आइए जानते है बेल के प्रमुख प्रजातियों एवम इसमें लगने वाले रोगों के बारे में की उन्हे कैसे प्रबंधित करेंगे ?

Sanjay Kumar Singh

30-09-2022 11:44 AM

प्रोफेसर (डॉ ) एसके सिंह
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित फल अनुसंधान परियोजना एवम्  सह निदेशक अनुसंधान
डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर बिहार

बेल पोषक तत्वों से भरपूर एक महत्वपूर्ण औषधीय फल है । हमारे देश में बेल धार्मिक रूप में भी बहुत महत्वपूर्ण है। बेल से तैयार औषधीय दस्त, पेट दर्द, मरोड़ आदि के लिए प्रयोग की जाती हैं। यह एक कांटे वाला पेड़ हैं, जिसकी ऊंचाई 6-10 मीटर होती है और इसके फूल हरे लम्बाकार होते है, जो ऊपर से पतले और नीचे से मोटे होते हैं| इसका प्रयोग शुगर के इलाज, सूक्ष्म-जीवों से बचाने, त्वचा सड़ने के इलाज, दर्द कम करने के लिए, मास-पेशियों के दर्द, पाचन क्रिया आदि के लिए की जाने के कारण, इसको औषधीय पौधे के रूप में जाना जाता हैं | इसकी खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल, झारखंण्ड, मध्य प्रदेश इत्यादि में होती हैं।आचार्य नरेंद्र देव यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऐग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश ने बेल की कुछ बहुत ही अच्छी प्रजातियां विकसित की हैं जैसे :

  • नरेंद्र बेल (NB)-5: इसके फल  औसत वजन 1 किलो होता हैं| यह गोल मुलायम, कम गोंद और बहुत ही स्वादिष्ट नर्म गुद्दे वाले होते हैं|
  • नरेंद्र बेल (NB)-6: इसके फल  का औसत वजन  600 ग्राम होता हैं| यह गोल मुलायम, कम गोंद और नर्म गुद्दे वाले होते हैं| यह हल्के खट्टे और स्वाद में बढ़िया होते हैं|
  • नरेंद्र बेल (NB)-7: इन फलों का आकर बढ़ा, समतल गोल और  रंग हरा-सफेद होता हैं|
  • नरेंद्र बेल (NB)-9: इनके फलों का आकर बढ़ा, लम्बाकार होता हैं और इनमे रेशे और बीजों की मात्रा बहुत कम होती हैं|
  • नरेंद्र बेल(NB)-16: यह एक बेहतरीन पैदावार वाली किस्म हैं, जिसके फलों का आकर अंडाकार, गुद्दा पीले रंग का होता हैं और रेशे की मात्रा कम होती हैं|
  • नरेंद्र बेल (NB)-17:  यह एक बेहतरीन पैदावार वाली किस्म हैं, जिसके फल औसतन आकर के होते हैं और रेशे की मात्रा कम होती हैं|

इसके अलावा सैंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ़ सब-ट्रॉपिकल हॉर्टिकल्चर(CISH), लखनऊ, उत्तर प्रदेश ने भी बेल की बहुत अच्छी प्रजातियों को विकसित किया है ,जैसे :

  • CISH B-1: यह मध्य- ऋतु की किस्म हैं, जो अप्रैल-मई में पकती हैं| इसके फल लम्बाकार-अंडाकार होते हैं| इनका भार औसतन 1 किलो होता हैं और इसका गुद्दा स्वादिष्ट और गहरे पीले रंग का होता हैं| वृक्ष पकने पर इनका भार  50-80 किलो होता हैं|
  • CISH B-2: यह छोटे कद वाली किस्म है, | इसके फल लम्बाकार-अंडाकार होते हैं| इनका भार औसतन 1.5-2.5 किलो होता हैं और इसका गुद्दा स्वादिष्ट और संतरी-पीले रंग का होता है| इसमें रेशे और बीज की मात्रा कम होती हैं| वृक्ष पकने के समय इसका भार 60-90 किलो होता है|

जी.बी. पंत यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऐग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, पंतनगर, उत्तराखंड ने भी बेल की कुछ बहुत अच्छी प्रजातियों को विकसित किया है जैसे :

  • पंत अपर्णा: इसके वृक्ष छोटे कद के, लटकते हुए फूलों वाले, काटों रहित, जल्दी और भारी पैदावार वाले होते है| इसके पत्ते बढ़े, गहरे हरे होते है| इसके फल आकर में गोल होते है, जिनका औसतन भार 1 किलो होता है|
  • पंत शिवानी: यह किस्म अगेती मध्य-ऋतु में पायी जाती है| इसके वृक्ष लम्बे, मज़बूत, घने, सीधे ऊपर की ओर बढ़ने वाले, जल्दी और भारी पैदावार वाले होते है| इसके फलों का भार 2 से  2.5 किलो होता है|
  • पंत सुजाता: इसके वृक्ष  फैले हुए पत्तों वाले, घने,जल्दी और भारी पैदावार वाले होते है| इसके फलों का आकर 1 से 1.5 किलो होता है|

बेल में लगनेवाली प्रमुख बीमारियां
बेल में कई तरह की बीमारियां लगती है ,जिनका प्रबंधन अत्यावश्यक है,अन्यथा आशातीत लाभ नहीं मिलेगा
पत्तियों पर काले धब्बे
बेल की पत्तियाँ पर दोनों सतहों पर काले धब्बे बनते हैं, जिनका आकार आमतौर पर 2 से 3 मि.मी. का होता है। इन धब्बों पर काली फफूंदी नजर आती है, जिसे आइसेरे आप्सिस कहते हैं। इसके रोकथाम के लिए आवश्यक है की कार्बेंडाजीम या कार्बेंडाजीम + मैनकोजेब मिश्रित दवा की 2ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से इस रोग की उग्रता में भारी कमी आती है। 
बेल के छोटे फलों का गिरना
इस रोग का प्रकोप कारण फ्यूजेरियम नामक फफूंद है। इस रोग में बेल के फल जब 2-3 इंच व्यास के होते है ,उसी अवस्था में गिरने लगते है। फल जहा  डंठल से जुड़े होते है वही पर फ्यूजेरियन फफूंद का संक्रमण होता है तथा एक भूरा छोटा घेरा फल के ऊपरी हिस्से पर विकसित होता है। डंठल और फल के बीच फफूंद विकसित होने से जुड़ाव कमजोर हो जाता है और फल गिरने लगते  हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए भी कार्बेंडाजीम या कार्बेंडाजीम + मैनकोजेब मिश्रित दवा की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जाना चाहिए। 
फलों का गिरना / आंतरिक विगलन
बेल के बड़े फल अप्रैल-मई में बहुत गिरते हैं। गिरे बेलों में आंतरिक विगलन के लक्षण पाये जाते हैं। साथ बाह्य त्वचा में फटन भी पायी जाती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए 250 से 500 ग्राम घुलनशील बोरेक्स प्रति पेड़ उम्र एवम कैनोपी के अनुसार निर्धारित करके प्रयोग करना चाहिए। साथ जब फल छोटे आकार के हों तो घुलनशील बोरेक्स की 4 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर दो बार 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।
फलों का सड़ना
बेल के ऐसे फल जिन्हें तोड़ते समय गिरने से फलों की बाह्य त्वचा में हल्की फटन हो जाती है, वे फल तेजी से सड़ जाते हैं। ऐसे फलों में एस्परजिलस फफूंद फल के अंदर विकसित होती है तथा अंदर का गूदा अधिक मुलायम तथा तीक्ष्ण गंध वाला हो जाता है। इसके नियंत्रण के लिए फलों को सावधानी से तोड़ना चाहिए, जिससे फल जमीन पर न गिरें और फलों की त्वचा पर फटन न होने पाये साथ ही ऐसे फल मृदा के संपर्क में नहीं आने चाहिए।
बेल का शीर्ष मरण रोग
इस रोग का प्रकोप लेसिडिप्लोडिया नामक फफूंद द्वारा होता है। इस रोग में पौधों की टहनियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखने लगती है। टहनियों और पत्तियों पर भूरे धब्बे नजर आते हैं और पत्तियाँ गिर जाती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए आवश्यक है की सभी रोगग्रस्त टहनियों की खूब अच्छी तरह से कटाई छटाई करने के बाद कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 3 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर (0.3 प्रतिशत) दो छिड़काव 10 से 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।इससे रोग की उग्रता में कमी आती है।

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