Gilki Ki Kheti : गिलकी अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं पौष्टिक गुणों से भरपूर सब्जी फसल है। इसमें विटामिन 'सी', जिंक, आयरन, राइबोफ्लेविन, थायमीन, फॉस्फोरस और फाइबर पाया जाता है। इसके अलावा इसमें अधिक वसा, कोलेस्ट्रॉल और कैलोरी पाई जाती है। ये वजन कम करने में मदद करते हैं। इसके अलावा यह कई रोगों से निजात दिलाती है। चिकनी तोरई की खेती देश के लगभग सभी राज्यों में सफलतापूर्वक की जाती है। इसके कोमल मुलायम फलों को सख्ती के उपयोग में लाया जाता है। इसकी तासीर ठंडी होती है, साथ ही सूखे बीजों से तेल भी निकाला जाता है।
गिलकी की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती खरीफ एवं जायद दोनों ऋतुओं में सफलतापूर्वक की जाती है। गिलकी की खेती के लिए 35-38 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम माना जाता है। इसकी खेती उचित जल निकास वाली जीवांशयुक्त सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट या दोमट मृदा, जिसका पी-एच मान 6-7 हो, उपयुक्त मानी जाती है।
खाद एवं उर्वरक
गिलकी की अच्छी पैदावार के लिए 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद के अतिरिक्त 30-40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 20-25 कि.ग्रा. फॉस्फोरस तथा 20-25 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय खेत में डालते हैं। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा बुआई के 25-30 दिनों बाद ट्रॉप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।
बुआई का समय
खरीफ फसल की बुआई जून-जुलाई में एवं जायद फसल की बुआई फरवरी-मार्च में की जाती है।
बीज मात्रा
गिलकी की बुआई के लिए प्रति हैक्टर 5-7 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है।
बुआई विधि
बुआई के लिए नाली विधि सबसे सर्वोत्तम मानी जाती है। इस विधि में खेत की तैयारी के बाद 2.5-3.0 मीटर की दूरी पर 45 सें.मी. चौड़ी तथा 30-40 सें.मी. गहरी नालियां बना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारों पर 50 सें.मी. की दूरी पर बीज की बुआई करते हैं। एक जगह दो बीज लगाने चाहिए तथा बीज जमने के बाद एक पौधा सावधानीपूर्वक निकाल देना चाहिए।
सिंचाई
गिलकी की वर्षाकालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा न होने की स्थिति में यदि खेत में नमी की कमी हो, तो सिंचाई कर देनी चाहिए। जायद फसल की पैदावार सिंचाई पर निर्भर करती है। गर्मियों में 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
खेत को खरपतवारमुक्त रखने के लिए निराई व गुड़ाई समय-समय पर करते रहना चाहिए।
तुड़ाई एवं भण्डारण
फलों की तुड़ाई हमेशा मुलायम अवस्था में करनी चाहिए। देर से तुड़ाई करने पर उसमें कड़े रेशे बन जाते हैं। फलों की तुड़ाई 6-8 दिनों के अंतराल पर करते रहना चाहिए। पूरे फसलकाल में लगभग 7-8 तुड़ाइयां की जा सकती हैं। फलों की तुड़ाई के बाद इन्हें ताजा रखने के लिए ठण्डे छायादार स्थानों का चयन करना चाहिए। फलों को ताजा बनाये रखने के लिए बीच-बीच में उन पर पानी का छिड़काव भी करते रहना चाहिए।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
डाउनी मिल्ड्यू
यह रोग स्यूडोपेरान्स्पोरा क्यूबेन्सिस नामक फफूंद के कारण होता है। अधिक नमी वाले क्षेत्रों में इसका प्रकोप ज्यादा होता है। लगातार ग्रीष्मकालीन वर्षा के समय इसके द्वारा होने वाला संक्रमण अधिक होता है। इस रोग के लक्षण में पत्तियों की ऊपरी सतह पर कोणीय पीले धब्बे बनते हैं, जो आगे चलकर पत्तियों की निचली सतह पर फैल जाते हैं और पत्तियां सूखकर गिर जाती हैं।
नियंत्रणः रोगग्रसित पत्तियों को तोड़कर मृदा में दबा देना चाहिए। रोग के संक्रमण के समय मैन्कोजेब के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। अधिक संक्रमण के समय मेटालाक्सिल 8 प्रतिशत मैन्कोजेब 64 प्रतिशत के 2.5-3.0 ग्रा. प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
पाउडरी मिल्ड्यू
इस रोग का कारक स्फेरोथिका फुलजीनिया एवं एरीसाइफी साइकोरेसीरम फफूंद है इस फफूंद का संक्रमण सफेद से ग्रे पाउडर के रूप में पौधों के सभी भागों पर होता है। गम्भीर रूप से संक्रमित पत्तियां भूरे रंग की होकर सड़ जाती हैं तथा लताएं मर जाती हैं।
नियंत्रणः पौधों के संक्रमित भाग को अलग कर देना चाहिए। बाविस्टिन/कार्बेन्डाजिम से 2.0-2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बुआई करनी चाहिए।
फ्यूजेरियम उकठा रोग
पौधों का मुरझाना. गोंदीय पदार्थ का निकलना, तने के संवहन व ऊतकों का भूरा पड़ जाना आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
नियंत्रणः कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत या कार्बेन्डाजिम मैंकोजेब 0.25 प्रतिशत घोल + बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
गिलकी का पीला मोजेक
यह एक विषाणुजनित रोग है। इसके कारण कभी-कभी फसल में 100 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है। इस रोग का लक्षण पौधों की नई पत्तियों पर पीले धब्बे के रूप में दिखाई देता है। गम्भीर संक्रमण के समय पौधों की पत्तियां छोटी चित्तीदार हो जाती हैं तथा फल अनियमित आकार के हो जाते हैं। इस रोग का विषाणु सफेद मक्खी द्वारा फैलता है।
नियंत्रण: इस सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली./लीटर पानी के घोल का छिड़काव किया जा सकता है।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
कद्दू का लाल कीट
इस कीट के प्रौढ़ व सूडियां दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाती हैं। इसके प्रौढ़ कीट छोटे पौधों की कोमल पत्तियों को खा जाते हैं, जिससे पौधे पत्तीरहित हो जाते हैं। इसकी सूंडियां जमीन के नीचे पौधों की जड़ों एवं तनों में छेद कर देती हैं। इससे पौधे मर जाते हैं।
नियंत्रण: डाइक्लोरवास 76 ई.सी. के 1.0-1.5 मि.ली. /लीटर पानी के घोल का बीजपत्रीय अवस्था में छिड़काव कर नियंत्रण किया जा सकता है।
सफेद मक्खी
ये कौट पौधों का रस चूसते हैं तथा पत्तियों पर इनके द्वारा विसर्जित मल द्वारा काले कज्जली मोल्ड्स विकसित हो जाते हैं। इससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं हो पाती है। इसके अतिरिक्त ये पोला मोजेक रोग के विषाणु को भी एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलाते हैं।
नियंत्रणः बोज को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू. पो. 2.5 मि.ली./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बुआई करें। फसल की बुआई से लगभग 18-20 दिनों पूर्व खेत के चारों ओर दो पंक्ति बाजरा की फसल को बार्डर फसल के रूप में उगायें। संक्रमण के समय इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल./ 0.4 मि.ली. / लीटर घोल का 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करने से उपरोक्त कीट को नियंत्रित किया जा सकता है।
लीफ माइनर
इसके लावां पत्तियों में सुरंग बनाकर क्लोरोफिल को खाते हैं, जिसके कारण प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है।
नियंत्रणः इसे 4 प्रतिशत नीम की गिरी के अर्क का छिड़काव करने से नियंत्रित किया जा सकता है।
फल मक्खी
ये कीट चिकनी तोरई को अधिक क्षति पहुंचाते हैं। वयस्क मक्खियां मुलायम फलों के छिलके में छेदकर अण्डा देती हैं, जो फल को अन्दर से खाकर सड़ा देते हैं। ग्रीष्मकालीन वर्षा के समय अधिक आर्द्रता होने पर इनका संक्रमण ज्यादा होता हैं।
नियंत्रण: गहरी ग्रीष्मकालीन जुताई कर प्यूपा को नष्ट करें। खेत में 10-12 मीटर की दूरी पर मक्का की फसल उगायें। खेत से संक्रमित फलों को इकट्ठा कर जमीन में गाड़कर नष्ट कर दें। इसकी रोकथाम के लिए 4 प्रतिशत नीम की गिरी के अर्क का छिड़काव किया जा सकता है।