Plum Farming: बेर के प्रमुख हानिकारक रोग व निदान

 Plum Farming: बेर के प्रमुख हानिकारक रोग व निदान
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Kisaan Helpline

Crops Feb 03, 2022

बेर को गरीबों का फल भी कहा जाता है। बेर में प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व तथा सस्ता होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र में इस फल का बहुत ही प्रचलन है। यह हमारे लिए एक बहुपयोगी एवं पोषक फल है। इसमें विटामिन 'सी' तथा 'ए' प्रचुर मात्रा में होते हैं। विटामिनों के अलावा बेर में कैल्शियम, फास्फोरस तथा आयरन आदि खनिज लवण भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। मौसमी फलों में सभी वर्गों में यह बहुत लोकप्रिय है। पोषकता के आधार पर इसे सेब फल के अनुरूप ही पाया जाता है। वर्षा आधारित उद्यानिकी में बेर एक ऐसा फलदार पेड़ है, जोकि एक बार पूरक सिंचाई से स्थापित होने के पश्चात् वर्षा के पानी पर निर्भर रह कर भी फलोत्पादन कर सकता है। शुष्क क्षेत्रों में बार-बार अकाल की स्थिति से निपटने के लिए भी बेर की बागवानी अति उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यह एक बहुवर्षीय व बहुउपयोगी फलदार पेड़ है, जिसमें फलों के अतिरिक्त पेड़ के अन्य भागों का भी आर्थिक महत्व है। इसकी पत्तियों पशुओं के लिए पौष्टिक चारा प्रदान करती है, जबकि इसमें प्रति वर्ष अनिवार्य रूप से की जाने वाली कटाई-छंटाई से प्राप्त कांटेदार झाड़ियां खेतो व ढाणियों की रक्षात्मक बाड़ बनाने व भंडारित चारे की सुरक्षा के लिए उपयोगी है। यह पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात तथा महाराष्ट्र आदि में उगाया जाता है। राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में बेर का क्षेत्रफल लगभग 49,000 हैक्टेयर वर्ष 2016-17 में आंका गया है। इसका उत्पादन लगभग 4,81,000 मीट्रिक टन आंका गया है। बेर के पेड़ पर विभिन्न बीमारियों का प्रयोग होता है, जिसकी वजह से फल की पैदावार व गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि किसान भाई बेर में लगने वाले रोगों की पहचान सही समय पर करके उनका समय पर नियंत्रण करें, तो उत्पादन का काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। इन बीमारियों की पहचान व निवारण बताया जा रहा है। 

1. सफेद चूर्णी रोग (पाऊडरी मिल्ड्यू): इस रोग का प्रकोप वर्षा ऋतु के बाद अक्टूबर-नवंबर में दिखाई पड़ता है। इससे बेर की पत्तियों, टहनियों फूलों पर सफेद पाउडर सा जमा हो जाता है तथा प्रभावित भागों को बढ़वार रुक जाती है और फल व पत्तियां गिर जाती है। फलों का आकार छोटा रह जाता है। पैदावार में भारी कमी हो जाती है। फफूंद के बीजाणु पत्तियों की कोपली और अन्य पौधों के अवशेषों के अंदर जाड़े का समय व्यतीत करते हैं। हवा पानी और कीट इन बीजाणुओं को पास के पौधों तक पहुंचाते है। पाउडरी मिल्ड्यू शुष्क स्थितियों में अधिक सामान्य रूप से विकसित हो सकता है। यह 10-12 डिग्री सेल्सियस के बीच जीवित रहती है, लेकिन इसके लिए सबसे अनुकूल स्थितियां 30 डिग्री सैल्सियस है। डाऊनी मिल्ड्यू के विपरीत, थोड़ी-सी बरसात और सुबह की नियमित ओस पाऊडरी मिल्ड्यू के फैलने की गति को बढ़ा देती है। यह अक्टूबर में आती है। डाऊनी मिल्ड्यू की तुलना में, पाऊडरी मिल्ड्यू को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।


नियंत्रण : इसकी रोकथाम लिए कैराथेन नामक दवा 0.1 प्रतिशत प्रति लीटर पानी में मिला कर पहला छिड़काव फूल निकलने से ठीक पहले और दूसरा जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाए, तब करें और पुनः 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव और करें। सफल नियंत्रण हेतु सभी फलों का फफूंदनाशक घोल से तर हो जाना अत्यंत आवश्यक है। यदि कैराथेन उपलब्ध ना हो तो 0.2 प्रतिशत सल्फेक्स का छिड़काव किया जा सकता है।

2. कावली रोग (सूटी मोल्ड): इस रोग से ग्रसित पत्तियों के नीचे की सतह पर काले धब्बे दिखाई देने लगते है, जोकि बाद में पूरी सतह पर फैल जाते हैं और रोगी पत्तियों गिर भी जाती है।


नियंत्रण: नियंत्रण के लिए रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैकोजेब 3 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए।

3. पत्ती धब्बा (झुलसा रोग): इस रोग के लक्षण नवंबर माह शुरू होते हैं, यह आल्ट्रनेरिया नामक फफूंद के आक्रमण से होता है। रोग ग्रस्त पत्तियों पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे बनते है तथा बाद में यह धब्बे गहरे भूरे रंग के तथा आकार में बढ़ कर पूरी पत्ती पर फैल जाते है, जिससे पत्तियाँ सूख कर गिरने लगती है। यह पत्तियों के शीर्ष स्थानों पर (V) आकार में क्षति करता है। संक्रमण विकास के किसी भी चरण में हो सकता है और पत्तियों, डंठलो और तने पर दिखाई देता है। शुरूआती लक्षण पुरानी, निचली पत्तियों के ऊपरी तरफ छोटे, गोल और थोड़े धसे-धसे हुए धब्बों के रूप में दिखाई देते है। समय के साथ, धब्बे बड़े, अधिक अनियमित होते जाते हैं और पीले रंग के परिवेश से घिरे रहते है। बाद में, पत्तियों के धब्बे दोनों सतहों पर दिखाई देते है। पुराने धब्बे जुड़ जाते है और पत्तियों पर अपने स्थान के आधार पर विभिन्न स्वरूप धारण कर लेते है।

 

नियंत्रण: नियंत्रण हेतु रोग दिखाई देते ही मैकोजेब 2 ग्राम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोल बना कर 15 दिन के अंतर पर 2-3 छिड़काव करें। 

4. सरकोस्पोरा लीफ स्पॉट: पत्तों के ऊपर छोटे-छोटे गोल आकार के धब्बे, जो भीतर भूरे तथा किनारे पर हरे लाल रंग के होते है, बन जाते हैं। रोग के अधिक प्रकोप में पत्तियां सूख कर गिर जाती है। सरकोस्पोरा मेलीगेना पौधे का जनक है। फफूंद पौधे के मलबे और मिट्टी में कम से कम 1 वर्ष तक जीवित रह सकती है तब वे विभिन्न तरीकों से निचली, पुरानी पत्तियों पर पहुंच जाते हैं। अधिकतर वे हवा और पानी (बारिश और सिंचाई) के द्वारा फैलते है। लेकिन ये संक्रमित औजारी और व्यक्तियों द्वारा फैल सकते है। यह तब तने से होता हुआ युवा पत्तियों तक पहुंच जाता है। नमी और उच्च आर्द्रता रोग के संक्रमण और विकास के लिए अनुकूल है। यही कारण है कि यह बरसात के मौसम के दौरान सामान्यत: दिखाई देता हैं।


नियंत्रण : रोकथाम के लिए मैकोजेब नामक दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करें एवं 15 दिन के अंतर पर दो बार छिड़काव करें।

5. फल गलन : यह रोग कई प्रकार के फफूंदी जैसे अल्टरनेरिया स्पीशीज, फोमास्पीशीज, पेस्टालोशिया स्पीशीज आदि से फैलती है। इस रोग के प्रकोप से फल के निचले हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो धीरे-धीरे पूरे फल पर दिखाई देने लगता है धब्बों के ऊपर छोटे-छोटे काले धब्बे भी दिखाई देते हैं। कभी-कभी इन धब्बों पर गहरे भूरे रंग के छल्ले भी दिखाई देते है।


नियंत्रण: इस रोग के नियंत्रण के लिए 0.2 प्रतिशत ब्लाइटॉक्स कवकनाशी का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करना लाभदायक है। 

6. कलैडोस्पोरियम लीफ स्पॉट : पत्तों पर हल्के भूरे रंग के छोटे-छोटे अनिश्चित आकार के धब्बे बनते है। पत्तियों की निचली सतह पर गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं।


नियंत्रण : रोकथाम के लिए मैकोजेब नामक दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करे एवं 15 दिन के अंतर पर दो बार छिड़काव करें।

7. रतुआ या लीफ रस्ट: पत्तियों की निचली सतह पर नारंगी या भूरे रंग के छोटे-छोटे कील बनते है। रोग से प्रभावित पत्तों का रंग भूरा या गहरा-भूरा हो जाता है।  


नियंत्रण : रोकथाम के लिए मैंकोजेब नामक दवा के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करें एवं 15 दिन के अंतर पर दो बार छिड़काव करें।

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