पपीता की खेती: पपीता के पौधे में अनेक कीट एवं रोगों का प्रकोप होता है, लेकिन पपीते के बागों में कीटों की अपेक्षा रोगों से नुकसान अधिक होता है। हानिकारक कीट और रोगों के प्रकोप के कारण उत्पादन में गहरा असर पड़ता है। आइये जानते है पपीता में लगने वाले हानिकारक रोगों के बारे में
आर्द्रगलन रोग
यह रोग मुख्य रूप से पौधशाला में कवक के कारण होता है, जिससे पौधों को काफी नुकसान होता है, इसका प्रभाव सबसे अधिक नए अंकुरित पौधों पर होता है, जिससे पौधा जमीन के पास से सड़-गल कर नीचे गिर जाता है।
रोग की रोकथाम
- इसके उपचार के लिए नर्सरी की मृदा को सबसे पहले फर्मेल्डीहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से उपचारित कर पाँलीथीन से 48 घंटों के लिए ढक देना चाहिए। बीज को थिरम या कैप्टन (2 ग्राम प्रति किलोग्राम) दवा से उपचारित करके ही बोना चाहिए या पौधशाला में लक्षण दीखते ही मेटालैक्सिल मैन्कोजैब के मिश्रण का 2 ग्राम/लीटर का स्प्रे करें।
पर्णकुंचन रोग
पर्ण-कुंचन (लीफ कर्ल) रोग के लक्षण पपीते के पौधे में केवल पत्तियों पर दिखायी पड़ते हैं। रोगी पत्तियाँ छोटी एवं क्षुर्रीदार हो जाती हैं। पत्तियों का विकृत होना एवं इनकी शिराओं का रंग पीला पड़ जाना रोग के सामान्य लक्षण हैं। रोगी पत्तियाँ नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं और फलस्वरूप ये उल्टे प्याले के अनुरूप दिखायी पड़ती है जो पर्ण कुंचन रोग का विशेष लक्षण है। पतियाँ मोटी, भंगुर और ऊपरी सतह पर अतिवृद्धि के कारण खुरदरी हो जाती हैं। रोगी पौधों में फूल कम आते हैं. रोग की तीव्रता में पतियाँ गिर जाती हैं और पौधे की बढ़वार रूक जाती है।
रोग की रोकथाम
- यह पर्ण कुंचन रोग विषाणु के कारण होता है तथा इस रोग का फैलाव रोगवाहक सफेद मक्खी के द्वारा होता है।
- यह मक्खी रोगी पत्तियों से रस चूसते समय विषाणुओं को भी प्राप्त कर लेती है और स्वस्थ्य पत्तियों से रस-शोषण करते समय उनमें विषाणुओं को संचारित कर देती है।
- रोगवाहक कीट के नियंत्रण हेतु डाइफेनथूरोंन 50% WP @ 15 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी की में घोलकर पत्तियों पर छिडकाव करें या
- पायरिप्रोक्सिफ़ेन 10% + बाइफेन्थ्रिन 10% EC @ 15 मिली या एसिटामिप्रिड 20% SP @ 8 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी में घोल बनाकर पत्तियों पर छिडकाव करें।
- 15-20 दिनों बाद छिड़काव दुबारा करे तथा कीटनाशक को बदलते रहे।
- बागों की नियमित रूप से सफाई करनी चाहिए तथा रोगी पौधे के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए।
- नये बाग लगाने के लिए स्वस्थ्य तथा रोगरहित पौधे या बीजों का चुनाव करना चाहिए।
- रोगग्रस्त पौधे एक बार संक्रमित होने के बाद ठीक नही हो पाते है अतः इनको उखाड़कर जला देना चाहिए, अन्यथा ये पौधे दूसरे पौधों को सफेद मक्खी की सहायता से रोग का प्रसार कर देते है।
फल सड़न रोग
इस रोग के कई कारण हैं, जिसमें कोलेटोट्र्रोईकम ग्लीयोस्पोराईड्स प्रमुख है। आधे पके फल रोगी होते हैं। इस रोग में फलों के ऊपर छोटे गोल गीले धब्बे बनते हैं, बाद में ये बढ़कर आपस में मिल जाते हैं तथा इनका रंग भूरा या काला हो जाता है। यह रोग फल लगने से लेकर पकने तक लगता है जिसके कारण फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं।
रोग की रोकथाम
- कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.0 ग्राम/लीटर पानी में या मेन्कोजेब 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से रोग में कमी आती है। रोगी पौधों को जड़ सहित उखाड़ कर जला देना चाहिए और रोगी पौधों के स्थान पर नए पौधे नहीं लगाना चाहिए।
चूर्णिल आसिता
पपीता के पौधों में इस रोग का प्रभाव फफूंद की वजह से दिखी देता है। इस रोग के लगने पर शुरुआत में पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। रोग बढ़ने से इन धब्बों का आकार बढ़ जाता है। और रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग का पाउडर जमा हो जाता है। जिससे पौधे सूर्य का प्रकाश ग्रहण नही कर पाने की वजह से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करना बंद कर देते हैं। जिससे उनका विकास रुक जाता है।
रोग की रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर रोग दिखाई देने के तुरंत बाद उन पर घुलनशील सल्फर का छिडकाव करना चाहिए।
- इसके अलावा रोग ग्रस्त पत्तियों को तुरंत तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
लाल मकड़ी
पपीता के पौधों में यह रोग कीट की वजह से फैलता हैं। इस रोग के कीट आकार में काफी छोटे पाए जाते हैं। जो पौधे की पत्तियों पर एक समूह में बहुत अधिक संख्या में रहते हैं, और पत्तियों के संचरण तंत्र को प्रभावित करते है। जिससे पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है। और पत्तियां प्रकाश संस्लेषण की क्रिया करना बंद कर देती हैं। जिससे पौधों का विकास रुक जाता है। रोग का प्रभाव अधिक बढ़ने पर पौधों पर फल नही बनते।
रोकथाम
- इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा का छिडकाव करें।
- इसके अलावा डायमिथोएट या नीम के तेल का छिडकाव भी रोग की रोकथाम के लिए लाभदायक होता है।
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