देश की खाद्यान्न सुरक्षा में गेहूं का महत्वपूर्ण योगदान है। गेहूं की फसल में अनेक रोग लगते हैं जिनमें गेरुई ( रतुआ) : धारीदार, पर्ण एवं तना गेरूआ, पर्ण, झुलसा, श्लथ कंड एवं करनाल बंट आर्थिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण हैं। चूर्णी फफूंद, हैड स्कैब, हिल बंट, एवं ध्वज- कंड का महत्व क्षेत्रीय स्तर पर है। यद्यपि तीनों ही प्रकार के रतुआ रोग हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में गेहूं के उत्पादन को प्रभावित करते हैं किंतु विगत वर्षों में पट्टी या पीला रतुआ विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के साथ-साथ उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में अनुकूल वातावरण (कम तापमान और उच्च नमी) होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण हो गया है तथा इन क्षेत्रों के लिए एक संभावित खतरा बना हुआ है। पीला रतुआ रोग, तना तथा पत्ती रतुआ से अधिक विनाशकारी सिद्ध हुआ है।
गेहूं के कुछ मुख्य रोगों के लक्षण एवं नियंत्रण का विवरण नीचे दिया गया है।
रतुआ
गेहूं की फसल को जैविक कारकों द्वारा काफी नुकसान पहुंचाया जाता है। गेहूं की फसल को दुष्प्रभावित करने वाले विभिन्न जैविक कारकों में, रतुआ रोग जो एक कवक द्वारा होता है, सबसे अधिक विनाशकारी तथा ऐतिहासिक महामारी के कारण के लिए महत्वपूर्ण है। रतुआ से होने वाली क्षति को कम कर गेहूं के उत्पादने को बढ़ाया जा सकता है। हमारे देश में तीन अलग तरह के रतु, पट्टी या पीला रतुआ, पत्ती या भूरा रतुआ एवं तना या काला रतुआ, गेहूं में रोग उत्पन्न करते हैं। इ तीनो तुओं का महत्व क्षेत्र विशेष पर आधारित होता है।
पीला / धारीदार रतुआ
यद्यपि तीनों ही प्रकार के रतु, हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में में रोग करते हैं किंतु विगत वर्षों में पट्टी या पीला रतुआ, विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के साथ-साथ उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में, अनुकूल वातावरण (कम तापमान और उच्च नमी) मिलने के कारण अधिक महत्वपूर्ण हो गया है तथा इन क्षेत्रों के लिए एक संभावित खतरा बना हुआ है। पीला रतुआ रोग, तना तथा पत्ती रतुआ से अधिक विनाशकारी होता हैं। पीला रतुआ, संक्रमण और रोग लक्षण प्रकट होने के लिए कम तापमान पसंद करता है। इसलिए यह रोग दिसंबर एवं जनवरी के महीने में देश के उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों एवं पर्वतीय भागों में अधिक कोहरा एवं ठंड होने कारण उत्पन्न होता है तथा फसल को काफी हानि पहुंचाता हैं। जिससे उपज में भारी कमी आ सकती है।
पीला / धारीदार रतुआ
लक्षण एवं हानि
इस रोग के लक्षण पत्तियों की शिराओं के साथ-साथ चलने वाले धब्बों की पीले रंग की धारियों के रूप में दिखाई पड़ते है। पौधे के तने, पर्णाच्छद एवं बाली पर भी ऐसे धब्बे दिखाई पड़ सकते हैं। जिनमें पिसी हुई हल्दी जैसा पीला चूर्ण निकलता है। रोग से प्रभावित पत्तियां शीघ्र पककर सूख जाती है। इस रोग का प्रकोप अधिक ठंड और नमी वाले मौसम में बहुत ही अधिक होता है।
रोग प्रबंधन
- विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिए अनुमोदित पीला रतुआ रोगरोधी किस्मों का चुनाव करें।
- रतुआ निरोधक किस्में 4-5 वर्ष के बाद रोगग्राही बन जाती हैं। ऐसी स्थिति रतुआ कवकों में परिवर्तन होने पर आती है इसलिए नवीनतम सहनशील किस्मों को प्रयोग में लाएं।
- नाइट्रोजन प्रधान उर्वरकों की अत्यधिक मात्रा रतुआ रोगों को बढ़ाने में सहायक होती है। इसलिए उर्वरकों के संतुलित अनुपात में पोटाश की उचित मात्रा का प्रयोग करें।
- इस बीमारी के नियंत्रण के लिए प्रोपेकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी) के 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
भूरा रतुआ/पत्ती रतुआ
यह रोग भारत में जहां गेहूं बोया जाता है वहां देखने को मिलता है। पत्तियों पर फैले अंडाकार, भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
भूरा रतुआ/पत्ती रतुआ
लक्षण एवं हानि
पत्तियों पर चमकीले नारंगी रंग तथा आलपिन के सिर के समान (पिन हैड) धब्बें बनते हैं जो पत्तियों की सतह पर बिखरे रहते हैं तथा आपस में एक-दूसरे से मिले नहीं होते। इस रोग में धब्बों का आकार पीले रतुआ के धब्बों की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है। यह रोग पीले रतुआ की ' तुलना में अधिक गर्म मौसम सहने में समर्थ होता है।
रोग प्रबंधन
- भूरा रतुआ निरोधक किस्मों का चुनाव करें।
- प्रोपेकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी) के 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।
काला / तना रतुआ
इस रोग का प्रकोप मुख्य रूप से मध्य एवं दक्षिण में अधिक होता है। यह रोग पत्तियों एवं तने पर गहरे भूरे रंग के लंबे धब्बों के रूप में आता है। पौधे की बाली पर भी धब्बें उत्पन्न हो सकते हैं। काले रतुए का उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में प्रकोप बहुत कम व कहीं- कहीं दिखाई देता है।
काला / तना रतुआ
लक्षण एवं हानि
इस रोग का प्रकोप तापमान बढ़ने पर पीले तथा भूरे रतुआ के बाद शुरू होता है। गहरे भूरे काले रंग के धब्बे तने, पत्तों और पत्तों के आवरणों पर दिखाई देते हैं जो बाद में फट जाते हैं। रोग की उग्र अवस्था में पौधों का आकार घट जाता है।
रोग प्रबंधन
- अनुमोदित किस्में लगाएं।
- फसल में बीमारी का पहला लक्षण प्रकट होते ही टिल्ट 25 ई.सी. के 0.1 प्रतिशत घोल (1 मि.ली./लीटर पानी) का छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर करें।
कंडवा रोग/खुली कंगियारी
इस कंडवा रोग का प्रकोप गेहूं की फसल में समस्त देश में पाया जाता है। इसका प्रभाव आद्रता एवं अर्ध आद्रता वाले क्षेत्रों में अधिक होता है। इससे होने वाली हानि प्रति वर्ष कम या अधिक होती रहती है। उत्तरी भारत में वातावरण परिस्थितियां अनूकूल होने के कारण इस रोग का प्रभाव अधिक पाया जाता है।
कंडवा रोग/खुली कंगियारी
लक्षण एवं हानि
इस रोग के लक्षण बाली निकलने के बाद ही दिखाई देते हैं इस रोग से प्रभावित पौधों का संपूर्ण पुष्पक्रम, कवक में क्लेमाइडोस्पार्स से बने काले चूर्ण में परिवर्तित हो जाता है जिससे रोग ग्रसित पौधे काली बालियां पैदा करते हैं। रोगी पौधों की बालियां काले चूर्ण का रूप ले लेती हैं और उनमें दानें नहीं बनते हैं। बाद में काला चूर्ण हवा में उड़ जाता है और केवल डंडी रह जाती है। कभी- कभी ऐसी बालियां भी बनती हैं, जो केवल आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाती हैं।
रोग प्रबंधन
- बुवाई से पहले बीज का उपचार फफूंद ना रसायन जैसे वाइटावैक्स अथवा बाविस्टिन 50 डब्ल्यू पी 2.5 ग्रा. अथवा रेक्सीन 0.1 ग्राम / कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।
- रोग ग्रस्त बालियों को निकाल कर खेत से दूर मिट्टी में दबा दें।
पहाड़ी बंट
पहाड़ी बंट
लक्षण एवं हानि
रोगग्रस्त पौधों की बालियों के दानों से काला चिपचिपा लेई सा पदार्थ निकलता है। दाने पकने पर काला पदार्थ चूर्ण में बदल जाता है। रोगी दानों से प्रायः सड़ी मछली जैसी दुर्गंध आती है जिसमें इस रोग की आसानी से पहचान हो जाती है। रोगी बालियां देखने में खुली-खुली दिखाई पड़ती हैं।
रोग प्रबंधन
- स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग करें।
- बीज को वाइटावैक्स अथवा बाविस्टिन की 2.5 ग्राम मात्रा/कि.ग्रा. बीज को उपचारित करने के लिए पर्याप्त होती है।
करनाल बंट
करनाल बंट का प्रकोप भारत में हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, जम्मू, मध्य-प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बंगाल में पाया जाता है।
करनाल बंट
लक्षण एवं हानि
इस रोग में गहाई के बाद निकले दानों में बीज की दरार के साथ-साथ गहरे भूरे रंग के बीजाणु समूह देखे जा सकते हैं। रोगग्रस्त दाने आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाते हैं। संक्रमित गेहूं के बीज से सड़ी हुई मछली की बदबू आती है। संक्रमण अधिक गंभीर होने पर पूरा दाना खोखला हो जाता है।
रोग प्रबंधन
- रोग सहिष्णु किस्मों का प्रयोग करें।
- स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। गेहूं की फसल में ट्राइकोडर्मा विरिडी 5 ग्रा./लीटर पानी की दर से पहला छिड़काव झड़े पत्ते की अवस्था में तथा दूसरा छिड़काव टिल्ट 25 ई. सी. 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव 50 प्रतिशत बालियां निकलने पर करें।
ध्वज कंड
इस रोग के लक्षण पत्तियों पर चांदी के रंग के, लंबे बीजाणुधानी पुंजों के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो कवक के गहरे भूरे रंग के बीजाणुओं से भरे होते हैं। संक्रमित पौधे बौने रह जाते हैं, और उन पर बालियां विकसित नहीं होती हैं और वे समय से पहले ही मर जाते हैं।
रोग प्रबंधन
- बुआई के पहले बीजों को 0.25 प्रतिशत कार्बोक्सिन वीटावैक्स (75 डब्ल्यू पी) से उपचारित करें।
- जिन किस्मों में यह ध्वज कंड रोग देखा गया हो उनकी बुआई न करें।
- रोगप्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।
- रोगग्रस्त पौधों को निकाल कर खेत से दूर मिट्टी में मिला दें।
चूर्णिल आसिता
लक्षण एवं हानि
इस रोग में पत्तियों पर बहुत छोटे, गहरे भूरे रंग के पीले प्रभामंडल से घिरे धब्बे बनते हैं जो बाद में परस्पर मिलकर पर्ण झुलसा उत्पन्न करते हैं। अनुकूल अवस्था में इस प्रकार का चूर्ण समूह तने और बालियों पर भी दिखाई देते हैं। संक्रमित पत्तियां जल्दी ही सूख जाती हैं और पूरा खेत दूर से झुलसा हुआ दिखाई पड़ता हैं। संक्रमित बाली में भूरे धब्बे वाले दाने होते हैं।
रोग प्रबंधन
- फसल पर रोग के लक्षण प्रतीत होने पर बाविस्टीन नामक दवाई के 0.1 प्रतिशत (1 ग्राम / लीटर पानी) घोल का 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।