सोयाबीन की फसल में लगने वाले हानिकारक कीटों की पहचान और उनके नियंत्रण के उपाय

सोयाबीन की फसल में लगने वाले हानिकारक कीटों की पहचान और उनके नियंत्रण के उपाय
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Kisaan Helpline

Crops Aug 02, 2022

Soybean Farming: भारत में सोयाबीन की खेती एक मुख्य तिलहनी फसल के रूप में की जाती है। इसका वानस्पतिक नाम 'ग्लाइसीन मैक्स' है एवं यह लैग्यूमिनेसी परिवार के अन्तर्गत आता है। इसका उद्गम स्थल अमेरिका है। सोयाबीन मानव पोषण एवं स्वास्थ्य के लिए एक बहु उपयोगी खाद्य पदार्थ है इसमें बहुत ज्यादा मात्रा में प्रोटीन पाये जाने के कारण इससे विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ जैसे सोय मिल्क, सोया कर्ड या टोफू, सोया ऑयल, सोया फ्लोर, बायोडीजल इत्यादि तैयार किये जाते हैं।

मध्यप्रदेश में सोयाबीन धार, उज्जैन, मन्दसौर, विदिशा, रतलाम, देवास, इन्दौर, राजगढ़, शाजापुर इत्यादि जिलों में उगाई जाती है। मध्यप्रदेश है। मध्यप्रदेश की भौगोलिक स्थिति मृदा, जलवायुवीय परिस्थितियां सोयाबीन की खेती के लिये उपयुक्त हैं। इसके लिए 26.5 से 300 तापमान उपयुक्त माना जाता है। समुचित जल निकास वाली एवं उर्वर दोमट भूमि इसके खेती के लिये उपयुक्त होती है। भूमि का पी.एच. मान 6. से 7.5 होना चाहिए। ये आर्द्र एवं नम जलवायु में उगाई जाती है जिसके कारण सोयाबीन में कई प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है जो हमारी फसल को नुकसान पहुंचाता है। हमारे किसान बन्धु जानकारी के अभाव में इन कीटों का उचित प्रबंधन नहीं कर पाते हैं। अतः उन्हें चाहिए कि वे प्रारंभ से ही फसल में इन कीटों के नियंत्रण हेतु समन्वित प्रणाली अपनाएं।

सोयाबीन के प्रमुख कीट
चक्र भृंग (गर्डिल बीटिल)
इसका वैज्ञानिक नाम 'ओवेरिया ब्रेयिस' है। इसे कटर इल्ली के नाम से भी जानते हैं। पौधे की 20 से 25 दिन की अवस्था से लेकर लगभग फसल के परिपक्व होने की अवस्था तक इन कीट का प्रकोप रहता है। ये कीट पौधे की तना, पत्तियों एवं शाखा पर दो रिंग या घेरा बनाता है एवं इनके बीच में अण्डा देता है जिससे पौधे की जायलम फ्लोएम की क्रिया विधि को क्षति पहुंचती है। इल्ली पौधे के तने को अंदर से खाकर नीचे गिरा देती है। इस कीट द्वारा प्रकोपित फसल में 50 प्रतिशत तक हानि होती
 है। वयस्क भृंग का सिर एवं वक्ष नारंगी रंग का होता है। पंख का रंग गहरा भूरा एवं काला होता है। ये 8 से 10 मि.मी. चौड़ा होता है। ये पीले रंग का होता है। इस कीट का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर माह में होता है। मादा, तने एवं पत्ती के इन्ठल में अण्डे देती है। 7 से 8 दिन बाद अण्डों से इल्ली निकलती है जो 32 से 65 दिन बाद शंखी या प्यूपा में बदल जाती है। प्यूपा से 8 से 11 दिन में वयस्क निकलते हैं। इस कीट हेतु मूंग उडंद, जगंली जूट इत्यादि पोषक पौधे हैं।


नियंत्रण
खेत में ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें एवं नियमित रूप से खरपतवार प्रबंधन करें। समय से पूर्व बुवाई करने पर कीट का प्रकोप अधिक होता है। अतः बुवाई समय से जुलाई माह में करें। फसल में खाद्य एवं उर्वरक का प्रयोग समय से करें एवं पोटाश की मात्रा अवश्य डालें। प्रभावित पौधे को नीचे से तोड़कर नष्ट कर दें। रोग रोधी किस्में जैसे-जे.एस. 93-05, जे.एस 71-05 का प्रयोग करें। खेत के चारों ओर ढेंचा लगाए जो कि कीटों को अपनी तरफ आकर्षित करके फसल को होने वाले नुकसान से बचाती है। रासायनिक नियंत्रण हेतु ट्राइजोफास 800 मिली प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।

तना मक्खी
इस कीट का वैज्ञानिक नाम 'मेलेनोग्रोमाइजा फेजियोलाइ' है। ये मक्खी अण्डे पत्ती की निचली सतह पर देती है। ये अण्डे पीले, सफेद रंग के होते हैं। मादा का रंग भूरा, काला होता है। अण्डे से निकलने वाली पत्तियों के शिरों एवं डंठल को अंदर से खाते हुए तने में प्रवेश करती हैं। इल्ली का प्रकोप फसल कटाई तक रहता है जिससे उपज में 25 से 30 प्रतिशत तक हानि होती है। प्यूपा या शंखी भूरे रंग की होती है एवं तने के अंदर पाई जाती है। मादा के द्वारा दिए गए अण्डों से दो से तीन दिन बार इल्ली निकलती है जो 7 से 12 दिन बाद तने में एक निकासी छिद्र बनाकर प्यूपा में बदल जाती है। प्यूपा से 5 से 9 दिन बाद वयस्क कीट निकलता है। इसके लिए पोषक पौधे मूग, उड़द आदि हैं।


नियंत्रण
उचित समय में बुवाई करें। देरी से फसल में कीट का प्रकोप बढ़ जाता है। समुचित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग चाहिए। अनुशंसित बीज दर का प्रयोग करें। प्रकोपित पौधे को उखाड़ कर नष्ट कर दें। एक ही खेती में लगातार सोयाबीन की फसल नहीं लें। जैविक नियंत्रण के लिए प्रेयिंग मेटेड क्राइसोपरला, क्राक्सीनेल वीटिल को फसल में छोड दें। रोगरोधी जातियां जे.एस. 93-05, जे.एस. 71-05 लगाएँ। इमाडाक्लोप्रिड 17.08 एस.एल. 5 मि.ली. प्रति कि.ग्रा. से बीजोपचार करें। भूमि उपचार हेतु फोरेट 10 जी, 10 किलो प्रति हेक्टे. या कार्बोफ्यूरान 3 जी का 30 किलो प्रति हेक्ट. की दर से प्रयोग करें। इसके अतिरिक्त डाईमेथोएट 30 ई.सी. 700 मिली. या इमाडाक्लोप्रिड 200 मिली. प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करें

सेमीलूपर (अर्द्धकुण्डलाकार कीट)
इस कीट का वैज्ञानिक नाम 'डायक्रीसिया ओरीचैल्सिया' है। इसे कूबड़ वाली इल्ली भी कहते हैं। इस कीट की इल्लियां पत्तियो को खाती है। अधिक प्रकोप होने पर कोमल प्ररोहों एवं पत्तियों की नसों को छोड़कर शेष सभी हरे भागों का खा जाती है। वयस्क एवं इल्ली का रंग हरा होता है। इल्ली लगभग 35 मिमी. लंबी तथा 44 मिमी. चौड़ी होती है।


नियंत्रण
यदि 1 मीटर की पौध कतार में दो या दो से अधिक इल्ली दिखाई दे तो इसका नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है। इसके लिए उचित बीज दर का प्रयोग करें क्योंकि यदि पौधों के बीच की दूरी नियंत्रित होगी तो इस कीट का प्रकोप कम होगा। उचित खरपतवार प्रबंधन करें। खेत में "टी आकार" की लकड़ी की खूंटियां लगाएं जिसमें बैठने वाली चिड़ियां इन इल्लियों को खा सकें। फेरोमोन ट्रैप 10 ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से खेतों में लगाएँ। प्रकाश प्रपंचों का प्रयोग करें। इल्लियों का प्रकोप ज्यादा हो जाए तो रासायनिक दवाओं का प्रयोग करें, जैसे-फसल के 30 से 35 दिन की अवस्था में क्विनालफास 2 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर दवा का छिड़काव करें या ट्राइजोफास 800 मिली. प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।

तम्बाकू इल्ली
इस कीट का वैज्ञानिक नाम "स्पोडोप्टेरा लिटुरा'' है। ये कीट अगस्त से सितंबर माह में फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। नवजात इल्लियां खुरचकर पत्तियों को खाती है जिससे पत्तियां जालीदार हो जाती है। पूर्ण विकसित इल्ली पत्ती, कली एवं फूलों को खाती है। वयस्क शलभ मटमैला, भूरे रंग का होता है। इल्ली भूरे रंग की होती है। इसके प्रत्येक खंड में दोनों तरफ काले तिकोने धब्बे पाए जाते हैं। इल्ली 35-40 मि.मी. लम्बी होती है। मादा पत्तों के निचली सतह में अंडे देती है जिसे अपनी भूरे बालों द्वारा ढंक देती है। अंडे से 4 से 5 दिन में इल्ली निकलती है। इल्ली 20-22 दिन बाद भूमि में जाकर शंखी प्यूपा में बदल जाती है। 8 से 10 दिन बाद वयस्क बाहर निकलता है। यह बहुभक्षी कीट है। इसके लिये तंबाकू, टमाटर, गोभी, गाजर, बैंगन, सूर्यमुखी, अरंडी, उड़द, कपास इत्यादि पोषक पौधे हैं।


नियंत्रण
नियमित फसल चक्र अपनाएं एवं अनुशंसित बीज की मात्रा उपयोग करें। फेरोमोन ट्रेप 10-12 प्रति हे. खेत में लगाये। अंडे एवं इल्लियों को इकट्ठा करके नष्ट करें। खेत में टी. आकार की खूटियां 40 से 50 प्रति हे. लगाएं। 1 मीटर में 10 से ज्यादा इल्लियां देखे जाने पर फसल को आर्थिक नुकसान होता है। अतः ऐसी अवस्था में रसायनों का प्रयोग करें जैसे-फसल के 30 से 35 दिन की अवस्था में क्विनालफास दवा 2 मि.ली. प्रति हे. पानी की दर से 1.5 ली. प्रति हे. खेत में छिड़काव करें अथवा ट्राइजोफास दवा 800 मि.ली. प्रति हे. छिड़काव करें। जैविक नियंत्रण के लिये एन.पी.व्ही. 250 एल.ई., 250 सूंडी के बराबर के घोल को प्रति हे. खेत में छिड़काव करें।

बिहार हैरीकैटरपिलर (कम्बल कीट)
इस कीट का वैज्ञानिक नाम 'स्पाइलोसोमा 'ओबलीकुमा' है। इल्लियों पत्तियों पर झुण्ड में रहकर उन्हें खुरच कर खाती है जिससे पत्तियां जालीनुमा होती है। शलभ का निचला हिस्सा हल्का पीला व ऊपरी भाग गुलाबी होता है। इल्लियां 40-50 मि.मी. व भूरे लाल रंग की रोएं वाली होती हैं। इसके लिये पोषक पौधे मूंग, उड़द, सूर्यमुखी, तिल, अलसी, अरंडी इत्यादि है।


नियंत्रण
खेत में गहरी जुताई करें। अनुशंसित बीजदर 70 से 100 किलोग्राम हे. का प्रयोग करें। नियमित रूप से फसल चक्र अपनाये। इल्लियों के झुण्डे को इकठ्ठा करके नष्ट करें। जैविक नियंत्रण के लिये एन.पी.व्ही. 250 एल.ई., 1250 सूंडी के बराबर के घोल को प्रति हे. खेत में छिड़काव करें। प्रकाश प्रपंच का उपयोग करें। बेसिलस थुरिनजिनसिस 1 लीटर या एक किलो ग्राम प्रति हे. के हिसाब से छिड़काव करें। नीम के तेल का उपयोग करें। ट्राइजोफास 40 ई.सी. 800 मिली. प्रति हे. छिड़काव करें।

सफेद मक्खी
इस कीट का वैज्ञानिक नाम "बेमेसिया टबासी” है। इस कीट के शिशु तथा वयस्क दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। पत्तियों को हिलाने पर ये उड़ जाते हैं। ये कीट शहद के समान द्रव उत्सर्जित करते हैं जिस पर काले रंग की फफूंद विकसित हो जाती है। पौधों की पत्तियां पीली व कमजोर हो जाती है। व्यस्क सफेद मक्खी 1.5 मिमी. लम्बी होती है। ये मक्खी पीला विषाणु नामक रोग फसल में फैलाती है।


नियंत्रण
फसल चक्र अपनाएं। खरपतवार प्रबंधन, खाद्य व उवर्रक प्रबंधन करें। जल निकास की उचित व्यवस्था करें। कीट का आक्रमण होने पर खेत में ट्राइजोफास 40 ई.सी. 800 से 1000 मिली. लीटर या मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. 800 मिली. लीटर प्रति हे. का छिड़काव करें। इमाडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 5 मिली. लीटर प्रति किलो ग्राम बीज दर से बीजोपचार करें।

फलीछेदक
इस कीट का वैज्ञानिक नाम 'हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा' है। नवजात इल्ली पत्तियां, फलों एवं कली को खाकर नष्ट करती है। फल्लियों में दाने पड़ने के पश्चात फल्ली में छेद करके खाती है। 3 से 6 इल्लियां प्रतिमीटर की कतार में होने पर 20 से 90 प्रतिशत फसल को हानि पहुंच सकती है। नवजात इल्ली हरे रंग की एवं बाद में हल्के भूरे रंग की हो जाती है। इल्ली 04 मिमी. लम्बी होती है। इसके पोषक पौधों कपास, अरहर, तम्बाकू, टमाटर, मटर इत्यादि है।


नियंत्रण
ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। इल्लियों एवं अंडों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें। टी. आकार की खुटियां जिन पर पक्षी बैठकर इल्लियां खा सकें। 50 प्रति हे. खेत में लगाएं। क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. 1.5 ली या इंडोक्साकार्ब 14.8 एस.एल. 300 मिली लीटर प्रति हे. के हिसाब से छिड़काव से करें।

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