जानिए मिर्च की फसल पर लगने वाले हानिकारक कीट एवं रोग के लक्षण और रोकथाम के उपाय

जानिए मिर्च की फसल पर लगने वाले हानिकारक कीट एवं रोग के लक्षण और रोकथाम के उपाय
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Kisaan Helpline

Crops Nov 26, 2022

Chilli Cultivation: मिर्च एक नगदी फसल है तथा हमारे भोजन का प्रमुख अंग है। स्वास्थ्य की दृष्टि से मिर्च में विटामिन 'ए' व 'सी' पाये जाते हैं। इसमें कुछ खनिज लवण भी होते हैं। भारत, मिर्च का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता और निर्यातक है। देश में आंध्र प्रदेश में गुंटूर कुल मिर्च का 30% उत्पादन करता है। भारत मिर्च का 75% नियत करता है। 20 से अधिक कोटों को प्रजातियां मिर्च के पत्तों और फलों पर हमला करती हैं। थ्रिप्स और माइट्स के गंभीर संक्रमण से पौधों को मृत्यु भी हो जाती है जिससे फसल की उपज प्रभावित होती है।

मिर्च की फसल पर विभिन्न प्रकार के नाशीकीटों एवं रोगों का प्रकोप होता है जिससे फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

प्रमुख कीट
1. फल बेधक : हेलीकोवर्पा आर्मीजेरा (लेपिडोप्टेरा : नोक्टुइडी)

                 सुंडी ग्रसित मिर्च

इस कीट की विकसित सूण्डी हरे रंग की होती है तथा दोनों किनारों पर हल्की पीली छोटी-छोटी धाारियाँ होती हैं। इस कीट की सूण्डी (लार्वा) फलों के अन्दर छेद करके फल के अन्दर के भाग को खाती हैं। यह सूण्डी कोमल शाखाओं, पत्तियों तथा फूलों को भी खाती है। इसके जीवन में 4 अवस्थाएँ होती हैं- अण्डा, सूण्डी, प्यूपा एवं पतंगा (प्रौढ़)। यह फल में छेद करके शरीर का आधा भाग अन्दर घुसाकर फल का गूदा खाती है, जिसके कारण फल खाने योग्य नहीं रहता है और सड़ जाता है।

2. चेंपा / मोयला (एफिड) :

               चेपा/मोयला ग्रसित पत्ती

एफिस स्पीसीज (हेमीप्टेरा : ऐफिडिडी) इस कीट के शिशु व वयस्क दोनों पौधों के मुलायम हिस्सों एवं पत्तियों की निचली सतहों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं। कीट पत्तियों पर शहद जैसा चिपचिपा पदार्थ भी छोड़ते हैं जो मक्खियों एवं चींटियों को आकर्षित करते हैं। इसके कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मंद पड़ जाती है व पौधों की बढ़वार रुक जाती है। यह कीट एक वर्ष में 12-14 पीढ़ियाँ पैदा करता है। चेंपा फसलों में विषाणु रोग भी फैलाता है। 

3. सफेद मक्खी : बेमिसिया टैबेकि (हेमीप्टेराः एलेयरोडिडी)

                 सफ़ेद मक्खी ग्रसित पत्तियां

इस कीट के अण्डाकार शिशु पत्तियों पर चिपके रहते हैं। प्रौढ़ का रंग सफेद से हल्का पीलापन लिए होता है। शिशु एवं प्रौढ़ पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं जिससे पत्तियाँ मुड़कर सूखने लगती हैं। ये शहद जैसे चिपचिपे पदार्थ का स्राव भी करते हैं जिससे पौधों में भोजन बनाने की क्षमता कम हो जाती है। यह कीट पत्ती मोड़क रोग को फैलाते हैं।

4. थ्रिप्स (पर्णजीवी) : थ्रिप्स टैबेकी (थाइसेनोप्टेरा : थ्रिपिडी)

                थ्रिप्स ग्रसित पत्तियां

ये कीट छोटे, पतले एवं हल्के भूरे रंग के रेंगते हुए पत्तियों की निचली सतह पर पाये जाते हैं। इनका प्रकोप/आक्रमण प्ररोह, फूलों एवं पत्तियों पर शुष्क मौसम में अधिक होता है, जिससे ग्रसित पौधों के भागों की संरचना बिगड़ जाती है व पत्तियाँ ऊपर की और मुड़ जाती हैं तथा पौधे छोटे रह जाते हैं।

5. लाल मकड़ी (रेड स्पाइडर माइट ):-- टेट्रानिकस अर्टिकी : टेट्रानिचिडी

                      लाल मकड़ी ग्रसित पत्तियां

यह आठ पैरों वाला छोटा, लाल, पीला जीव होता है जो पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसता है। इससे पत्तियाँ लाल भूरी दिखाई देती हैं। पत्तियाँ धीरे-धीरे मुड़कर, झुर्रीदार एवं अंत में टूटकर गिर जाती हैं।

प्रमुख रोग 
1. श्यामव्रण/ फल सड़न / शीर्ष मरण (डाईबैक) : (रोग कारक : कोलेटोट्राइकम कैप्सिकि )

           श्यामव्रण/ फल सड़न / शीर्ष मरण ग्रसित पौधा 

इस रोग से ग्रसित पौधों की टहनियाँ ऊपरी सिरे से नीचे की तरफ सूखने लगती हैं तथा फूल एवं फल सड़ने के साथ-साथ सूख कर झड़ने लगते हैं। पत्तियों व फलों पर गोल-गोल सिकुड़े हुए गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं जिनके ऊपर छोटे काले बिन्दु अधिक संख्या में दिखाई देते हैं। रोग की उग्र अवस्था में ऊपरी एवं बाहरी शाखाओं के साथ पूरा पौधा सूख जाता है।

2. पत्ती मोड़क (लीफकर्ल) :- (रोग कारकः टोबेको लीफ कर्ल वायरस)

                पत्ती मोड़क ग्रसित पौधा

               पत्ती मोड़क ग्रसित पत्तियाँ 

यह विषाणु (वायरस) जनित रोग, सफेद मक्खी द्वारा मिर्च में फैलता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियाँ ऊपर की तरफ मुड़कर गुच्छे का रूप ले लेती हैं। ग्रसित पौधों में बहुत कम मात्रा में फूल एवं फल लगते हैं। पौधों का माथा बंधकर झाड़ीनुमा हो जाता है।

3. पत्ती धब्बा (लीफ स्पॉट ): (रोग कारकः सर्कोस्पोरा कैप्सिकि)
इस रोग में पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं एवं पत्तियाँ, सूखकर झड़ जाती हैं। व फलों के ऊपर धब्बे बनने से फल सड़ने लगते हैं।

4. आर्द्रगलन / पादगलन (फुट रॉट ) :- ( रोग कारक : पिथियम स्पीसीज)
यह रोग पौधशाला (नर्सरी) में लगता है। इससे पौधा उगने से पहले ही मर जाता है या उगने के बाद पौधे की छोटी अवस्था में जमीन से जुड़े तने वाले हिस्से पर जलासिक्त धब्बे बनने से पौधे गलकर मरने लगते हैं। उग्र अवस्था में यह रोग पौधशाला में एक सिरे से शुरु होकर पौधशाला को पूर्ण रूप से नष्ट कर देता है।

5. जीवाणु झुलसा : (रोग कारक : अल्टरनेरिया कैप्सिकी)
रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर अनियमित आकार के जलासिक्त उभरे हुए धब्बे बनने लगते हैं। बाद में ये भूरे रंग के बाहरी किनारों के साथ पीले दिखाई देने लगते हैं। उग्र अवस्था में पत्तियाँ झुलस कर झड़ने लगती हैं तथा तने व फलों पर बड़े धब्बे बनकर खुरदरे दिखाई देते हैं और फलों को सड़ा देते हैं।

6 छाछ्या रोग (पाउडरी मिल्ड्यू) : (रोग कारक : ओइडिओप्सिस स्पीसीज)

                छाछ्या रोग ग्रसित पत्तियां

पत्तियों पर सफेद पाउडर रूप में धब्बे बनते हैं, इनके उग्र अवस्था में पूरे पौधे पर भूरे-सफेद धब्बे फैलने से पौधा बौना रह जाता है तथा पत्तियाँ व फूल झड़ जाते हैं। फल बहुत कम व छोटे आकार के बनते हैं।

कीट और रोग के रोकथाम के उपाय
  • फसल की कटाई के बाद तुरन्त खेत की गहरी जुताई करें।
  • फसल / पौधों के अवशेषों एवं रोगग्रसित पौधों को खेत से निकालकर नष्ट करें।
  • फसलचक्र अपनायें।
  • बुआई के लिए स्वस्थ एवं रोगरोधी बीजों का प्रयोग करें।
  • खेतों में प्रकाश पाश का उपयोग करें।
  • रस चूसक कीटों के नियंत्रण के लिए 2 चिपचिपे पाश (स्टिकी ट्रैप) प्रति एकड़ की दर से एवं नीम अर्क व का 5.0 प्रतिशत छिड़काव पौधा रोपण के 15-20 दिन के अन्तराल पर करें।
  • एजाडिरेक्टीन 1500 पी.पी.एम. का 12 मिली/लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। 
  • तम्बाकू की लट एवं फलछेदक के लिए अलग-अलग फैरोमोन ट्रैप 5 प्रति हैक्टर की दर से खेत में लगाएं।
  • अण्डा परजीवी, ट्राइकोग्रामा प्रजाति के 100,000 अंडे प्रति हैक्टर की दर से एक सप्ताह के अन्तराल पर खेत में 4-5 बार छोड़े। 
  • एच.ए.एन.पी.वी. का 250-500 एल.ई. प्रति हैक्टर की दर से 2-3 बार छिड़काव करें।
  • खेत में चिड़ियों को आकर्षित करने के लिए लकड़ी के टी आकार के डंडे लगाएं।
  • फसल को बीज एवं मृदाजनित फफूंदी रोगों से बचाने के लिए पौधे की जड़ों को ट्राइकोडर्मा पाउडर द्वारा बताई गयी विधि से उपचारित कर रोपाई करें। 
  • आर्द्रगलन के प्रबन्धन हेतु खेत में जल निकासी की उत्तम व्यवस्था करें तथा बीजों को ट्राइकोडर्मा पाउडर 8-10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें। ट्राइकोडर्मा पाउडर 5 किलोग्राम प्रति 100 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर बुआई से पूर्व मिट्टी में मिलाएं।
  • छाछ्या रोग के प्रबन्धन हेतु घुलनशील सल्फर चूर्ण 3 ग्राम प्रति लीटर या केराथेन 48 ई.सी. को 2 मिली/लीटर पानी में घोलकर 10-15 दिन के अन्तराल से छिड़काव करें।
  • जीवाणु झुलसा रोग के प्रबन्धन हेतु स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 300 मि.ली. ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 डब्ल्यू. पी. को 4 ग्राम/लीटर की दर से घोलकर 10 दिनों के अन्तराल से 3 छिड़काव करें।

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