Pumpkin Farming: भारत में कद्दू या काशीफल की खेती पुरातन काल से होती आ रही है। कददूवर्गीय सब्जियों में कददू एवं कुम्हड़ा का विशेष स्थान है। इसके कच्चे व पके हुए फलों से कई प्रकार की सब्जियां बनाई जाती हैं। उत्तर भारत में तो विवाह व त्यौहार आदि अवसरों पर इसकी सब्जी बनाने की प्रथा है। कद्दू कच्चा और पका फल सब्जी के लिए तथा पके फलों का मिठाई (पेठा) बनाने में प्रयोग होता है। कुम्हड़ा या कददू की एक किस्म मिष्ठान पेठा बनाने में प्रयुक्त होता है। इसके पके हुए फलों को साधारण ताप पर भी लम्बे समय तक रखा जा सकता है। यही कारण है कि जिस समय बाजार में सब्जियों का अभाव रहता है उस समय भी यह उचित मूल्य पर उपलब्ध रहता है। इसकी कोमल पत्तियों तथा फूलों की भी पहाड़ी लोग स्वादिष्ट सब्जी बनाकर उपयोग में लाते हैं। इसके बीज चीनी / शक्कर के साथ मिलाकर फीताकृमि (टेपवर्म) से पीड़ित व्यक्तियों को खिलाते हैं। इसके फलों का गूदा फुलटिस के रूप में फोडों और घाव पर बाँधा जाता है। इसकी सब्जी में सभी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। कम लागत केराटीन की अधिक मात्रा तथा अच्छी भंडारण क्षमता के कारण ग्रीष्म कालीन ग्रत्रियों में काटत की पत्नी अधिक पसंद की जाती है।
काशीफल के 100 ग्राम खाने योग्य भाग में 92.5 ग्राम जल, 1.4 ग्राम प्रोटीन, 46 ग्राम कार्बोहाइड्रेटस, 0.1 ग्राम वसा तथा 0.6 ग्राम खनिज लवण पाये जाते हैं। कददू के अन्तर्गत तीन प्रजातियाँ काशीफल या समर स्क्वेश (कुकुरबिटा पीपो), विन्टर स्क्वेश छप्पन कददू (कुकरविटा मोस्चेटा) तथा कुकरबीटा मैक्सीमा आती है। काशीफल या समर स्क्वेश (कुकुरबिटा पीपो) में फलवृन्त गहराई तक उभार लिये होता है एवं फल में 5-8 धारियाँ होती हैं जबकि विन्टर स्क्वेश/शीतकालीन (कुकरविटा मोस्चेटा) में फलवृन्त से फल मजबूती से जुड़ा होता है तथा आमतौर पर फल पर 5 धारियाँ होती हैं तथा कुकरविटा मैक्सिमा में फलवृन्त बेलनाकार होता है तथा उसमें धारियाँ नहीं पायी जाती हैं।
1. ग्रीष्मकालीन (कुकरबिटा पीपो)
किस्में
- काशीफल / कददू किस्में - पूसा अलंकार, पंजाब छप्पन कद्दू पूसा हाइब्रिड-1, काशी शुभांगी या वाराणसी छप्पन कद्दू नरेन्द्र उपहार, काशीहरित, नरेन्द्र अग्रिम, नरेन्द्र उपकार, नरेन्द्र आभूषण, नरेन्द्र अमृत, सरस, सुवर्णा, सूरज (के.ए.यू.), पी.ए.यू. मगज कददू–1 पंजाब सम्राट, पी.पी.एच-1, पी.पी.एच. तथा कल्याणपुर कद्दू -1 आदि ।
- विदेशी किस्में - अर्सी यलो प्रोलिफिक, पैटीपेन, आस्ट्रेलियन ग्रीन भारत में पेटीपान, ग्रीन हब्बर्ड, गोल्डन हब्बर्ड, गोल्डन कस्टर्ड और यलो स्टेट नेक नामक किस्में भी छोटे स्तर पर उगाई जाती हैं
2. शीतकालीन (कुकरविटा मोस्चेटा) किस्में
- अर्का सूर्यमुखी, अर्का चन्दन, पूसा बिश्वास, पूसा विकास, सी. ओ- 1 एवं 2 तथा अम्बिली।
- विदेशी किस्में- भारत में बटरनट, ग्रीन हब्बर्ड, गोल्डन हब्बर्ड, गोल्डन कस्टर्ड और यलो स्टेट नेक, येलो कूकनेक, स्माल सुगर तथा केण्टुकीफील्ड नामक किस्में भी छोटे स्तर पर उगाई जाती हैं।
3. भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान (आई.आई.वी.आर.) से विकसित किस्में:- काशी उज्जवल, काशी हरित, काशी सुरभि तथा काशी धवल ।
काशी शुभांगी छप्पन भोग कद्दू की 50–55 दिन में पहली तुड़ाई होती है। इसके अलावा यह लगातार 70 दिन तक फल देती है। छप्पन भोग कद्दू की औसत उपज 325-350 क्वि./ है. है। एक हेक्टेयर में 7000-7500 पौधे लगाए जाते हैं।
भूमि एवं उसकी तैयारी
काशीफल की खेती प्रायः सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है। अच्छी पैदावार लेने के लिए दोमट या बलुई दोमट भूमि जिसमें जीवांश की पर्याप्त मात्रा हो तथा उचित जल निकास वाली भूमि सर्वोत्तम रहती है। गंगा जमुना नदी के दोआब क्षेत्र की कछारी मिट्टी में भी उचित जीवांश मात्रा मिलाकर अच्छी खेती की जाती है। अधिक अम्लीय तथा क्षारीय भूमि इसकी खेती के लिए नुकसानदायक साबित होती है। 6.0 से 7.2 पी.एच. मान वाली भूमि में अच्छी उपज देती है। पहली गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से कर के दो से तीन जुताई देशी हल या हैरो से करते हैं। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरा और समतल करना चाहिए।
बीज के अंकुरण के समय भूमि का तापमान 18-20 डिग्री सेन्टीग्रेड होना चाहिये तथा पौधे की वृद्धि एवं विकास हेतु 24-27 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उपयुक्त रहता है।
पूर्वोत्तर प्रदेश में छप्पन कद्दू की बुवाई सितम्बर माह के द्वितीय पखवाड़े से लेकर नवम्बर के प्रथम पखवाड़े तक करें। लो टनल की सुविधा होने पर दिसम्बर माह में भी बुवाई की जा सकती है।
फसल चक्र:- काशीफल को निम्नलिखित फसल चक्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
1. भिण्डी - मटर- काशीफल (कद्दू)
2. चौलाई पालक - काशीफल
3. तोरई -मूली- काशीफल
4. मक्का - शलजम - काशीफल
5. लोबिया - पत्तागोभी - काशीफल
6. करेला - मटर- काशीफल
7. ग्वार-गाजर-काशीफल
8. अरबी - काशीफल - ग्वार
9. टमाटर-फ्रेंचबीन—कद्दू
10. भिण्डी - आलू -कद्दू
बुवाई का समय तथा बीज की मात्रा :
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में काशीफल की फसल वर्ष में दो बार बोई जाती है। ग्रीष्म कालीन फसल की बोआई मुख्यतः फरवरी-मार्च में की जाती है। नदी के कछारी क्षेत्रों में तो दिसम्बर-जनवरी माह में ही बीज बो दिये जाते हैं। बरसात की फसल के लिए बीज जून-जुलाई में बोया जाता है। एक हेक्टेयर की बुवाई करने के लिए 7-9 किलोग्राम बीज पर्याप्त रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बवाई मार्च-अप्रैल में की जाती है।
बीज बोने की विधि तथा दूरी
सामान्यतः बरसात वाली फसल की बुवाई समतल खेत में 3 मीटर की दूरी पर कतार बनाकर छोटे थाले / कुण्ड 60x60x45 से.मी. आकार के गड्डे या थालों में करते हैं। थाले से थाले की दूरी 1.5 मीटर रखी जाती है। प्रत्येक क्यारी में 8-10 बीज बोने चाहिए।
कतार से कतार की दूरी 2–2.5 मीटर रखते हैं तथा कुण्ड कुण्ड की दूरी 1.5 मीटर रखी जाती है। प्रत्येक कुण्ड या थाले से में 4–5 बीज एक ही जगह बोने चाहिये। बीजों के अंकुरण पश्चात् दो स्वस्थ पौधों को छोड़कर बाकी के पौधे उखाड़ देने चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। अतः इस फसल की बोआई नालियों में करना अच्छा रहता है। इसके लिए 2.5 से 3 मीटर के फासले पर लगभग 1 मीटर चौड़ी नालियाँ बनाते हैं और इन्हीं नालियों के दोनों किनारों पर दो थालों या कुण्डों में बीज की बुवाई की जाती है। कुण्ड से कुण्ड की दूरी 1-1.5 मीटर रखते हैं।
खाद एवं उर्वरक
काशीफल की अच्छी उपज लेने के लिए खाद एवं उर्वरक दोनों का ही समुचित मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। खेत की प्रारम्भिक जुताई के समय 200 से 250 क्विं. / हेटेक्यर के हिसाब से गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद या वर्मीकम्पोस्ट 100-150 क्विं. मिला देना चाहिए। 20 किलोग्राम नीम खली, 30 किलो ग्राम अरण्डी की खली, यूरिया 120 किलोग्राम, एस. एस.पी. 500 किलोग्राम, एम.ओ.पी. 75 किलोग्राम तथा 60 किलोग्राम नत्रजन, 80 किलोग्राम स्फुर/ फास्फोरस, 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर के उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा तथा फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा को बुवाई से पूर्व अन्तिम जुताई के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर खेत तैयार कर देना चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर दो बार में पौधों में 4-5 पत्तियाँ निकल आने पर यानि बुवाई के 22-25 दिन बाद अंतिम शेष मात्रा फूल आते समय टापड्रेसिंग द्वारा पौधों के चारों ओर दे देनी चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उर्वरक पौधों की जड़ व तने के सम्पर्क में न आने पाये।
सिंचाई एवं जल निकास
यदि बीज उगने के लिए खेत में पर्याप्त नमी न हो तो पहली सिंचाई बोआई के बाद शीघ्र कर दें। दूसरी और तीसरी सिंचाई भी जल्दी यानि 4-6 दिन के अन्तर से करें। ऐसा करने से बीज शीघ्र तथा आसानी से उग आयेंगें। ग्रीष्म ऋतु की फसल में 8-10 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। आवश्यकतानुसार 7-10 दिन के अन्तर से सिंचाई करते रहना चाहिए। बरसात की फसल में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यदि वर्षा लम्बे समय तक न हो तो सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए। बरसात की फसल में उचित जल -निकास की व्यवस्था का होना आवश्यक है ताकि खेत में वर्षा का फालतू पानी इकट्ठा न होने पाए।
खरपतवार नियंत्रण
काशीफल की अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत में खरपतवार नहीं उगने देना चाहिए। इसके लिए गर्मी की फसल में 2-3 बार तथा बरसात की फसल में 3-4 बार निराई गुड़ाई की आश्यकता पड़ती है। खुर्पी या फावड़े से निराई-गुड़ाई का कार्य किया जा सकता है इससे खरपतवार तो समाप्त हो ही जाते हैं साथ ही भूमि में वायु का समुचित संचार होता है। परिणामस्वरूप पौधों की अच्छी बढ़वार होती है। अधिक खरपतवार की दशा में एलाक्लोर नामक रसायन की 1.5 लीटर मात्रा को 750-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए अथवा ऑक्सीलूरोफेन नींदानाशी की 1.2 किलोग्राम मात्रा 750 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है।
पादप वृद्धि नियामक – कद्दू/काशीफल में 2-4 पत्ती की अवस्था पर इथ्रेल के 250 पी.पी.एम. (250 मिलीग्राम/ली.) सान्द्रण वाले घोल का छिड़काव करने से मादा पुष्पों की संख्या बढ़ जाती है तथा उपज अधिक मिलती है।
फल तुड़ाई
आमतौर पर बोने के 75–90 दिन बाद हरे फल तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं। फलों को तेज धार वाले चाकू से काटना चाहिए ताकि पौधों को क्षति न पहुंचे। बाजार की मांग के अनुसार ही हरे कच्चे या पीले पके हुए फल तोड़ने चाहिए। काशीफल अधिकतर पकने पर ही तोड़े जाते हैं क्योंकि कच्चे फलों को ज्यादा दिन नहीं रखा जा सकता है।
उपज
बरसात की फसल गर्मियों की फसल से अधिक पैदावार देती हैं इसकी औसत उपज 300-325 क्विं /हे. मिल जाती है।