Pea Farming: रबी दलहनी फसलों में मटर का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी खेती दाल एवं सब्जी के लिए की जाती है। सूखी मटर को दलकर दाल तथा सूप बनाने के काम में लाया जाता है। इसमें प्रोटीन 22.5 ग्राम, वसा 1.8 ग्राम, शर्करा 62.1 ग्राम, कैल्शियम 64 मि.ग्रा. और लौह तत्व 4.8 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम की दर से पाया जाता है। कच्चे दानों का परिरक्षण करने से दाने लंबे समय तक ताजा बने रहते हैं। सूखे दानों का उपयोग दाल के रूप में भी किया जाता है। इसका भूसा पशुओं के चारे के रूप में भी उपयोगी होता है।
भारत में मटर का संभावित क्षेत्रफल वर्ष 2018-19 में 5.54 लाख हैक्टर था जबकि उत्पादन 5524 मीट्रिक लाख टन था। इसकी उत्पादकता 9 क्विंटल प्रति हैक्टर थी, जो कि काफी कम है। भारत की अर्थव्यवस्था में मटर का विशेष स्थान होने के कारण इसका अधिक महत्व है। यह सब्जी और दाल दोनों के लिए इस्तेमाल की जाती है। मटर में कार्बोहाइड्रेट तथा विटामिन के साथ-साथ पाच्य प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त इसमें खनिज पदार्थ की मात्रा भी पर्याप्त होती है। पिछले कुछ वर्षों से मटर का क्षेत्रफल और उत्पादकता कम हो रही है। इसका मुख्य कारण है उन्नत तरीके से खेती न करना। उन्नत तरीके से खेती करके 20-25 प्रतिशत मटर की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। यदि समय से कीट व व्याधियों पर नियंत्रण कर लिया जाये, तो उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। प्रस्तुत लेख में कीट व व्याधियों के रोकने के उपाय बताये गये हैं।
मृदा व जलवायु
दोमट व बलुई दोमट मृदा, जिसका पी-एच मान 5.5 से 6.0 के मध्य हो तथा जो कार्बनिक जीवांश से भरपुर हो, मटर की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। जल निकास का अच्छा प्रबंधन भी होना चाहिए। इसकी खेती के लिए ठंडी एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त होती है। फसल की अच्छी बढ़वार के लिए 15 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। लंबे समय तक पाला पड़ने की दशा में उपज कम मिलती है।
भूमि की तैयारी
पहली जुताई मृदा पलटने वाले हल से तथा बाद की 2 से 3 जुताइयां देसी हल या हैरो चलाकर खेत में पाटा चलाकर करनी चाहिए, ताकि खेत में बिखरे ढेले टूट जायें व मृदा अच्छी तरह भुरभुरी हो जाए। दीमक व अन्य भूमिगत कीटों की समस्या होने पर इनकी रोकथाम के लिए बुआई से पूर्व अन्तिम जुताई के समय मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण या क्विनालफॉस 10.5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से भूमि में अच्छी तरह डालकर मिलाना चाहिए।
राइजोबियम कल्चर बीजोपचार
एक पैकेट 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर से 10 कि.ग्रा. बीज को उपचारित करके बोना चाहिए। 50 ग्राम गुड़ अथवा चीनी को आधा लीटर पानी में घोलकर उबाल लें। ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम मिला दें। बाल्टी में 10 कि.ग्रा. बीज डालकर अच्छी प्रकार मिलायें. ताकि सभी बीजों पर कल्चर का लेप चिपक जाये। उपचारित बीजों को 8-10 घंटे तक छाया में फैला दें और सूखने दें। बीजों को धूप में नहीं सुखाना चाहिए। बीजोपचार दोपहर के बाद करें, जिससे बीज शाम को अथवा दूसरे दिन सुबह बोया जा सके। राइजोबियम कल्चर से उपचारित करने से 4-5 दिनों पहले ही कवकनाशियों से बीजों को उपचारित कर लेना चाहिए।
बीज दर व बुआई का समय
इसकी बुआई के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर का समय उपयुक्त होता है। बुआई के समय तापमान लगभग 22 डिग्री सेल्सियस होने पर बीजों का अंकुरण अच्छा होता है। अगेती किस्मों के लिए बीज की मात्रा 100 से 120 कि.ग्रा., जबकि मध्यकालीन एवं पछेती किस्मों के लिए 80 से 90 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है। बीज को बुआई से पूर्व ट्राइकोडर्मा नामक जैविक फफूंदीनाशक 6 ग्राम या कार्बेन्डाजिम नामक फफूंदीनाशक 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। इसके बाद राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज दर से उपचारित करने पर उपज में लाभ होता है।
बुआई विधि
अगेती किस्मों के बीज की बुआई के लिए पंक्ति से पंक्ति के मध्य 30 सें.मी. दूरी, जबकी मध्यकालीन एवं पछेती किस्मों के बीज की बुआई के लिए पंक्ति से पंक्ति के मध्य 45 सें.मी. दूरी तथा पौधे से पौधे के मध्य की दूरी 8 से 10 सें.मी. रखनी चाहिए। बुआई से पूर्व खेत में पलेवा करके बोने से बीजों का अच्छा अंकुरण होता है।
खाद एवं उर्वरक
उर्वरक की मात्रा मृदा नमूने की जांच पर निर्भर करती है। अतः बुआई से पूर्व मृदा की जांच अवश्य करवाएं। खेत की तैयारी के समय 200 से 250 क्विंटल प्रति हैक्टर सड़ी हुई गोबर की खाद अच्छी तरह से मिला लें। नाइट्रोजन 25 कि.ग्रा. की एक तिहाई मात्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. की पूर्ण मात्रा प्रति हैक्टर अन्तिम जुताई के समय देनी चाहिए। शेष नाइट्रोजन की मात्रा दो भागों में बुआई के 25 से 30 एवं 40 से 45 दिनों बाद निराई-गुड़ाई करके दें।
सिंचाई
मटर की फसल में सिंचाई जल की तुलनात्मक रूप से कम आवश्यकता होती है। फिर भी 10 से 15 दिनों के अंतराल में 3 से 4 सिंचाइयां करनी जरुरी होती हैं। फसल की पुष्पण, फली बनने एवं दाना बनने की अवस्था में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
फसल वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में खरपतवार शीघ्र ही निकाल देना चाहिए अन्यथा पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फसल में दो निराई-गुड़ाई पहली बुआई के 30 दिनों बाद करनी चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर तीसरी निराई-गुड़ाई भी की जा सकती है। निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नष्ट होते हैं। रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार नियंत्रण के लिये बासालिन 3 कि.ग्रा. क्रियाशील तत्व प्रति हैक्टर की दर से बुआई से पूर्व 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर मृदा पर छिड़काव करें। छिड़काव के समय मृदा में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।
उपज
फलियों की तुड़ाई बुआई के लगभग 45 से 50 दिनों के बाद फलियों के पूर्ण भरने पर करनी चाहिए। फलियों की तुड़ाई 8 से 10 दिनों के अंतराल में 3 से 4 बार करनी चाहिए। अगेती किस्मों से औसत उपज 25 से 40 क्विंटल एवं देरी से बोई जाने वाली किस्मों से औसत उपज 80 से 100 क्विंटल प्रति हैक्टर हरी फलियां प्राप्त कर सकते हैं।