मूंग एक बहुउद्देशीय, बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दालों में से एक है। जिसे दाल के अतिरिक्त हरी खाद, एवं पशुओं के हरे चारे के लिए भी उपयोग किया जाता है। इसका भूसा अधिक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होता है जिसे पशु बड़े चाव से खाते हैं। मूंग की फसल की जड़ों में सूक्ष्म जीवाणु राइजोबियम पाए जाते हैं जो वायुमंडल में उपलब्ध स्वतंत्र नाइट्रोजन को भूमि में संस्थापन करने में सक्षम होते हैं, जिसका उपयोग मूंग के बाद बोई गई फसल द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त मूंग की हरी फलियों से सब्जी बनाई जाती है।
मूंग की नमकीन-मिठाइयां, पापड़ और मंगोड़ियां भी बनाई जाती हैं। बेबीलोव (1926) के अनुसार, मूंग का जन्मस्थान भारत या मध्य एशिया है क्योंकि मूंग की फसल इन क्षेत्रों में प्राचीन काल से उगाई जा रही है। इसकी खेती विश्व के बहुत ही कम देशों में की जाती है। भारत के आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान गुजरात में अन्य प्रदेशों की तुलना में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है। जायद मूंग उत्पादन की नई प्रोद्योगिकी का उल्लेख नीचे किया गया है।
जलवायु : आमतौर पर मूंग की फसल वर्ष के विभिन्न महीनों में विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जाती है। कुछ स्थानों पर मूंग की फसल 2 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी की जाती है। मूंग की फसल के लिए अधिक वर्षा हानिकारक होती है, परंतु 100 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मूंग की फसल सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। 60-75 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी मूंग की फसल आसानी से की जा सकती है। इसकी फसल की वृद्धि काल में अधिक तापमान की आवश्यकता होती है, जबकि पौधों पर फलियां आते समय और उनके पकते समय शुष्क मौसम व उच्च तापमान की आवश्यकता होती है।
भूमि : मूंग की खेती काली मिट्टी, दोमट, मटियार और जलोढ़ मृदा में सफलतापूर्वक की जा सकती है। भारी भूमि की अपेक्षा हल्की भूमि में इसकी खेती अधिक उत्तम होती है। भारी भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था बेहद जरूरी है। मूंग की बेहतर उपज दोमट मिट्टी से प्राप्त होती है।
खेत की तैयारी : जायद मूंग की फसल उगाने के लिए खेत को विशेष तैयारियों की आवश्यकता नहीं होती है। हल या कल्टीवेटर से 1-2 जुताई कर सकते हैं, जायद ऋतु में आलू या गन्ने के खेत खाली होने या गेहूं की कटाई के बाद पलेवा करके तुरंत मूंग की बुवाई कर सकते हैं।
मूंग की उन्नत किस्में
- पूसा बैशाखी: फसल अवधि 60-70 दिन। दानों का रंग हरा। इसकी फलियां एक साथ पाक जाती हैं। इस किस्म को जायद व वर्षा ऋतु में उगाया जा सकता है। यह प्रति हैक्टेयर 8-10 क्विंटल उपज दे देती है।
- के 6-851 : भारतीय दलहन अनुसंधान निदेशालय, कानपुर ने इस किस्म का विकास किया है 60-65 दिन में इसकी फसल पककर तैयार हो जाती है। इसकी फलियां लंबी (7-10 सेमी) होती हैं। प्रत्येक फली में 10-14 मोटे दाने होते हैं। इसकी सभी फलियां लगभग एक साथ पकती हैं। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 10-12 क्विंटल उपज ली जा सकती है।
- पंत मूंग 1 : पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म 60-75 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म में पीला मोजेक रोग नहीं लगता है। इस किस्म को जायद और वर्षा ऋतु में उगाया जा सकता है। यह प्रति हैक्टेयर 10-12 क्विंटल तक की उपज देती है।
- गुजरात मूंग 4 : इसकी अवधि 75-80 दिन होती है। यह वर्षा ऋतु में शीघ्र पकने वाली, निम्न और सामान्य वर्षा वाले क्षेत्रों में बोने हेतु ज्यादा उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह प्रति हैक्टेयर में 7-9 क्विंटल तक उपज दे देती है।
- आई पी एम 99 – 125 : इस का विकास भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर ने किया है यह उत्तरी पूर्व मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त किस्म है यह किस्म 65-70 दिन में पककर तैयार हो जाती है इससे प्रति हैक्टेयर 10 -12 क्विंटल तक उपज मिल जाती है।
- आई पी एम 02–3 : यह किस्म 62-68 दिन में पककर तैयार हो जाती है। यह जायद और खरीफ दोनों मौसमों में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है जो प्रति हेक्टेयर में 11-12 हैक्टेयर तक उपज देती है।
- एच यू एस - 12 : काशी विश्विद्यालय वाराणसी ने इस किस्म का विकास किया है। यह किस्म 60-65 दिन में पककर तैयार हो जाती है। यह उत्तरी-पूर्वी मैदानी क्षेत्रों में जायद ऋतु में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। यह प्रति हैक्टेयर 12.2 क्विटल उपज दे देती है।
बीज की मात्रा : मूंग के बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि उसे अकेले या मिलवा फसल के रूप में उगाया जा रहा है। अकेले फसल के लिए 12-15 किलोग्राम व मिलवा फसल के लिए 8-10 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बीज पर्याप्त होता है।
बीजोपचार : बीज को बुवाई से पूर्व 2.5 ग्राम थाइरम या बाबिस्टिन प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज को 500 ग्राम राई जोबियम कल्चर 1 हैक्टेयर की दर से उपचारित करना चाहिए।
बुवाई का समय
जायद मूंग को 15 फरवरी से 15 अप्रैल के मध्य में कभी भी बोया जा सकता है।
बोने की विधि
जायद मूंग की फसल को पंक्तियों में ही बोया जाना चाहिए। जायद मूंग में पंक्तियों की आपसी दूरी 25-30 सेमी और पौधों की दूरी 10 सेमी रखनी चाहिए। बीज को खेत में 3-4 सेमी गहरा बोना चाहिए परंतु यदि भूमि में नमी की कम हो तो, 1 सेमी अधिक गहरी बुवाई करनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
जायद मूंग की फसल से भरपूर उपज लेने के लिए मृदा जाँच के आधार पर खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना चाहिए। यदि किसी कारणवश मृदा जाँच न हो सके तो उस परिस्थिति में प्रति हैक्टेयर 30-40 किलोग्राम पोटाश देनी चाहिए। यदि आलू या गेहूँ के बाद मूंग की फसल उगाई जा रही है तो पोषक तत्वों की मात्रा कम की जा सकती है।
सिंचाई एवं जल निकास
जायद मूंग की फसल को 4–6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। मूंग की बुवाई से पूर्व एक सिंचाई (पलेबा) करके खेत की तैयारी करनी चाहिए। इसके बाद फसल की अवस्था के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए। फसल में पुष्पन एवं दाना भरने की अवस्था में सिंचाई अवश्य करनी चाहिए अन्यथा उच्च गुणवत्ता वाली अधिक उपज प्राप्त नहीं होगी। प्रथम सिंचाई बुवाई के 20-25 दिन बाद करें उसके बाद 10-12 दिन के अंतर पर सिंचाई करे।
यदि किसी कारणवश मूंग की फसल में पानी जमा हो जाए, तो उसे तुरंत निकालने की व्यवस्था करनी चाहिए अन्यथा फसल मरने की आशंका रहती है।
पौध संरक्षण उपाय
खरपतवार नियंत्रण: जायद वाली मूंग की फसल में खरपतवार नियंत्रण अत्यंत आवश्यक कृषि कार्य है। इसकी तरफ किसान पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं। जिसके चलते फसल के विकास, वृद्धि एवं उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आमतौर पर दो बार निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार का नियंत्रण हो जाता है। पहली निराई फसल बोने के 45 दिन बाद करनी चाहिए।
रासायनिक नियंत्रण हेतु निम्न उपाय करने चाहिए। इसके लिए फ्लूक्लोरीन (बासालिन) 1 सक्रिय तत्व 1,000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई से पहले खेत में छिड़क कर भूमि में 4-5 सेमी गहराई पर मिट्टी में भली भाँति मिला देना चाहिए।
रोग नियंत्रण
1. पीला मोजैक यह विषाणुजनित रोग है जिसका संवाहक सफेद मक्खी है। यह मूंग का एक भयंकर रोग है जो उत्तरी भारत व बिहार राज्य में विशेष रूप से लगता है। इसके प्रभाव से प्रथम अवस्था में पत्ते पीले पड़ जाते हैं। उस पर गोल धब्बों का निर्माण हो जाता है। द्वितीय अवस्था में पत्तियों में दरारें पड़ जाती हैं और पत्तियां मुड़ जाती हैं। तृतीय अवस्था में पत्तियां बिल्कुल पीली पड़ जाती हैं और उनका आकार छोटा रह जाता है।
इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए -
- बीज रोगरहित एवं प्रमाणित होने चाहिए।
- बीज की बुवाई निर्धारित समय पर की जानी चाहिए।
- बीजों को बुवाई से पूर्व 1 ग्राम कूजर (थाइमिथक्सांम) या कॉन्फिडोर (इमिडाक्लोप्रिड) से उपचारित करना चाहिए।
- रोग फैलाने वाली मक्खी को नियंत्रण करके इस रोग को रोका जा सकता है। इसके लिए मैलाथियान जी 800 मिली. मात्रा को 800 लीटर पानी में घोल कर 10 दिन के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करना चाहिए।
- मूंग की पंत-6 नामक किस्म उगानी चाहिए।
2. चारकोल विगलन : यह फफूंदीजनित रोग है, लगभग एक माह की फसल पर यह रोग दिखाई देने लगता है। इस रोग का प्रमुख लक्षण पौधों की जड़ों एवं तनों का विगलन है। तने के निचले भाग में लाल-भूरे से लेकर काले रंग के धब्बे हो जाते हैं. इस रोग के नियंत्रण हेतु निम्न उपाय करने चाहिए।
- उचित फसल चक्र अपनाएं।
- 3 किलोग्राम सलफेक्स या इलोसोल को 1,000 लीटर पानी में घोलकर रोगी फसल पर छिडकाव करें।
3. रतुआ : यह फफूंदीजनित रोग है। इस रोग के लक्षण पत्तियों की निचली सतहों पर दिखाई देते है। इस रोग की रोकथाम हेतु निम्न उपाय करें -
- रोगरोधी बौनी किस्में ही उगाएं।
- उचित फसल चक्र अपनाएं।
- डाईथेन एम-45 या डाईथेन जैड-78 फफूंदीनाशक दवा का 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर रोगी फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
एन्थ्रक्नोज
इस रोग में पौधे के रोगग्रस्त भाग पर भूरे चिपके धब्बे बन जाते हैं, जिनके बाहर लाल या पीली रेखाएं उभर आती हैं। पत्तियां, धब्बे वाले स्थान से कागज जैसी पतली हो जाती हैं और तने गल जाते हैं। इसके अलावा जड़ों का रंग भी बदल जाता है। इसकी रोकथाम हेतु निम्न उपाय करने चाहिए -
- उचित फसल चक्र अपनाएं।
- केवल प्रमाणित बीजों को बोना चाहिए।
- बीजों को उपचारित करके बोना रोगरोधी किस्में ही उगाएं।
- ग्रीष्म कालीन जुताई करें।
कटाई एवं मड़ाई : फलियों के अन्दर के दानों के पूर्ण रूप से पकने के बाद ही फलियों को तोड़ना चाहिए। ग्रीष्म कालीन फसल के दानो के लिए फलियां लेने के बाद हरे चारे को पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग करना चाहिए क्योंकि उस समय चारे की कमी रहती है। फलियों के सूखने के बाद बेलों या कलियों की तोड़ाई या कटाई सुबह अथवा शाम के समय ही करनी चाहिए।
उपज: जायद मूंग की उपज कई बातों पर निर्भर है भूमि की उर्वराशक्ति, बुवाई की विधि व समय, उगाई जाने वाली किस्म और फसल की देखभाल प्रमुख हैं। यदि जायद मूंग का उत्पादन उपरोक्त वर्णित विधि द्वारा लिया जाए तो प्रति हैक्टेयर 12-15 क्विंटल तक उपज मिल जाती है।
भंडारण
बीजों को भंडारण करने से पहले निम्न बातों का ध्यान रखें -
- बीजों की आद्रता 8 प्रतिशत होनी चाहिए।
- भंडारण गृह स्वच्छ, सूखा एवं वायु अवरोधक होना चाहिए।
- भंडारण गृह को कीटमुक्त रखने के लिए मैलाथियान 30 प्रतिशत तेलीय घोल के 0.27 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
- सलफॉस की 3 ग्राम गोली को प्रति टन बीज की दर से भंडारण गृह में रखना चाहिए।
- जूट या कपड़े की थैली को लकड़ी के तख्तों पर रखनी चाहिए।