Yellow Rust Disease in Wheat: गेहूं में पीला रतुआ एक कवक पक्सीनिया स्ट्रीआईफार्मिस फोर्मे स्पीशीज ट्रिटिसी से पैदा होता है। यह रोगजनक उत्तरी हिमालय की पहाड़ियों पर और मैदानी भागों में भी जीवित रहता है। दिसंबर-जनवरी में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई भाग तथा राजस्थान में यह रोग फैलता है। यह रोग ठंडे तथा आर्द्र मौसम में ज्यादा फैलता है। जैसे ही मैदानी भागों में तापमान 23° सेल्सियस से ऊपर जाता है, तो इस रोग का बढ़ना रुक जाता है। पौधों के पीले भाग, काले बिंदुओं में परिवर्तित हो जाते हैं। पीला रतुआ का प्रकोप जनवरी से मध्य मार्च तक रहता है।

संक्रमित पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारियां बन जाती हैं और इनमें से पीला पाउडर जमीन पर झड़ने लगता है। हाथ की उंगलियों के बीच में पत्ती को रगड़ने पर पीला पाउडर हाथ के पोरों पर लग जाता है। पीला रतुआ की रोकथाम के लिए इसकी पहचान तथा रोगी पौधों पर कवकनाशी दवा का स्प्रे रोग के आने के तुरंत बाद बहुत जरूरी है। यह रोग के बीजाणुओं के कई चक्र पैदा करता है। प्रत्येक रोग बिंदु लाखों बीजाणुओं को 15-25 दिनों के अंतराल पर पैदा करता है। ये अन्य पौधों को संक्रमित करते हैं और इस प्रकार रोग एक महामारी का रूप ले लेता है।
पीला रतुआ रोग की रोकथाम की रणनीति
- भारत में पीला रतुआ के द्वारा कोई भी महामारी गत चार दशकों से नहीं आई है। विश्व के कई देशों में यह महामारी प्रभावित कर चुकी है। इसका मुख्य कारण देश में इस रोग के रोकने के लिए की गई रणनीति है। इसके प्रमुख पहलू इस प्रकार हैं:
- पीला रतुआ के लिए रोगरोधी प्रजातियों की हर साल किसानों के लिए उपलब्धता, पीला रतुआ के रोगजनक के नए प्रकारों की समय से पहचान तथा नयी प्रजातियों को इनके प्रति जांचना। पीला रतुआ की समय पर पहचान तथा रोग के पहले लक्षण दिखने पर ही कवकनाशी दवा से नष्ट करना, जिससे रोग की गति को रोका या धीमा किया जा सके।
- एक से ज्यादा रोगरोधी गेहूं की प्रजातियों को गांव स्तर पर लगाना।
- पुरानी तथा रोगग्राही प्रजातियों जैसे पीबीडब्ल्यू - 343, एचपीडब्ल्यू-251, एच एस-375, को नई प्रजातियों जैसे- डब्ल्यूबी - 02, एचपीबीडब्ल्यू -01, डीबीडब्ल्यू-90, एचडी-3086, पीबीडब्ल्य- 644, पीबीडब्ल्यू-723, पीबीडब्ल्यू-725, डब्ल्यूएच-1021, डब्ल्यूएच-1086, डब्ल्यूएच-1124 डब्ल्यूएच-1142, एचएस-542, एचएस-507 तथा उन्नत पीबीडब्ल्यू-550 से बदलना।
- रोग के आने पर खेत में प्रोपिकोनाजोल नामक दवा की 200 मि.ली. मात्रा का 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। यदि रोग जनवरी में आ जाता है। तो छिड़काव दोबारा 15 दिनों के बाद करें। इसके लिए खेत का समय-समय पर निरीक्षण करें। रोगी पौधों का सैंपल लेकर वैज्ञानिक से संपर्क करें तथा दी गई सलाह मानें।
- मार्च में गेहूं की पत्तियों के निचले भाग को देखें। यदि यह पीले रंग से काले रंग में परिवर्तित हो गया है तो दवा न छिड़कें। इसके बाद यह रोग हानि नहीं करेगा तथा ज्यादा तापमान पर रोगजनक मरने लगेगा।