फसल की सुरक्षा:- करेला की फसल में कीटों का प्रकोप कम होता है। किन्तु सावधानी हेतु नियमित अन्तराल पर कुदरती कीट नाशक का छिड़काव करते रहें। ताकि फसल उपज ज्यादा एंव उच्च गुणवत्ता के साथ प्राप्त हो।
रैड बीटल
यह हानिकारक कीट है, जो करेला पर प्रारम्भिक अवस्था पर लगता है। यह कीट पत्तियों को खा कर पौधे की बढ़ाव को रोकता है। इसकी सूंडी खतरनाक होती है, यह करेला के पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है।
रोकथाम– रैड बीटल से करेले के फसल की सुरक्षा हेतु पतंजलि निम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग प्रभावि है। 5 लीटर कीटरक्षक को 40 लीटर पानी में घोलकर, सप्ताह में दो बार छिड़काव करें। इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे प्रोफेनोफोस 40% + साइपरमेथ्रिन 4% ईसी 35-40 ml/pump या डाइमेथोएट 30% ईसी 1 मिली/लीटर की दर से 10 दिनों के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें ।
पाउडरी मिल्ड्यू रोग
यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएटम के कारण होता है। इसकी वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल फैल जाता है, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाता है। इस रोग में पत्तियां पीली हो जाती है और फिर सूख जाती है।
जैविक उपचार – इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ लें, उसमें 2 लीटर गौमूत्र और 40 लीटर पानी मिलाकर, छिड़काव करते रहना चाहिए। प्रति सप्ताह एक छिड़काव करें लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेले की फसल पूरी तरह सुरक्षित हो जाती है।
रासायनिक उपचार - रोग की रोकथाम हेतु Carbendazim 50% WP या Azoxystrobin 23% SC का उचित मात्रा से छिड़काव करे।
एंथ्रेक्वनोज रोग
करेला फसल में यह रोग सबसे अधिक पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधे में पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है, फलस्वरुप पौधे का विकास अच्छी तरह से नहीं हो पाता।
जैविक उपचार– रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते में 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से समाप्त हो जाता है।
रासायनिक उपचार - रासायनिक उपचार में Azoxystrobin 23% SC या Carbendazim 12% + Mancozeb 63% WP का उचित मात्रा में छिड़काव करें।
चूर्णिल आसिता
रोग का लक्षण पत्तियां और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धुसर दिखाई देती हैं। कुछ दिनों के बाद वे धब्बे चूर्ण युक्त हो जाते हैं। सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में यमूचे पौधे की सतह को ढ़ंक लेता हैं। जो कि कालान्तर में इस रोग का कारण बन जाता हैं। इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता हैं।
उपचार- इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देते हैं। रासायनिक फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 1/2 मिली/लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम/10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।
मोजेक विषाणु रोग
यह रोग विशेषकर नई पत्तियों में चितकबरापन और सिकुड़न के रूप में प्रकट होता हैं। पत्तियां छोटी एवं हरी-पीली हो जाती हैं। सवंमित पौधे का ह्नास शुरू हो जाता हैं और उसकी वृद्धि रूक जाती हैं। इसके आक्रमणसे पर्ण छोटे और पत्तियों में बदले हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ पुष्प गुच्छों में बदल जाते हैं ग्रसित पौधा बौना रह जाता हैं और उसमें फल बिल्कुल नहीं होता हैं।
उपचार- इस रोग की नियंत्रण के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं हैं लेकिन विभिन्न उपायों के द्वारा इसको काफी कम किया जा सकता हैं। खेत में से रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। इमिडाक्लोरोप्रिड 0.3 मिली/लीटर का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल में छिड़काव करें।