पपीता का यह एक महत्पूर्ण रोग है ,जो बरसात के मौसम में कुछ ज्यादा ही देखने को मिलता है।इस रोग के लिए एक से अधिक रोगकारक जिम्मेदार हो सकते है यथा पाइथियम अफेनिडर्मेटम, राईजोक्टोनिया सोलानी या फाईटोप्थोरा इत्यादि से फैलता है।
तना गलन या कॉलर रॉट रोग के प्रमुख लक्षण
पपीते के तना गलन या कॉलर रॉट रोगPapaya) के फुट रॉट के प्रमुख लक्षण है, तने की छाल (Bark) पर जल सिक्त (Water Soaked) , स्पंजी (Spongy) धब्बे तने (Stem) के कॉलर भाग (Collar Region) में बनने लगते हैं। तने का कॉलर भाग (Collar Region) मिट्टी के ठीक ऊपर का हिस्सा होता है। इस प्रकार के बने धब्बे (Patches) बहुत शीघ्रता के साथ वृद्धि करते हैं तथा रोग ग्रस्त तने के चारों और गर्डिल (Girdle) बना लेते हैं जिससे तने के ऊतक गलने (Rot) लगते हैं और काले रंग का हो जाता है। सम्पूर्ण तना वायु के हल्के झोंके द्वारा ही गिर जाता है।अन्त में तने की छाल (Bark) को ठीक से देखने पर भीतरी ऊतक (Internal Tissues) शुष्क (Dry) तथा मधुमक्खी (Honey Comb) छत्ते की भाँति दिखायी देता है तने की गलन (Rotting) जड़ों (Roots) तक पहुंच कर उन्हें नष्ट कर देती है।
तना गलन या कॉलर रॉट रोग का प्रबंधन कैसे करें ?
इस रोग के प्रबंधन के लिए निम्नलिखित उपाय करना चाहिए यथा सर्वप्रथम रोगग्रस्त पौधों (Diseased Plants) को खेतों से जड़ सहित उखाड़कर जला देना चाहिए। ऐसे खेतों में जिनमें पानी आसानी से निकल जाता है। उनमें ही पपीते की खेती करनी चाहिए । हमेशा इस बात की सतर्कता रखनी चाहिए कि पपीते के पेड़ के निचले भाग (Basal Region) में कोई चोट या घाव नहीं होना चाहिए ।ऐसी जमीन जिनमें पपीते का गलन रोग हो चुका हो कभी भी पपीते की खेती नहीं करनी चाहिए। पौधों को प्रभावित क्षेत्रों में कॉपर ऑक्सीक्लोराइड कवकनाशी का लेप कर देना चाहिए। कॉपर ऑक्सी क्लोराइड (Copper Oxychloride) की 3 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर पौधे के आस पास की मिट्टी को खूब अच्छी प्रकार से भीगा देना चाहिए ।इसके 10 दिन के बाद एक इस तरह का कवकनाशी ले , जिसमे मेटालक्जिल एवं मंकोजेब मिला हो इसकी 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी के घोल से पौधे के आस पास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगा दे। एक पौधे के आस पास की मिट्टी को भीगाने के लिए 5 लीटर घोल की आवश्यकता पड़ेगी। कैप्टान (Capton), मैकोजेब (Mancozab), कैप्टाफॉल (Captafal) आदि में से किसी भी एक कवकनशी का प्रयोग करके मृदा से रोगकरक (Pathogens) को कम किया जा सकता है।
प्रोफेसर (डॉ ) एसके सिंह
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय समन्वित फल अनुसंधान परियोजना एवम्
सह निदेशक अनुसंधान
डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर बिहार