Soybean Ki Kheti: मध्य प्रदेश के जबलपुर स्थित जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक प्रोफेसर मनोज कुमार श्रीवास्तव ने इस वर्ष सोयाबीन की जेएस 2212 और जेएस 2216 नामक दो किस्मों की पहचान कराई है। ये दोनों किस्में अगले साल किसानों के लिए उपलब्ध होंगी। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक एमके श्रीवास्तव ने किसानों के लिए सोयाबीन की नई किस्म तैयार की है। जेएस-2212 एवं जेएस-2216 किसानों के लिए वरदान साबित होंगे।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, 90 दिनों में तैयार होने वाली सोयाबीन की ये दोनों किस्में न सिर्फ किसानों को बंपर उत्पादन देंगी, बल्कि कम दिनों में पक भी जाएंगी। इनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है।
सोयाबीन की ये किस्में 90 दिनों में पक जाती है
प्रोफेसर मनोज कुमार श्रीवास्तव का कहना है कि ये दोनों किस्में पीला मोज़ेक, पत्ती झुलसा, धब्बा, चारकोल और जड़ सड़न रोगों के प्रति प्रतिरोधी हैं और दोनों किस्में केवल 90 दिनों में पक जाती हैं। यदि कोई प्रगतिशील किसान इन किस्मों की खेती करता है, तो वह फसल चक्र के माध्यम से सोयाबीन, आलू और गेहूं भी ले सकता है।
नए बीज की खोज किसी साधना से कम नहीं
किसी भी बीज की नई किस्म तैयार करना एक वैज्ञानिक के लिए किसी साधना से कम नहीं है। प्रोफेसर मनोज कुमार श्रीवास्तव का कहना है कि ''जेएस-2212 और जेएस-2216 नाम की जिन किस्मों की पहचान की गई है, उनकी शुरुआत 2012 से हुई थी. जब सोयाबीन की फसल में पीली मुजेक की समस्या बहुत ज्यादा थी और पूरे खेत बर्बाद हो रहे थे, तब रोग प्रतिरोधी किस्मों पर शोध शुरू किया गया। नई किस्म बनाने के लिए दो अलग-अलग गुणों वाली किस्म में परागण किया जाता है।
6 से 7 साल तक चलती है प्रक्रिया
इसके बाद वैज्ञानिक के हाथ में कुछ दाने आ जाते हैं। दूसरे वर्ष इन्हें रोपकर यह देखा जाता है कि यह किस्म अपनी मूल प्रजाति से कितनी भिन्न है, फिर उनमें से कुछ पौधे चुनकर निकाल लिये जाते हैं। यह प्रक्रिया 6 से 7 साल तक लगातार चलती रहती है, तब जाकर कोई किस्म परीक्षण के लिए तैयार होती है। इसके बाद इस किस्म को प्राकृतिक परिस्थितियों में तनाव की स्थिति में बिना किसी उर्वरक और कीटनाशक के खेत में उगाया जाता है। इस स्थिति में भी अगर यह उत्पादन देती है तो इसका ट्रायल देश के 29 अलग-अलग स्थानों पर किया जाता है। इनके नतीजों के आधार पर इसे देश के 12 क्षेत्रों में अलग-अलग जलवायु में उगाया जाता है और जब इन सभी केंद्रों की रिपोर्ट आती है तो वैज्ञानिक इसकी एक किस्म पहचान के लिए भेजते हैं।
किसानों तक बीज ऐसे पहुंचता है
इस पूरी प्रक्रिया में किसी किस्म का उत्पादन रोग प्रतिरोधक क्षमता जैसे मापदंडों का ठीक से पालन करता है, फिर उसकी पंजीकरण प्रक्रिया शुरू होती है और उसका आईसी नंबर जेनरेट होता है जो कि किसी किस्म का पेटेंट होता है। इसके साथ ही इसकी डीएनए प्रिंटिंग की जाती है। जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो इसकी न्यूक्लियर सीट बनाई जाती है। न्यूक्लियर सीट के बाद ब्रीडर बनाया जाता है और ब्रीडर सीट को बीज निगम को सौंपकर किसानों तक पहुंचाया जाता है।
जीन विखंडन की समस्या
इस लंबी प्रक्रिया में यह तय होता है कि यह बीज किसी खास क्षेत्र के लिए फायदेमंद साबित होगा. हालाँकि इस प्रक्रिया को करने के बाद भी एक सफल बीच 4 से 5 साल तक ही अच्छा उत्पादन दे पाता है. इसके बाद जीन विखंडन की समस्या उत्पन्न हो जाती है और इसका उत्पादन कम होने लगता है। इसीलिए वैज्ञानिकों को हर साल नई किस्म के बीज तैयार करने की प्रक्रिया जारी रखनी होगी। यानी आज से 10 साल बाद जो बीच काम में आएगा उसकी प्रक्रिया शुरू हो गई है।
बीजों की चोरी
इस लंबी प्रक्रिया में कुछ खामियां हैं और बीज कारोबार में शामिल बीज माफिया वैज्ञानिकों से उनके शोध लूट लेते हैं। इससे पहले कोई भी नया बीज पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद सही तरीके से किसानों तक पहुंचे, चोरी होने से भी पहले। यानी जेएस-2212 नामक सोयाबीन का बीज अभी ठीक से निकला भी नहीं है, उसके बाद भी यह बाजार में खुलेआम बिक रहा है. दरअसल, जब वैज्ञानिक इसे अलग-अलग जगहों पर ट्रायल के लिए भेजते हैं तो इस दौरान रिसर्च में शामिल कर्मचारी इसे चोरी-छिपे बेच देते हैं। इसके लिए बीज माफिया उन्हें मोटी रकम भी देते हैं और फिर वे इसे अपने खेतों में तैयार करते हैं और किसानों से मोटा मुनाफा कमाते हैं।
किसानों को बीज निगम से ही खरीदना चाहिए बीज
किसानों को इस बात का इंतजार करना चाहिए कि जब तक यह बीज बीज निगम से न बिक जाए, तब तक इसे न खरीदें। क्योंकि बीज माफिया आपको गलत बीज भी दे सकते हैं। इसके साथ ही किसानों को केवल उन्हीं किस्मों का उपयोग करना चाहिए जिन पर विश्वविद्यालय अनुशंसा करता है। क्योंकि वैज्ञानिक इन किस्मों पर 10 साल से भी ज्यादा समय लगा देते हैं, जबकि निजी कंपनियों की किस्में जल्द ही बाजार में आ जाती हैं। लेकिन इनके उत्पादन पर हमेशा संशय बना रहता है।