प्याज और लहसुन मुख्यतः कंद समूह की दो ऐसी फसलें हैं, जिनका सब्जी क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी खपत और देश में विदेशी मुद्रा की कमाई में उनका बहुत बड़ा योगदान है। भारत दुनिया में प्याज और लहसुन की खेती में अग्रणी है, लेकिन यहां प्रति ट्रैक्टर उत्पादकता अन्य देशों की तुलना में कम है। इसके लिए अन्य उपायों के साथ-साथ यह जरूरी है। इन फसलों को रोग एवं कीट से बचाना।
तो आइये जानते है इन फसलों को हानि पहुंचने वाले कीट और रोगों की पहचान के साथ कैसे इनकी रोकथाम करें। और इन प्रभावी उपायों की जानकारी के माध्यम से किसान इन फसलों की उपज और उत्पादकता को काफी हद तक बढ़ा सकते है।
मुख्य कीट
इन फसलों को सर्वाधिक हानि पहुंचाने वाले मुख्य दो कीट हैं; थ्रिप्स व लहसुन मक्खी। इन कीटों का प्रकोप फरवरी तक होता है।
थ्रिप्स
इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। प्रौढ़, काले रंग के बहुत ही छोटे, पतले, लम्बे, जबकि शिशु कीट हल्के भूरे-पीले रंग के होते हैं। जहां से पत्तियां निकलती हैं उसी जगह ये कीट रहते हैं। ये नई-नई कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं, जिनके प्रकोप से पत्ते के सिरे ऊपर से सफेद व भूरे होकर सूखने व मुड़ने लगते हैं। पौधों की बढ़वार रुक जाती है। अधिक प्रकोप होने पर पत्ते चोटी से चांदीनुमा होकर सूख जाते हैं। बाद की अवस्था में इस कीट का प्रकोप होने पर शल्क कंद छोटे रहते हैं और आकृति में टूटे-फूटे होते हैं। बीज की फसल पर इस कीट का बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है।
सावधानी
- एक ही कीटनाशी का बार-बार प्रयोग न करें।
- छिड़काव की जरूरत मार्च-अप्रैल में पड़ती है। कीट, फरवरी से मई तक नुकसान करता है।
- कोई चिपकने वाला पदार्थ घोल में अवश्य मिलायें।
- छिड़काव के कम से कम 15 दिनों बाद ही प्याज प्रयोग में लायें।
रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए निम्नलिखित में से बारी-बारी से किसी एक कीटनाशक का 200-250 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें :
- 75 मि.ली. फैनवैलरेट 20 ई.सी.
- 175 मि.ली. डैल्टामेथ्रिन 2.8 ई.सी.
- 60 मि.ली. साइपरमेथ्रिन 25 ई.सी. या 150 मि.ली. साइपरमेथ्रिन 10 ई.सी.
- 300 मि.ली. मेलाथियान 50 ई.सी.
प्याज एवं लहसुन में चुरड़ा कीट की रोकथाम के लिए लहसुन का तेल 150 मि.ली. तथा इतनी ही मात्रा में टीपोल को 150 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से 3 से 4 छिड़काव करें।
प्याज व लहसुन मक्खी
कभी-कभी इस कीट का प्रकोप भी इन फसलों पर देखने में आता है। लहसुन की मक्खी घरों में पाई जाने वाली मक्खी से छोटी होती है। इसके शिशु (मैगट) व प्रौढ़ दोनों नुकसान पहुंचाते हैं। मादा सफेद मटमैले रंग की होती है और यह प्राय: बीज स्तंभों के पास मिट्टी में अंडे देती है। अंडों से नवजात मैगट स्तंभों के आधार को खाते हुए फसल के भूमिगत तने वाले हिस्सों में आक्रमण करते हैं। बाद में ये कंदों को खाना शुरू कर देते हैं, जिससे पौधे सूख जाते हैं। इन्हीं कंदों पर आधारीय विगलन रोग का बाद में आक्रमण होता है, जिससे बल्ब सड़ने लगते हैं।
रोकथाम
आखिरी जुताई के समय खेत में फोरेट कीटनाशी 4.0 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से मृदा में अच्छी प्रकार मिलायें तथा इसके बाद में थ्रिप्स में बताए गए कीटनाशियों का प्रयोग करें।
मुख्य रोग
झुलसा रोग
लक्षण : यह रोग पत्तियों और डंठलों पर छोटे सफेद और हल्के पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है। ये बाद में आपस में मिलकर बड़े भूरे धब्बे बनाते हैं। अंततः ये धब्बे गहरे भूरे या काले रंग के हो जाते हैं। बीज के डंठल टूट कर मौके पर ही गिर जाते हैं। पत्तियाँ सिरे से धीरे-धीरे सूखने लगती हैं और आधार की ओर चली जाती हैं और पूरी तरह से सूख जाती हैं। अनुकूल मौसम मिलते ही यह रोग बहुत तेजी से फैलता है और कई बार फसल को भारी नुकसान भी पहुँचा देता है।
रोकथाम
- स्वच्छ खेती से फसल स्वस्थ रहती है।
- गहरी जुताई और सौर उपचार गर्मी के महीनों में बहुत फायदेमंद होता है।
- दीर्घकालीन असंबद्ध फसलों का फसल चक्र अपनाना चाहिए।
- रोग के लक्षण प्रकट होते ही इंडोफिल एम-45, 400 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड-50, 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 प्रतिशत ई.सी. 200 मिली प्रति एकड़ 200 लीटर पानी का घोल बनाकर 10-15 दिनों के अंतराल पर किसी चिपकने वाले पदार्थ में मिलाकर छिड़काव करें।
बैंगनी धब्बा रोग
लक्षण: यह रोग पत्ती, तना, बीज स्तंभ एवं शल्क कंद पर लगता है। रोगग्रस्त भागों पर छोटे-छोटे सफेद धंसे हुए धब्बे बनते हैं। इनका मध्य भाग बैंगनी रंग का होता है। ये धब्बे शीघ्र ही बढ़ते हैं। इन धब्बों की सीमाएं लाल या बैंगनी रंग की होती हैं, जिनके चारों ओर ऊपर तथा नीचे कुछ दूर तक एक पीला क्षेत्र पाया जाता है। रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंदों का विगलन कंद की गर्दन से शुरू हो जाता है। रोगग्रस्त पौधों में बीज प्रायः नहीं बनते और यदि बीज बन भी गये, तो वे सिकुड़े हुए होते हैं।
रोकथाम
- स्वच्छ खेती से फसल स्वस्थ रहती है।
- गहरी जुताई और सौर उपचार गर्मी के महीनों में बहुत फायदेमंद होता है।
- दीर्घकालीन असंबद्ध फसलों का फसल चक्र अपनाना चाहिए।
- रोग के लक्षण प्रकट होते ही इंडोफिल एम-45, 400 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड-50, 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 प्रतिशत ई.सी. 200 मिली प्रति एकड़ 200 लीटर पानी का घोल बनाकर 10-15 दिनों के अंतराल पर किसी चिपकने वाले पदार्थ में मिलाकर छिड़काव करें।
आधारीय विगलन रोग
लक्षण: इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रुक जाती है तथा पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। बाद में पत्तियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखना शुरू होती हैं। कभी-कभी पौधे की शुरू की अवस्था में इस रोग के कारण जड़ें गुलाबी या पीले रंग की हो जाती हैं तथा आकार में सिकुड़कर अंततः मर जाती हैं। रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंद छोटे रहते हैं। इस रोग का प्रभाव कन्दों के ऊपर गोदामों में सड़न के रूप में देखा जाता है।
रोकथाम
- आखिरी जुताई के समय रोगग्रस्त खेतों में फोरेट दानेदार कीटनाशी 4.0 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से मृदा में अच्छी प्रकार से मिलायें।
- दीर्घकालीन असंबंधित फसलों से 2-3 वर्षों का फसलचक्र अपनायें।
- कन्द को खुले व हवादार गोदामों में रखना चाहिए।
विषाणुजनित रोग
लक्षण : इस रोग के कारण पत्तियों पर हल्की पीली धारियां बन जाती हैं तथा पत्तियां मोटी तथा भीतरी भाग लहरदार हो जाता है। इन परिस्थितियों में, धारियाँ आपस में मिल जाती हैं और पूरी पत्ती को पीला कर देती हैं और वृद्धि रूक जाती है।
रोकथाम
यह रोग कीटों द्वारा फैलता है इसलिए फसल उगाने के मौसम में जब भी इस रोग के लक्षण दिखाई दें तो उसी समय मेटासिस्टॉक्स या रोगोर नामक किसी एक दवा का मि.ली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो दोबारा छिड़काव करें।