जानिए फसलों में लगने वाले हानिकारक रोगों की पहचान और रोग प्रबंधन के बारे में

जानिए फसलों में लगने वाले हानिकारक रोगों की पहचान और रोग प्रबंधन के बारे में
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Kisaan Helpline

Crops Dec 22, 2023

भारत में किसानों द्वारा साल भर में कई सब्जियाँ उगाई जाती हैं। सब्जियों में सबसे ज्यादा नुकसान खरपतवार, कीड़ों और बीमारियों से होता है, जो अनुमानतः 30-40 प्रतिशत है। अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए बिना सोचे-समझे जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है, जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इसलिए, किसानों को समय पर बीमारियों से संबंधित विस्तृत जानकारी प्रदान करने की आवश्यकता है ताकि वे उनकी पहचान कर सकें और सही, सुरक्षित और अवशेष मुक्त रसायनों का उपयोग कर सकें।

कुछ रोगों की पहचान एवं उनके उचित प्रबंधन हेतु विवरण इस प्रकार है:

अल्टनेरिया झुलसा (alternaria blight)


इस रोग का लक्षण पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देता है। प्रभावित पत्तियों पर छोटे-छोटे, गोल एवं भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। कई धब्बे एक साथ मिलने पर पत्तियाँ मुरझा जाती हैं। तने पर लम्बवत धब्बा तथा फल का वह भाग जो बाह्यदलपुंज से जुड़ा रहता है, वहाँ धब्बा बनता है। यानि फल के डंठल से लक्षण प्रारंभ होकर फलों पर सूखा भूरा गोल धब्बा बनता है।

प्रबंधन
  • मैन्कोजेब 75 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. का 2.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से या जीनेब 2.0 ग्राम प्रति लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करें।
  • दवा का छिड़काव फरवरी महीने में पत्तियों पर लक्षण आने के प्रारम्भिक अवस्था से ही प्रारम्भ करना चाहिए।
  • जमीन पर गिरे हुए संक्रमित पत्तियों एवं फलों को इकट्ठा करके उनको जला दें। फसल समाप्त हो जाने के बाद पौधों के अवशेष एक जगह एकत्रित करके उन्हें जला दें
  • बीज का चुनाव हमेशा स्वस्थ एवं रोग रहित पौधों से ही करें।
फाइटोप्थोरा झुलसा (phytophthora blight)


इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों व फलों पर विभिन्न प्रकार के बड़े-बड़े हल्के रंग के धब्बे के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और थोड़े ही समय में यह बीमारी बहुत तेजी से पूरे खेत में फैल जाती है। यह बीमारी ठण्ड, आर्द्रता, बादल तथा हल्की वर्षा होने के समय तेजी से फैलती है। अगर ऐसा मौसम 4-5 दिनों तक लगातार बनी रहे तो बीमारी फैलने की संभावना बढ़ जाती है।

प्रबंधन
  • खेत में कार्बनिक खाद एवं हरी खाद का पर्याप्त मात्रा में डालकर ट्राइकोडर्मा का प्रयोग करें।
  • लक्षण दिखाई देते ही जीनेब 2.0 ग्राम प्रति लीटर या मैंकोजेब 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। इसी दवा का छिड़काव 7 दिनों के अन्तराल पर बराबर करते रहें इससे झुलसा रोग फैलने की कम सम्भावना होती है।
  • बीच-बीच में एक बार साइमोक्सनील 8.0 प्रतिशत + मैंकोजेब 64.0 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. का 2.0 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें।
  • खेत में जल निकास का पर्याप्त व्यवस्था करें।
  • टमाटर की फसल को ठण्डे एवं तार की सहायता से सहारा देकर लगावें।
स्कलेरोसियम गलन (sclerotium melting)


इस बीमारी को कालर राट भी कहते हैं। यह रोग भूमि में रहने वाले कवक स्कलेरोसियम रोल्फसाई द्वारा होता है। लगभग सभी सब्जी की फसलें इस कवक के संक्रमण की परिधि में आती हैं। इसके प्रारम्भिक लक्षण, जमीन के समीप तने के छिलके का ऊतक गलन के रूप में प्रकट होता है। प्रभावित भाग पर कवक सफेद रंग में स्पष्ट दिखाई देता है। तने पर सफेद कवक जाल एवं जमीन के ऊपर हल्के भूरे रंग के सरसों के दाने की तरह कवक संरचनाएँ बन जाती हैं जिन्हें स्कलेरोसियम कहते हैं। तने के आधार के संक्रमित हो जाने की वजह से पूरा पौधा जमीन के पास से गिर जाता है या फिर पीला पड़कर उकठ जाता है। यह रोग आगामी फसल में जमीन में गीरे हुए स्कलेरोसियम द्वारा फैलता है।

प्रबंधन
  • धान्य फसलें, मक्का, ज्वार, बाजरा फसल चक्र में अपनायें क्योंकि इस कवक का संक्रमण का दायरा बहुत बड़ा है।
  • खर-पतवार नियंत्रण और विशेष तौर पर द्विबीज पत्रों खर-पतवारों को खेत से पूरी तरह साफ रखना चाहिए।
  • गोबर की खाद एवं मिट्टी इत्यादि खेत में मिलाने से पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए की यह पहले से संक्रमित न हो।
  • गर्मियों से प्रभावित खेत की सिंचाई करके फिर जुताई करना चाहिए जिससे सक्रिय हुए स्केलेरोसिया नष्ट हो जाए।
  • हरी खाद को खेत में पलटने के बाद सप्ताह भर के अन्दर ट्राइकोडर्मा चूर्ण 5.0 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करना चाहिए।
  • रोपाई के पहले पौधों की जड़ों को 10.0 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति लीटर पानी के घोल में 10 मिनट पर उपचारित करना चाहिए।
  • सघन रोपाई नहीं करनी चाहिए जिससे जमीन के पास वाले तने के आस-पास पर्याप्त हवा का संचार होता रहे।
स्केलोरोटिनिया सफेद विगलन (Sclerotinia white rot)


सफेद विगलन को स्केलोरोटिनिया झुलसा भी कहते हैं जो एक सर्वव्यापी रोग कारक स्केलेरोटिनिया स्केलेरोशिओरम नामक कवक से होता है। दिसम्बर- जनवरी के महीने में जब कम तापमान, बदली वाली मौसम और वातावरणीय आर्द्रता के साथ मृदा नमी अधिक तक लक्षण उत्पन्न होती है। संक्रमण फूल आने की अवस्था में शरू होता है। तना पत्तियों, फूलों, मुलायम फलों, गीले पानी में भींगे हुए सड़न परिलक्षित होता हैं तथा बाद में इसके ऊपर सफेद कवकीय वृद्धि होता है। यह कवक जाल पूर्ण वृद्धि के तुरन्त बाद स्राव अवस्था में विकसित होता है। इसके सुखने के बाद जो स्केलेरोशिया के रूप में दिखाई पड़ते हैं। फल के अन्दर व बाहर जहाँ स्केलेरोशिया बनते हैं वहाँ फल गम्भीर रूप से संक्रमित होते हैं।

प्रबंधन
  • सुबह के समय संक्रमित पौधों के भाग को कुछ स्वस्थ्य भाग के साथ सावधानीपूर्वक काटकर पालीथिन में इकट्ठा करना चाहिए तथा स्केलेरोशिया को खेत में गिरने से बचाना चाहिए। इस सब पदार्थों को खेत के बाहर जला देना चाहिए।
  • फूल आने की अवस्था में 1.0 ग्राम कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. दवा प्रति लीटर पानी की दर से तथा बाद में मैंकोजेब 75 डब्ल्यू. पी. दवा की 2.5 ग्राम मात्रा पानी की दर से पर्णीय छिड़काव, ठंडे, बदली तथा आर्द्र मौसम में करना चाहिए।
  • धान जो कीचड़ (पडलिंग) करके नीची जमीन में लगाया गया हो और पानी में उगाया जाये।
  • गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का के साथ फसल चक्र अपनायें।
फल सड़न एवं गलन रोग (fruit rot and rot disease)


यह रोग प्रत्येक स्थान तथा प्रत्येक खेत में पाया जाता है। मुख्य रुप से फलों पर कवक की अत्यधिक वृद्धि हो जाने से फल सड़ने लगता है। घरातल पर पड़े फलों का छिलका नरम व गहरे हरे रंग का हो जाता है। आर्द्र वायुमण्डल में इस सड़े हुए भाग पर रुई के समान घने कवक जाल विकसित हो जाते हैं। भण्डारण और परिवहन के समय भी फलों में यह रोग फैलता है। खरीफ मौसम में टमाटर, बैंगन, मिर्च एवं कदूवर्गीय सब्जियों पर कई तरह के फल सड़ने वाले रोग कारक दिखाई देते हैं। फल सड़न में पिथियम, फाइटोपथोरा, राइजोक्टोनिया, माइरोथिसियम, कोलेटोट्राइकम, फोमोप्सिस, अल्टरनेरिया एवं क्लेडोस्पोरियम फफूँद कारक का संक्रमण होता है। प्रत्येक वर्ष औसतन 40 प्रतिशत उपज की हानि फल सड़न बीमारी के कारण होता है। राइजोक्टोनिया फल सड़न खरीफ मौसम वाली टमाटर की सबसे घातक बीमारी है। इस बीमारी का लक्षण फल के निचली सतह पर गोलाकार सड़ता हुआ आगे की ओर बढ़ता है। बाद में इस सड़े हुए भाग पर दरारे पड़ जाती हैं। माइरोथिसियम फल सड़न हरे तथा पके हुए फल पर जलसिक्त सड़न की तरह गोलाकर छल्ले के रूप में होता है जिस पर सफेद एवं काले रंग के असंख्य स्पोरोडोकिया इन छल्लों पर दिखाई देते हैं जो गीले होते हैं। फोमोप्सिस फल सड़न बीमारी में अधिकाशंतः सूख जाने पर काले रंग के पिक्निडिया बनते हैं। अधिकाशतः फल सड़न निचली हिस्सों जो जमीन से सटे हुए होते हैं, उस पर दिखाई देते हैं।

प्रबंधन
  • खेत में उचित जल निकास की व्यवस्था करें।
  • खेत की गर्मी में जुताई करें तथा हरी खाद का प्रयोग करके ट्राइकोडरमा 5.0 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें।
  • फलों को भूमि के स्पर्श से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए।
  • आवश्यकतानुसार सब्जी की खेती में पलवार (मल्च) का प्रयोग करें।
  • फसल को डण्डे व तार के सहारे से लगाकर खेती करें।
  • भण्डारण एवं परिवहन के समय फलों में चोट लगने से बचाएं तथा खुली हवादार जगह पर रखें।
  • प्रारम्भिक रोगाणु की संख्या कम करने के लिए प्रभावित फलों को एकत्र करके उन्हें जला देना चाहिए।
बैक्टीरियल पर्ण धब्बे और बैक्टीरियल झुलसा (Bacterial leaf spot and bacterial blight)


जीवाणु पर्णदाग रोग जैन्थोमोनस कम्पेस्ट्रिस पी.वी. वैसीक्टोरिया एवं कम्पेस्ट्रिस नामक जीवाणु से होता है। खरीफ फसल में यह रोग ज्यादा प्रभावी होता है। लगभग 30-90 प्रतिशत प्रतिवर्ष इस रोग से पौधे प्रभावित होते हैं। रोग का प्रकोप मुख्यतः जुलाई से अक्टूबर तक रहता है। धब्बों में चारों तरफ गोलाई में पीली किनारी दिखाई देती है। जब इसका प्रकोप फलों पर हो जाता है तब यह रोग सबसे हानिकारक साबित होता है। फलों पर छोटे-छोटे, जलीय, गोल धब्बे मुख्यतया खुले हुए भागों पर बनने शुरू हो जाते हैं। रोग की प्रचण्डता गर्म-नम मौसम में ज्यादा होती हैं जबकि तापमान 25-35 डिग्री सेन्टीग्रेड के मध्य एवं सापेक्षित आर्द्रता 90.0 प्रतिशत से ज्यादा होती है। जीवाणु जनित यह बीमारी भी बैक्टेरियल पर्णदाग जैसी ही होती है लेकिन यह स्यूडोमोनास साइरिन्जी पी. वी. टोमैटो द्वारा उत्पन्न की जाती है, इसमें पत्तियों में बने धब्बों के चारो तरफ पीली किनारी अधिकाशतः नही बनती एवं धब्बें तुलनात्मक रूप से बड़े बनते हैं। इस क्षेत्र में इस रोग का प्रकोप लगभग 10-15 प्रतिशत तक होता है। पर्ण धब्बे सामान्यतया गोलकार एवं नेक्रोटिक होते हैं। फलों पर बने धब्बों के चारो ओर यह भाग फसल पकते समय काफी समय तक हरा बना रहता है जबकि बाकी भाग लाल होने लगता हैं। पत्ती, फलों एवं डन्टलों पर काले छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं जबकि तनों पर अनियमित एवं अण्डाकार धब्बे बनते हैं। बैक्टेरियल स्पेक का प्रकोप मुख्यतया नवम्बर से जनवरी तक रहता है। ठण्डा एवं नम मौसम जबकि तापमान 15-25 डिग्री सेन्टीग्रेड के मध्य रहता है, इस रोग के लिए अनुकूल होता है। सर्दियों में यह रोग फल पकने के समय मुख्यतः दिखाई पड़ता है।

प्रबंधन
  • सामान्यतः 100 पी.पी.एम. स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या 50 डिग्री सेन्टीग्रेड गर्म पानी में 30 मिनट तक बीजोपचार करें।
  • प्रारम्भिक जीवाणु की कमी के लिए गर्मी की जुताई।
  • पौधशाला में संक्रमण नियंत्रण के लिए पौधशाला की मिट्टी का सोलराइजेशन करें।
  • स्वस्थ्य पौधों से बीज संग्रहण करें।
  • उड़द या मूंग के साथ अन्तः सस्यन करें ताकि छिटक कर रोग मिट्टी के साथ ऊपर पौध पर न जाएँ।
  • 150 पी.पी.एम. स्ट्रेप्टोसाइक्लिन यानी 1.0 ग्राम दवा 5.0-6.0 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव एक-एक बार करें।
  • एंटीबायोटिक दवाओं के वैकल्पिक छिड़काव के 15 दिन बाद एक बार पुनः छिड़काव कापर आक्सीक्लोराइड 03 प्रतिशत यानी 3.0 ग्राम प्रति लीटर की दर से करें।
विषाणु जनित जटिल पर्ण कुंचन (viral complex leaf curl)


विषाणु एक संक्रामक अतिसूक्ष्म व जीवाणु झिल्ली से पास हो जाने वाला अकोशिकीय न्यूक्लिक अम्ल आर.एन. ए. एवं डी.एन.ए. में से कोई एक ही होता है। रोग सितम्बर से नवम्बर माह में सर्वाधिक आता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियाँ नीचे की ओर मुड़ी हुई, अनियमित गुरचन, ऐंठन तथा हल्की पीली हो जाती है। पौधों में कई पार्श्वगाँठ (इन्टरनोड) हो जाने से पौधा छोटा एवं झाड़ीनुमा दिखाई देता है। बाद में इस तरह से संक्रमित पौधों में फूल एवं फल नही बनते हैं। कभी-कभी पौधों की पत्तियों पर हल्के तथा गहरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। ज्यादातर खेतों में पर्ण कुंचन विषाणु एवं तम्बाकू मोजैक विषाणु ही पाये जाते हैं। अतः दोनो के मिश्रित रोग लक्षण पौधों पर प्रकट होते हैं। अगेती खरीफ के फसल में इस रोग की तीव्रता प्रति वर्ष औसतन 60-65 प्रतिशत तक होती है। हरी पत्तियों में अनियमित हल्के हरे या पीले धब्बों का बिखराव, एक या अधिक गोल छल्लों का बनना तथा इन छल्लों के बीच में तथा पत्ती के बाहर हरे भाग का होना सामान्य लक्षण हैं। रोगकारक विषाणु सफेद मक्खी, थ्रीप्स तथा कृषि यंत्रों द्वारा रोगी से स्वस्थ्य पौधों तक फैलता है।

प्रबंधन
  • फसल तथा आस-पास के क्षेत्रों का खर-पतवार नियंत्रण करना चाहिए एवं समकुलीन बाहरी पौधे से संक्रमण का बचाव करना चाहिए।
  • पौधशाला को 40 मेस की नॉयलोन जाली से ढककर एवं विषाणु वाहक कीटों से बचाव कर विषाणु मुक्त पौध तैयार करें।
  • जहाँ तक सम्भव हो अगेती फसल न लें एवं सितम्बर के पूर्व रोपाई न करें।
  • अवरोधी फसलों को जो लम्बी हो एवं जिनमें यह रोग न लगता हो, को लगाना चाहिए। जैसे-ज्वार, बाजरा और मक्का ।
  • स्वस्थ्य बीज के संग्रहण के लिए स्वस्थ्य पौधों का चुनाव एवं विषाणु मुक्त बीज का प्रयोग करें।
  • फूल आने तक अन्तःप्रवाही कीटनाशक रसायनों का 10 दिनों के अन्तर पर छिड़काव करें।
  • कर्षण क्रियाओं के दौरान पौधों को कम से कम क्षति हो।
  • संक्रमित पौधों का यथाशीघ्र उखाड़कर जला देना चाहिए।
मृदुरोमिल असिता (downy mildew)


यह रोग वर्षा ऋतु के उपरान्त जब तापमान 20-22 डिग्री सेन्टीग्रेड होता है, तेजी से फैलता है। उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के मुख्य लक्षण पत्तियों पर कोणीय धब्बे जो शिराओं द्वारा सीमित होते हैं, देखा जा सकता है। ये पत्ती के ऊपरी पृष्ठ पर पीले रंग के होते हैं। अधिक आर्द्रता की उपस्थिति में इन भागों के नीचे पत्ती की निचली सतह पर मृदुरोमिल कवक की वृद्धि दिखाई देती है।

प्रबंधन
  • बोने के लिए रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।
  • सर्वथा प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें।
  • बीजों को कैप्टान नामक कवकनाशी से 2.5 ग्राम दवा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
  • मैंकोजेब 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी) घोल का छिड़काव करें।
  • खेत में बीमारी आने पर फेनामिडान + मैंकोजेब 0.3 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करें।
  • पूरी तरह रोग ग्रस्त लताओं को निकाल कर जला देना चाहिए।
चूर्णिला आसिता (powdery mildew)


इस रोग का प्रथम लक्षण पत्तियों और तनों की सतह पर सफेद या धुँधले धुसर धब्बों के रुप में दिखाई देता है। कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्णयुक्त हो जाते हैं। सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है। उग्र आक्रमण के कारण पौधे का असमय ही निष्पत्रण हो जाता है। इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता है।

प्रबंधन
  • खेत की स्वच्छता इस रोग की रोकथाम का प्रमुख उपाय है। रोग ग्रस्त फसल के अवशेष इकट्ठा करके खेत में ही जला देना चाहिए।
  • बोने के लिए रोग रोधी किस्मों का चयन करें।
  • फफूँद नाशक दवा जैसे-घुलनशील गंधक का 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर सात दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें।
  • कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. का 1.0 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर दस दिनों के अन्तराल में छिड़काव करें।
रुक्ष रोग (एन्थ्रेक्नोज) (Anthracnose)


यह कवक जनित रोग कोलेटोट्राइकम ओरवीकुलेर नामक कवक से होता है। लगभग सभी कद्दूवर्गीय सब्जियों की यह एक प्रमुख समस्या है। रोग के लक्षण सभी भागों पर देखे जाते हैं। पत्तियों पर इस रोग का लक्षण छोटे-छोटे जलसिक्त पीले धब्बें के रूप में शुरू होता है और बाद में बढ़ने पर ये धब्बे भूरे हो जाते हैं। धब्बों का मध्य भाग सूखने के बाद टूट कर गिर जाता है। तनों पर यह छोटे, लम्बे, जलीय एवं दबे हुए विक्षत के रूप में दिखता है जो बाद में वीजाणु बन जाने के बाद ईट के रंग का हो जाता है। पत्तियों पर भूरे अथवा हल्के रंग के धब्बे पाये जाते हैं। पत्तियों सिकुड़ कर सूख जाती हैं। ये धब्बे तने तथा फलों पर भी पाये जाते हैं। यह बीमारी खरीफ में अधिक आती है। दोनों बीमारी लगभग साथ ही आती हैं।

प्रबंधन
  • बीजों को कार्बेन्डाजिम की 2.5 ग्राम दवा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
  • खेत में रोग के लक्षण शुरु होने पर कार्बेन्डाजिम 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल 10 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।
  • रोग रोधी किस्मों को ही लगाना चाहिए तथा संकर किस्मों का प्रयोग कम करें।
  • फसल अवशेष को जला दें एवं खेत से जल निकास की व्यवस्था करें।
म्लानि रोग एवं जड़ सड़न रोग (wilt disease and root rot disease)


यह आमतौर पर खीरा तथा खरबूजा में पाया जाता है। बीज पत्र सड़ने लगता है। बीज पत्र तथा नवीन पत्तियाँ हल्के पीले होकर मरने लगती हैं। रोग ग्रसित पत्तियाँ एवं पूरा पौधा मुरझा जाता है। नई पौध का तना अन्दर की तरफ भूरा होकर सड़ जाता है। पौधे की जड़ भी सड़ जाती है जिसके कारण पौधा धीरे-धीरे सूख जाता है।

प्रबंधन
  • रोग ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर जला देना चाहिए।
  • बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम दवा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
  • धान एवं मक्का के साथ 4-5 साल तक का फसल चक्र अपनाना चाहिए।
  • खेत की गर्मी में जुताई करें तथा हरी खाद का प्रयोग करके ट्राइकोडरमा 5.0 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें।

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