 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल कर मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भींगा दे। दस साल या दस से ऊपर के पेड़ की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगने के लिए 20 से 25 लीटर दवा के घोल की आवश्यकता पड़ेगी। लगभग 15 दिन के बाद पुनः इसी घोल, पेड़ के आस पास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भींगा दे। इस प्रकार से इस बीमारी से आप अपने आम को सूखने से बचा सकते है। संक्रमित टहनियों को काटने के उपरांत कटे भाग पर कॉपर सल्फेट या आक्सीक्लोराइड 50 ग्राम प्रति ली. पानी के घोल से पुताई की जाये। प्रभावित पेड़ों पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यूपी या प्रोपीकोनाजोल 25 ईसी के 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। बाग में स्कोलीटिड बीटिल की उपस्थिति होने पर क्लोरोपाइरीफॉस 20 ईसी के 0.2 से 0.3 प्रतिशत के घोल का 15 दिनों के अंतर पर छिड़काव करके नियंत्रण किया जाये। सिंचाई हेतु पेड़ों की कतारों के मध्य नाली बनाकर हर पेड़ का थाला बनाकर अलग-अलग सिंचाई करें। बागों में संस्तुत मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करें।
संक्रमित पौधे से उत्पन्न विशेष गंध से आकर्षित होकर स्कोलीटिड वीटिल तने और शाखाओं पर पहुचकर उनमें प्रवेश कर जाता है। इस कीट की उपस्थिति होने पर महीन बुरादा जैसा निकल्ते हुये दिखायी देता है। इस बुरादे में फफूँदी बीजाणु उपस्थित रहते हैं, जो कि बुरादे के साथ-साथ हवा-पानी आदि के साथ इधर-उधर फैल जाते हैं। रोग और कीट ग्रस्त पेड़ तेज गोंद श्राव के साथ उकट जाता हैं। बुरादे या घुन के माध्यम से इस रोग का संक्रमण सीधे स्वस्थ पेड़ों के तने या शाखाओं में भी हो जाता है। नये क्षेत्रों में रोग का फैलाव मुख्यत: कलमी पौधों और मिट्टी के माध्यम से होता हैं। बीजाणु युक्त बुरादे के माध्यम से भी रोग का फैलाव आस-पास के बागों में हो सकता हैं। गहरी जुताई और गुड़ाई से जड़ों को हुई क्षति से जड़ों में संक्रमण की संभावना अधिक होती हैं।
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