मोटे अनाजों में रागी (मंडुआ) का विशेष स्थान है। इसकी खेती दाने प्राप्त करने के लिए की जाती है। दाने के साथ-साथ इस फसल से पशुओं के लिय चारा भी प्राप्त होता है इसके दाने का प्रयोग भोजन के साथ औद्योगिक कार्यों में किया जाता है। दाने को उबालकर चावल को तरह खाया जाता है। इससे उत्तम गुणवत्ता वाली शराब भी बनाई जा सकती है। पहाड़ी क्षेत्रों में यह जनता का मुख्य भोजन है। आज के दौर में इन अनाजों की उपलब्धता कम हो रही है। इसलिए वैश्विक पर्यावरण सुविधा परियोजना और दीनदयाल शोध संस्थान के माध्यम से चित्रकूट जिले के आसपास के गांवों में लगातार विगत 5 वर्षों से मोटे अनाजों (सावा, कोदो, रागी) के बीज कृषकों को प्रदर्शन में देकर इसका संरक्षण एवं संवर्धन का कार्य किया जा रहा है।
दक्षिण भारत में रागी को केक पुडिंग व मिठाइयां बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अंकुरित बीजों से माल्ट (एक मूल्यवर्धित उत्पाद) बनाते हैं, जो पशु आहार तैयार करने में काम आता है। रागी मधुमेह रोगियों के लिए उत्तम आहार है। इसके साथ यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है।
देश में सबसे अधिक रागी कर्नाटक से राज्य में पैदा होती है। इसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश का स्थान है। उत्तर प्रदेश के सभी मंडलों में इसकी खेती की जाती है। जैसे-गोरखपुर, फैजाबाद और चित्रकूट में इसकी खेती विस्तृत रूप से होती है।
जलवायु
रागी की अच्छी उपज के लिए गरम और नर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। अधिक वर्षा का फसल पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। उन सभी स्थानों पर जहां वर्षा 50 से 90 सें.मी. के बीच होती है वहां पर रागी को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
मृदा
रागी फसल की अच्छी पैदावार के लिए हल्की दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है। काली मृदा में उपज अच्छी नहीं मिलती। पहाड़ी स्थानों पर पायी जाने वाली कंकरीली, पथरीली, ढालू मृदा में अन्य फसलों की अपेक्षा रागी की अच्छी उपज प्राप्त होती है। अधिक उत्पादन लेने के लिए गहरी और मध्यम उपजाऊ मृदा की आवश्यकता होती है। मृदा में जलधारण करने की अच्छी क्षमता होनी चाहिए।
रागी की उन्नत किस्में
ई.सी. 4840: यह प्रजाति राष्ट्रीय पादप अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के जीन बैंक से उपलब्ध करवाई गई है। यह बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए बहुत उपयुक्त है। इस प्रजाति के दाने भूरे रंग के होते हैं। फसल लगभग 108 दिनों में पक जाती है। प्रति हैक्टर लगभग 18-19 क्विंटल की उपज प्राप्त होती है। यह किस्म गर्मी में बुआई के लिए उपयुक्त है।
निर्मलः यह किस्म चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय, कानपुर द्वारा विकसित की गई है। यह उत्तर प्रदेश के रागी उगाने वाले सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त इसकी प्रति हैक्टर लगभग 16-18 क्विंटल उपज प्राप्त हो जाती है।
पंत रागी-3 (विक्रम): पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह 95-100 दिनों में तैयार होने वाली फसल है। पौधे की ऊंचाई 80-85 सें. मी. होती है। यह प्रजाति ब्लास्टरोधक है। इसकी बालियां मुड़ी हुईं और दाने हल्के भूरे रंग के होते हैं। यह किस्म गेहूं फसलचक्र के लिए भी उपयुक्त है।
बीज दर व बुआई का समय
10-12 कि.ग्रा. बीज / हैक्टर पर्याप्त होता है। उत्तर प्रदेश में इसे जून से लेकर अगस्त तक कभी भी बोया जा सकता है। बशर्ते पानी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
बुआई विधि
रागी दो विधियों से बोई जाती है:
- पंक्तियों में बुआई
- रोपाई विधि
खेत की तैयारी
वर्षा होने के तुरंत बाद एक जुताई मृदा पलट हल से तथा 2-3 जुताई देसी हल से या हैरो से करनी चाहिए। जुताइयों के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर देना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
रागी के लिए 40 से 45 कि.ग्रा. नाइट्रोजन एवं 30-40 कि.ग्रा., फॉस्फोरस तथा 20-30 कि.ग्रा. पोटाश/हैक्टर की आवश्यकता पड़ती है। सभी उर्वरकों को अच्छी तरह से मिलाकर या तो बोते समय ही बीज के पास 4-5 सें.मी. की दूरी पर एक दूसरा कूंड़ बनाकर डालना चाहिए। बुआई से पूर्व 100 क्विंटल/हैक्टर गोबर की खाद देना लाभदायक है। जैविक विधि से उगाई गई रागी की फसल ज्यादा लाभकारी होती है।
सिंचाई
खरीफ ऋतु की फसल अधिकतर वर्षा के आधार पर ली जाती है। अतः इसे सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। रोपाई द्वारा फसल बोने पर में सिंचाई करनी आवश्यक है। रोपाई में फिर 8-10 दिनों बाद सिंचाई आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। बीज बोने के 15 दिनों बाद एक बार निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए।
अंतर्वर्ती फसल
अंतर्वर्ती फसल के रूप में रागी सोयाबीन के साथ उगाई जा सकती है।
फसलचक्र
रागी के बाद रबी में आलू. गेहूं, चना, सरसो जौ आदि फसलें उगाई जा सकती हैं। रागी की फसल में निम्नलिखित कीट पतंगे आक्रमण करते हैं, जिनका नियंत्रण निम्न प्रकार से किया जा सकता है:
बालदार रोयेंदार सूंडी
यह पत्तियों को हानि पहुंचाती है। कभी-कभी तने पर भी आक्रमण करती है। इसे मैलाथियोन 10 प्रतिशत के 25 से 30 कि.ग्रा. पाउडर/हैक्टर की दर से भुरकाव करके नियंत्रित किया जा सकता है।
सफेद ग्रब
25 कि.ग्रा. इमेडाक्लोरोप्रिड 10 प्रतिशत को गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बराबर बिखेर दें, जिससे सफेद ग्रब का नियंत्रण किया जा सकता है।