धान की फसल को बहुत से रोग बहुत अधिक प्रभावित करते है। लेकिन इनमें जीवाणु, विषाणु और कवकजनित रोग ज्यादा खतरनाक होते है। धान में लगभग 30 रोग केवल कवकजनित है। फसलों की पैदावार तथा आर्थिक क्षति के दृष्टिकोण से वर्तमान समय में हमारे देश में मुख्य रूप से ब्लास्ट, ब्रॉउन स्पॉट, स्टेम रॉट, शिथ ब्लाइट, तथा फुट रॉट काफी महत्वपूर्ण है, तो आइये जानते है इन रोगों बारे में महत्वपूर्ण जानकारी और उपचार के बारे में
पत्ती का झुलसा रोग
पौधे की छोटी अवस्था से लेकर परिपक्व अवस्था तक यह रोग कभी भी हो सकता है। पत्तियों में किनारे ऊपरी भाग से शुरू होकर मध्य भाग तक सूखने लगते हैं। सूखे पत्ते के साथ-साथ राख के रंग के चकत्ते भी दिखाई देते हैं। बालियां दानारहित रह जाती हैं।
उपचार
- नियंत्रण के लिए 74 ग्राम एग्रीमाइसीन 100 और 500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (फाइटोलान ) /ब्लाइटॉक्स-50 /क्यूप्राविट का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर/ हैक्टर की दर से 3-4 बार 10 दिनों के अंतराल से छिड़काव करें।
- ट्रेप्टोमाइसीन/ एग्रीमाइसीन से बीज को उपचारित करके बोएं।
- इस रोग के लगने पर नाइट्रोजन की मात्रा कम कर देनी चाहिए।
ब्लास्ट या झोंका
यह रोग फफूंद से फैलता है। पौधे के सभी भाग इस रोग जुलाई के प्रथम पखवाड़े में रोपाई पूरी कर लें। देर से रोपाई करने पर झोंका से प्रभावित होते हैं। इस रोग में पत्तियों पर भूरे धब्बे, रोग लगने की आशंका बढ़ जाती है। कत्थई रंग एवं बीच वाला भाग राख का रंग का हो जाता है। फलस्वरूप बाली आधार से मुड़कर लटक जाती है एवं दाने का भराव भी पूरा नहीं हो पाता है।
उपचार
- जुलाई के प्रथम पखवाड़े में रोपाई पूरी लें। देर से रोपाई करने से ब्लास्ट या झोंका रोग लगने की आशंका बढ़ जाती है।
- बीज का कार्बेन्डाजिम एवं थीरम (1:1) 3 ग्राम / कि.ग्रा. या फंगोरीन 6 ग्राम/ कि.ग्रा. की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
- नियंत्रण के लिए कार्बेन्डाजिम (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 500 ग्राम या 500 ग्राम ट्राइसायक्लेजोल या एडीफेनफॉस (50 प्रतिशत ई.सी.) 500 मि.ली. या हेक्साकोनाजोल (5.0 प्रतिशत ई.सी.) 1.0 लीटर या मैंकोजेव (75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 2.0 कि.ग्रा. या जिनेव ( 75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 2.0 कि.ग्रा. या कार्बेन्डाजिम (12 प्रतिशत) मैंकोजेब (63 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 750 ग्राम या आइसोप्रोथपलीन (40 प्रतिशत ई.सी.) 750 मि.ली. या कासूगामाइसिन (3) प्रतिशत एम.एल.) 1.15 लीटर दवा 500-750 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें।
- कार्बेन्डाजिम का 0.1 प्रतिशत की दर से दूसरा छिड़काव कल्ले फूटते समय, तीसरा छिड़काव बालियां निकलते समय और ग्रीवा संक्रमण रोकने के लिए। करना चाहिए।
झुलसा या जीवाणु पर्ण अंगमारी रोग
यह रोग जीवाणु द्वारा होता है। पौधों की छोटी अवस्था से लेकर परिपक्व अवस्था तक यह रोग कभी भी हो सकता है। इस रोग में पत्तियों के किनारे ऊपरी भाग से शुरू होकर मध्य भाग तक सूखने लगते हैं। सूखे पीले पत्तों के साथ-साथ राख के रंग के चकत्ते भी दिखाई देते हैं। पत्तों पर जीवाणु के रिसाव से छोटी-छोटी बूंदें नजर आती हैं तथा पौधों में शिथिलता आ जाती है। अंततः बालियां दानों से रहित रह जाती हैं।
उपचार
- इस रोग के लगने की अवस्था में नाइट्रोजन का प्रयोग कम कर दें।
- जिस खेत में रोग लगा हो उसका पानी दूसरे खेत में न जाने दें। इससे रोग के फैलने की आशंका होती है।
- खेत में रोग को फैलने से रोकने के लिए खेत से समुचित जल निकास की व्यवस्था की जाए तो रोग को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
- रोग के नियंत्रण के लिए 74 ग्राम एग्रीमाइसीन-100 और 500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (फाइटोलान/ ब्लाइटॉक्स-50/ क्यूप्राविट) का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टर की दर से तीन-चार बार छिड़काव करें। पहला छिड़काव रोग प्रकट होने पर तथा आवश्यकतानुसार 10 दिनों के अंतराल पर करें।
- नियंत्रण के लिए 15 ग्राम स्ट्रेप्टोमाइसिन सल्फेट (90 प्रतिशत) या 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या टेट्रासाक्लिन हाइड्रोक्लोराइड 10 प्रतिशत को 500 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) के साथ मिलाकर प्रति हैक्टर 500-750 लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिनों के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करना चाहिए।
- फसलों में इस रोग से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधी प्रजातियों जैसे अजय, आईआर-42, आईआर 64 तथा स्वर्णा इत्यादि की खेती काफी सर्वोत्तम तरीका है।
गुतान झुलसा (शीथ ब्लाइट)
यह रोग फफूंद द्वारा होता है। पत्ती की शीथ पर 2-3 सें.मी. लंबे हरे से भूरे रंग के घब्बे पड़ते हैं जोकि बाद में चलकर भूरे के रंग के हो जाते हैं। धब्बों के चारों तरफ | बैंगनी रंग की पतली धारी बन जाती है।
उपचार
- ट्राइकोडर्मा विरिडी 1 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. 5-10 ग्राम प्रति लीटर पानी (2.5 कि.ग्रा.) 500 लीटर पानी में घोलकर पर्णीय छिड़काव।
- नियंत्रण के लिए कार्बेन्डाजिम (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 500 ग्राम या थायोफिनेट मिथाइल (70 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 1.0 कि.ग्रा. कार्बेन्डाजिम (50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 500 ग्राम या कार्बेन्डाजिम (12 प्रतिशत) + मैंकोजेब (63 प्रतिशत डब्ल्यू.पी.) 750 ग्राम या प्रोपिकोनाजोल (25 प्रतिशत ई.सी.) 500 मि.ली. या हेक्साकोनाजोल (5.0 प्रतिशत ई.सी.) 1.0 लीटर दवा 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से पर्णीय छिड़काव करें।
- रोगरोधी किस्में- कृष्णा सीआर 44-11 साकेत- 1. पंकज, मानसरोवर आदि।
बकानी रोग
बकानी रोग के लक्षणों में प्राथमिक पत्तियों का दुर्बल तथा असामान्य रूप से लंबा होना है। फसल की परिपक्वता के समीप होने के समय संक्रमित पौधे, फसल के सामान्य स्तर से काफी ऊपर निकले हुए, हल्के हरे रंग के ध्वज-पत्रयुक्त लंबे टिलर्स दर्शाते हैं। संक्रमित पौधे में टिलर्स की संख्या प्रायः कम होती है और कुछ सप्ताह के भीतर ही नीचे से ऊपर की ओर एक के बाद दूसरी सभी पत्तियां सूख जाती हैं। संक्रमित पौधे की जड़ें सड़कर काली हो जाती हैं और उनमें दुर्गंध आने लगती है।
उपचार
- नियंत्रण के लिए कवकनाशियों के साथ बीजोपचार की संस्तुति की जाती है।
- कार्बेन्डाजिम के 0.1 प्रतिशत (1 ग्राम/लीटर पानी) घोल में बीजों को 24 घंटे भिगोयें तथा अंकुरित करके नर्सरी में बिजाई करें। रोपाई से पहले पौध का 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल में 12 घन्टे तक उपचार भी प्रभावी पाया गया है।
खैरा रोग
निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवा धब्बे उभरने लगते हैं। पौधों की वृद्धि रुक जाती है।
उपचार
25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर की दर से रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए। रोकथाम के लिए 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. चूना 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर का छिड़काव करें।