हमारे देश में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में मटर का महत्वपूर्ण स्थान है। मटर मुख्य रूप से सब्जी व दाल के लिए प्रयोग की जाती है। इसके दानों में 20-22 प्रतिशत प्रोटीन के अतिरिक्त अन्य आवश्यक खनिज जैसे कैल्शियम, फॉस्फोरस, लौह तथा विटामिन्स प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसकी हरी फलियों में 7 प्रतिशत प्रोटोन पाई जाती है। इसकी हरी फसल का प्रयोग पशुओं के चारे व हरी खाद के रूप में किया जाता है। पकी फसल से दाना निकालने के बाद प्राप्त भूसा पशुओं को खिलाने के काम आता है। मटर को पूर्ण विकसित हरी फलियों और हरे दानों को सुखाकर डिब्बाबन्दी भी की जाती है।
मटर की फसल मृदाक्षरण रोकने, नमी संरक्षण व मृदा को उपजाऊ बनाने में भी सहायक है। फलीदार सब्जियों के अंतर्गत यह एक अधिक लाभ देने वाली फसल है जिसे उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में सर्दियों में तथा पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मियों में उगाया जाता है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा व राजस्थान मटर उगाने वाले मुख्य राज्य हैं।
उन्नत किस्में
सब्जी हेतु उगाई जाने वाली मटर की किस्मों को सामान्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।
अगेती किस्में : उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में मटर की अगेती किस्मों की बिजाई मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक की जाती है। मटर अगेता-6 एवं अजाद मटर-3 मुख्य अगेती किस्में है।
अर्द्ध-पछेती या मुख्य मौसम की किस्में: उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में मटर की मुख्य मौसम की किस्मों की बिजाई मध्य अक्तूबर से नवम्बर माह तक की जाती है। इनमें अर्कल, पूसा प्रगति ( फलियों की प्रथम तुड़ाई 60-65 दिन में), बौनेविले (फलियों की प्रथम तुड़ाई 85-90 दिन में) मुख्य हैं।
जलवायु
मटर शुष्क व ठंडी जलवायु की फसल है। बढ़वार की प्रारम्भिक अवस्था में मटर काफी ठंड सहन कर लेती है। इसके फूल तथा फल पाले से अधिक प्रभावित होते हैं। वानस्पतिक बढ़वार के लिए 15-20° से. तथा फसल पकने के समय 18-30° से. तापमान उपयुक्त होता है। फलियों के पकाव की इ अवस्था में तापमान अधिक होने पर दानों में मिठास तथा फलियों की गुणवत्ता कम हो जाती है। बीज के पकने के समय अपेक्षाकृत सूखे व गर्म मौसम की आवश्यकता होती है।
खेत का चयन
मटर की सफलतापूर्वक खेती के लिए दोमट व बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है। परन्तु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर इसे सभी प्रकार की कृषि योग्य मृदाओं में उगाया जा सकता है। मटर के अच्छे उत्पादन हेतु मृदा में जीवांश पदार्थ पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए तथा मृदा का पी.एच. मान 6.5 से 7.0 के मध्य होना चाहिए। खेत में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
खेत की तैयारी
बिजाई से पहले डिस्क हैरो की मदद से 2-3 बार गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद कल्टीवेटर की सहायता से मिट्टी को पूर्णतया भुरभुरी कर लेना चाहिए। प्रत्येक जुताई के समय पाटा अवश्य लगाएं ताकि बुआई के समय पर्याप्त नमी बनी रहे। मृदा में पर्याप्त नमी होने से बीजों का अंकुरण शीघ्र एवं समान रूप से होता है।
बीज की मात्रा तथा बीज उपचार
सितम्बर माह में बोई जाने वाली अगेती किस्मों के लिए 100-110 कि.ग्रा. तथा मुख्य फसल की बिजाई हेतु 80-90 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए। बुआई से पहले मटर के बीजों को राइजोबियम जीवाणु संवर्ध (कल्चर) से उपचारित कर लेना चाहिए। एक हैक्टर क्षेत्र में बिजाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के दो पैकेट पर्याप्त हैं। दस प्रतिशत चीनी या गुड़ के घोल में संवर्ध (कल्चर) को मिलाएं तथा बीज को इस घोल में भिगो लें। भीगे बीज को छाया में सुखा लें। यह प्रक्रिया बुआई से पहले दिन शाम के समय कर लें।
सिंचाई प्रबंधन
पहली सिंचाई बीज बोने से पहले पलेवा के रूप में की जाती है। इसके उपरांत सामान्यतः दो सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई फूल बनने के समय तथा दूसरी सिंचाई फलियों में दाने बनने के समय करनी चाहिए। खेत में अनावश्यक पानी का रुकना पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए हानिकारक होता है।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
बिजाई से 15-20 दिनों पहले 10-15 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद को खेत में बिखेरकर कल्टीवेटर की सहायता से जुताई करके मृदा में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। खेत में प्रयोग हेतु खाद एवं उर्वरक की मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। मटर की फसल में 30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन. 60 कि. ग्रा. फॉस्फोरस, तथा 40 कि.ग्रा. पोटाशियम प्रति हैक्टर की दर से डालना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फॉस्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुआई हेतु खेत तैयार करते समय डालनी चाहिए। जबकि शेष बची नाइटोजन को खड़ी फसल में फूल आने के समय समान रूप से छिड़क देना चाहिए। इसके अतिरिक्त खड़ी फसल में फूल आने के समय यूरिया का पर्णीय छिड़काव भी किया जा सकता है।
खरपतवार नियंत्रण
मटर की अच्छी बीज फसल लेने के लिए बुआई के 30-45 दिनों तक प्रभावी खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है। इसके लिए बुआई के 30-35 दिनों बाद निराई-गुड़ाई सम्भव ना हो तो खरपतवार नियंत्रण हेतु बुआई के तुरंत बाद पैन्डीमिथेलीन 30 ई.सी. 4-4.5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से 500 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करते हैं।
कीट एवं रोग प्रबधंन
- मटर की बीविल (घुन) माहू या चेंपा तथा फली छेदक इस फसल के मुख्य कीट हैं। चूर्णी फफूंद (पाउडरी मिल्ड्यू) पत्तियों का धब्बा रोग तथा उकठा (विल्ट) इस फसल के मुख्य रोग हैं।
- माहू या चेंपा व पूर्ण सुरंगक से बचाव के लिए ईमिडाक्लोपरिड 17.8 एसएल या थायोमेथक्साम 25 डब्ल्यूजी 2 मि.ली. दवा प्रति 10 लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।
- फलीछेदक कीट से बचाव हेतु डाइमिथोएट 30 ई.सी. अथवा मेलाथियान 50 ई.सी. अथवा मिथाइल डेमेटोन 25ई.सी. 1मि.लि. दवा प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।
- उकठा (विल्ट)/कॉलर रॉट से बचाव हेतु ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम अथवा कार्बोन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचार करें। चूर्णी फफूंद (पाउडरी मिलडयू) से बचाव हेतु 10-15 दिनों के अंतर पर सल्फर 0.25 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें।
- पत्तियों का धब्बा रोग/रस्ट से बचाव हेतु डाइथेन एम-45 के 0.25 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें।
फलियों की तुड़ाई एवं उपज
अगेती किस्मों में फलियां बिजाई के 55-60 दिनों में पहली तुड़ाई हेतु तैयार हो जाती हैं तथा 10-15 दिनों के उपरांत दूसरी तुड़ाई की जाती है। हरी फलियों की तुड़ाई दानों की कोमल अवस्था में रहते हुए ही की जानी चाहिए। हरी फलियों की औसत पैदावार 20-30 क्विं प्रति एकड़ तथा बीज की पैदावार 4-5 एकड़ तथा बीज की
पैदावार
4-5 क्विं प्रति एकड़ होती है। अर्द्ध-पछेती किस्मों में फलियां बिजाई के 65-80 दिनों में पहली तुड़ाई हेतु तैयार हो जाती हैं। इन किस्मों में फलियों की 3-4 तुड़ाई की जाती है। हरी फलियों की औसत पैदावार 50-60 क्विंटल प्रति एकड़ तथा बीज की पैदावार 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
बीज उत्पादन
बीज की शुद्धता बनाए रखने के लिए बीज खेत से वे पौधे, जो बोई गई प्रजाति के पौधों से मेल नहीं खाते, समय-समय पर खेत से निकाले जाते हैं। मटर में तीन अवस्थाओं-वानस्पतिक अवस्था, पुष्पण की अवस्था तथा कटाई से पूर्व अवांछनीय पौधे को निकालने का कार्य करना चाहिए। खेत में जब पौधे 15 सें.मी. ऊंचे हो जाएं तो सामान्य पौधों से अधिक या कम उंचाई वाले पौधों को उखाड़कर हटा देते हैं। देर से फलने वाली किस्मों में से जल्दी फूल आने वाले पौधों को निकाल देते हैं। देर तक फूल आने वाले पौधों तथा उन पौधों को जिनमें फलियों की पैदावार कम है, खेत से बाहर निकाल देते हैं। बीज हेतु बोई गई फसल में जब 80-90 प्रतिशत फलियां पक कर भूरी पड़ जाती हैं तो पकी हुई फलियों को पौधे समेत काट लेते हैं। कटाई के बाद पौधों को खलिहान में तिरपाल या पक्के फर्श पर फैलाकर सुखाना चाहिए। अच्छी तरह सुखाए गए पौधों को डंडों से पीट कर या ट्रैक्टर द्वारा गहाई करके बीजों को निकालते हैं। बीजों से फलियों के अवशेषों, तिनकों, डंठलों आदि को अलग कर लेते हैं। सुरक्षित भंडारण हेतु सूखे व साफ बीज के डिब्बों, एल्युमिनियम फायल या मोटे प्लास्टिक के लिफाफे में भरकर आर्द्रतारहित कमरों में रखना चाहिए। अच्छी बीज फसल से लगभग 12-15 क्विंटल बीज प्रति हैक्टर की दर से प्राप्त किया जा सकता है।