Strawberry Farming: स्ट्रॉबेरी एक ऐसी फलदार फसल है जो सबसे कम समय में फल देती है। आजकल स्ट्रॉबेरी की बागवानी का दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और परि- नगरीय क्षेत्रों के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण फल साबित हो सकती है क्योंकि देश के अन्य भागों में इसको किसान पैदा तो कर लेते हैं लेकिन उन्हें बाजार नहीं मिल पाते परंतु महानगरों के समीप रहने वाले किसानों को मार्केटिंग की कोई समस्या नहीं होती है। मार्केटिंग की स्ट्रॉबेरी में महत्ता इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह बहुत ही नाजुक फल है।
स्ट्रॉबेरी की उन्नत खेती तकनीक
यह एक शाकीय पौधा है जिसकी जड़ें बहुत ही छोटी एवं उथली (जमीन की उपरी सतह) होती हैं। अतः इसे पानी की बार-बार परंतु थोड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है। वैसे तो स्ट्रॉबेरी की कई किस्में हैं लेकिन चांदलर, पजारो, फर्न एवं स्वीट चार्ली आदि किस्में इन क्षेत्रों हेतु उपयुक्त हैं। स्ट्रॉबेरी के पौधो का प्रवर्धन भूस्तारी द्वारा होता है जो पहाड़ों में ही पैदा होते हैं।
पौधों की रोपाई अक्टूबर के अंत में 25 से 30 सेमी. की दूरी पर उंची क्यारियों में की जाती है। क्यारियां मनचाही आकार की हो सकती हैं परंतु उनकी उंचाई 15 सेमी. से अधिक नहीं होनी चाहिए। सर्दियों में यदि क्यारियों पर काली पॉलीथीन (700 गेज) का तम्बू लगा दें तो पौधों की बढ़वार अच्छी होती है।
स्ट्रॉबेरी के फल फरवरी में आना शुरू हो जाते हैं जो अप्रैल के शुरू तक खत्म हो जाते हैं। यदि फलों का संपर्क मिट्टी से बना रहे तो उनमें सड़न रोग की संभावना रहती है। अतः फलों के नीचे कोई पलवार (मल्च) जैसे सूखी घास, पुआल या पॉलीथीन आदि विछा दें। फलों को तोड़कर उन्हें विशेष प्रकार के प्लास्टिक के डिब्बों में पैक किया जाता है।
ध्यान रहे कि 200-250 ग्राम फल ही प्रत्येक डिब्बे में पैक किए जाने चाहिए तथा उन्हें तुरंत बाजार में भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए। स्ट्रॉबेरी को वैसे तो छोटे-मोटे बहुत रोग व कीट हानि पहुंचाते हैं परंतु कुछ पक्षी जैसे चिड़िया, मोर, तोता आदि सर्वाधिक हानि पहुंचाते हैं। इनसे बचने के लिए पौधों की क्यारियों के उपर नायलॉन का जाल लगाना ठीक रहता है।