दलहनी फसलों में मूँग की बहुमुखी भूमिका है। इसमें प्रोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मूंग के दानों में 25% प्रोटीन, 60% कार्बोहाइड्रेट, 13% वसा तथा अल्प मात्रा में विटामिन 'सी' पाया जाता हैं। इसमें विटामिन बी कॉम्प्लेक्स, कैल्शियम और पौटेशियम भरपूर मात्रा में होता है।
मूँग सभी मौसम में उगाई जाने वाली मुख्य दलहनी फसल है। इसे उत्तरी भारत में वर्षा ऋतु (खरीफ) तथा ग्रीष्म ऋतु (जायद) में, जबकि दक्षिणी भारत में इसे रबी के मौसम में उगाते हैं। लेकिन अधिकांश किसानों को ग्रीष्मकालीन (जायद) मूँग की खेती के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं होने के कारण जायद ऋतु में इसकी खेती कम की जाती है।
मूँग की वृद्धि व विकास के लिए शुष्क मौसम तथा उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है, इसलिए उत्तर भारत की ग्रीष्मकालीन जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। जायद मूँग की फसल 60-70 दिन में पककर तैयार हो जाने के कारण इसकी बुआई रबी फसल की कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में करने से अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है तथा खरीफ फसल की बुआई भी बिना किसी देरी के समय पर की जा सकती है। जायद में खरीफ के मौसम की तुलना में फसलों में रोग व कीटों का प्रकोप कम होता है। उत्तरी इलाकों मे चलने वाली तेज हवाओं से होने वाले वायु अपरदन को कम किया जा सकता है। इसके अलावा मूँग दलहनी फसल होने के कारण, इनकी जड़ों (गाठों) में राइजोबियम जीवाणु पाये जाते हैं, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके मृदा में पौधों के लिए उपलब्ध कराने में सहायक होते हैं। जिससे मृदा की उर्वरकता में वृद्धि होती है।
कैसे करें जायद मूँग की खेती
जलवायु एवं मृदा
जायद मूँग की फसल के लिए उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। इसकी खेती सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है, लेकिन समुचित जल तथा पी. एच. मान 7-8 वाली दोमट तथा बलुई दोमट मृदा सबसे उपयुक्त मानी जाती है। कुछ क्षेत्र, जैसे-पेटा कास्त वाला क्षेत्र, जलग्रहण वाले क्षेत्र एवं बलुई दोमट, काली तथा पीली मिट्टी जिसमें जलधारण की क्षमता अधिक होती है, वहां पर जायद मूँग की खेती करना अधिक लाभप्रद होता है।
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार
जायद में बीज की मात्रा 10-12 किग्रा./एकड़ लेना चाहिए। 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम या 2-3 ग्राम थीरम फफूंदनाशक दवा से प्रति किग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करने से बीज एवं भूमि जन्य बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है। इसके अतिरिक्त बीजों को सर्वप्रथम (5 ग्राम / किग्रा. बीज के हिसाब से ) राइजोबियम कल्चर फिर पी. एस. बी. कल्चर (5-6 ग्राम / किग्रा. बीज के हिसाब से ) तथा अंत में जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा 6-8 ग्राम / किग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। बीजों को राईजोबियम से उपचारित करने हेतु आधा लीटर पानी में 125 ग्राम गुड को घोलकर गर्म करें तथा ठंडा होने पर शाकाणु संवर्ध (कल्चर) मिला दें। इस मिश्रण की एक एकड़ में बोये जाने वाले बीजों पर भली- भांति परत चढ़ा दें व छाया में सुखाकर शीघ्र ही बुआई करें।
बुआई का समय एवं विधि
ग्रीष्मकालीन मूँग की बुआई रबी फसलों जैसे अरहर, गन्ना, सरसों, आलू तथा गेहूं की कटाई के बाद 15 मार्च से 15 अप्रैल तक करनी चाहिए। बीज अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी बनी रहे इसके लिए बुआई से पहले पलेवा सिंचाई करते हैं। बीज की बुआई में कतार से कतार की दूरी 25 से 30 सेंटीमीटर तथा कूंड में 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई पर करनी चाहिए, जिससे की गर्मी में जमाव अच्छा हो सके।
खाद व उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के बाद मिट्टी की जरूरत के अनुसार ही करना चाहिए। सामान्यतः मूँग की फसल के लिए 10 से 15 किग्रा. नाइट्रोजन, 40 किग्रा. फॉस्फोरस, 20 किग्रा. पोटाश और 20 किग्रा. सल्फर / हेक्टेयर के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए। इन सभी उर्वरकों की पूरी मात्रा बुआई के समय कूड़ो में बीज से 2 से 3 सेंटीमीटर नीचे देने से अच्छी पैदावार मिलती है।
जायद मूँग की किस्में
जायद में उत्पादन हेतु पी. डी. एम. 11, पी.डी.एम. 139 (सम्राट), पूसा विशाल (विषाणु जनित पीली चित्ती रोग से प्रतिरोधी), आई.पी. एम. 2-3, आई.पी.एम. 205-07, आई.पी.एम. 409-4, एच.यू.एम.- 16 तथा टी.एम.वी.-37 प्रजातियां उपयुक्त होती हैं। मूँग की कुछ प्रजातियाँ ऐसी भी हैं जो खरीफ और जायद दोनों में उत्पादन देती हैं जैसे की पंत मूँग 2 (यह पीला मोजैक विषाणु रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी है), नरेन्द्र मूँग 1 (पीला मोजेक प्रतिरोधी), मालवीय ज्योति, सम्राट, मालवीय जाग्रति, यह प्रजातियां दोनों मौसम में उगाई जा सकती हैं। जायद मे कम अवधि में पकने वाली उन्नत किस्मों की बुआई करनी चाहिए ताकि फली अवस्था पर बारिश के शुरुआत से होने वाले नुकसान को बचाया जा सके तथा सिंचाई की भी कम आवश्यकता पड़े।
सिंचाई
जायद मूँग की फसल में पहली सिंचाई, बुआई के 20 से 25 दिन बाद और बाद में हर 10 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए, जिससे अच्छी पैदावार मिल सके।
निराई व गुड़ाई
बुआई के 30 से 35 दिन बाद निराई- गुड़ाई करनी चाहिए, जिससे खरपतवार नष्ट होने के साथ-साथ मृदा में वायु का संचार बढता है जो की मूलग्रंथियों में क्रियाशील जीवाणु द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन एकत्रित करने में सहायक होती है। खरपतवार का रासायनिक नियंत्रण जैसे कि पेंडामेथालिन 30 ई.सी. की 3 लीटर अथवा एलाकोलोर 50 ई.सी. 3 लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 2 से 3 दिन के अंदर बीज अंकरण से पहले प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
फसल संरक्षण
मूँग की फसल में यदि मोयला, हरा तैला या फली छेदक का प्रकोप हो तो अजाडीरेक्टिन 0.03 प्रतिशत ई.सी. 1.5 लीटर या अज़ाडीरेक्टिन 0.03 प्रतिशत ई.सी. 750 मिलीलीटर 300 मिलीलीटर / हेक्टेयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
फसल संरक्षण
मूँग की फसल में यदि मोयला, हरा तैला या फली छेदक का प्रकोप तो अज़ाडीरेक्टिन 0.03 प्रतिशत ई.सी. 1.5 लीटर या अज़ाडीरेक्टिन 0.03 प्रतिशत ई.सी. 750 मिलीलीटर 300 मिलीलीटर / हेक्टेयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
- मूँग में चित्ती जीवाणु रोग का प्रकोप होने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 20 ग्राम तथा सवा किग्रा. कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
- मूँग में पीत शिरा मोज़ेक रोग होने पर रोगग्रसित पौधों को उखाड़ दें एवं डायमिथोएट 30 ई.सी. एक लीटर दवा को 300 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। आवश्यक हो तो 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव दोहराए।
- छाछ्या रोग की रोकथाम हेतु प्रति हेक्टेयर ढाई किग्रा. घुलनशील गंधक अथवा एक लीटर कैराथियॉन (0.1 प्रतिशत) के घोल का पहला छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही एवं दूसरा छिड़काव 10 दिन के अंतर पर करें।
- पीलिया रोग के लक्षण दिखाई देते ही 0.1 प्रतिशत गंधक के तेजाब या 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट का पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
फसल कटाई- मड़ाई
जब फसल में अधिकांश फलियां पकने लग जाएं अर्थात काली पड़ने लग जाएं तभी कटाई करनी चाहिए। कुछ क़िस्मों में फलियां एक नहीं पकती हैं, तो उन किस्मों में आवश्यकतानुसार फलियों को हाथों से तोड़ना चाहिए। फलियों को कटाई या तुड़ाई करने के बाद खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर मड़ाई करना चाहिए। इसके पश्चात ओसाई करके बीज और इसका भूसा अलग-अलग कर लेना चाहिए।
पैदावार
इस प्रकार जायद में उन्नत कृषि तकनीक अपनाकर 10-15 क्विंटल / हैक्टर मूँग की उपज प्राप्त की जा सकती है।
ग्रीष्मकालीन (जायद) मूँग की खेती के लाभ
- जायद के मौसम में मूँग की फसल उगाकर खेत को खाली छोड़ने की बजाय अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है।
- मूँग की फसल के अवशेषों में कार्बन एंव नाइट्रोजन अनुपात कम होने के कारण ये सूक्ष्मजीवों द्वारा कम समय पर आसानी से विघटित कर दी जाती है, जिसके कारण ये मृदा में नाइट्रोजन एवं कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाने में सहायक होती हैं।
- मूँग की जड़ों में ग्लोमेलिन प्रोटीन पायी जाती है जो कि गोंद की तरह मृदा कणों को स्थिरता प्रदान करती है, मृदा संरचना में सुधार होता है तथा मृदा जल संचयन में वृद्धि एंव मृदा अपरदन में कमी होती है।
- सामान्यदतः मूँग की फसलों को कम पानी की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, ये फसलें अपनी पत्तियों से भूमि की ऊपरी सतह को ढक लेती हैं जिससे भूमि की सतह से पानी का वाष्पीकरण कम होता है।
- लगातार अनाज वाली फसलों को उगाने से उन पर लगने वाले कीट एंव बीमारियों का प्रकोप अधिक होने लगता है। सामान्यतः अनाज वाली फसलों पर लगने वाले कीट एंव बीमारियों का प्रकोप दलहनी फसलों पर नहीं होता है क्योंकि कीट एवं व्याधियों के रोगजनकों को जीवनचक्र पूरा करने के लिए उचित माध्यम नहीं मिल पाता है इसलिए इन फसलों को फसल चक्र में शामिल करने से कीट व बीमारियों के निवारण में सहायता मिलती है।