गेहूँ एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। गेहूँ के उत्पादन में भारत देश का महत्वपूर्ण स्थान है, देश के लगभग सभी राज्यों में किसान गेहूँ की खेती करते हैं। फरवरी माह में गेहूँ का अच्छा फुटाव शुरू हो जाता है तथा बालियाँ आने लगती हैं। पीला रतुआ भी इसी दौरान लग जाता है। इस रोग की चपेट में आने से फसल पूरी तरह नष्ट हो सकती है। इसलिए इससे बचने के लिए विशेष सावधानियों की जरूरत होती है। यदि शुरुआत में ही रोग नजर आ जाए और छिड़काव कर दिया जाए तो फसल को बचाया जा सकता है। नहीं तो यह पूरे आसपास के इलाके में फैल जाता है।
पीला रतुआ रोग के लक्षण
पीला रतुआ रोग के लक्षण जनवरी के अन्तिम सप्ताह या फरवरी के प्रारम्भ में पत्तियों पर पिन के सिर जैसे छोटे-छोटे, अण्डाकार, चमकीले पीले रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो पत्ती की शिराओं के बीच में पंक्तियों में होने से पीले रंग की धारी बनाते हैं। बाद में पत्ती की बाह्य त्वचा के नीचे काले रंग के टीलियम रेखाओं के रूप में बनते हैं, जो चपटी काली पपड़ी द्वारा ढके रहते हैं। रोग ग्रसित पौधों की पत्तियां सूख जाती हैं।
पीला रतुआ रोग के रोकथाम के उपाय
इस रोग की रोकथाम के लिए जैसे - एच.डी. 3086, एच.डी. 2967, डब्ल्यू.एच. 1105 डब्ल्यू. एच. 542, डी.बी.डब्ल्यू. 88. डी. पी. डब्ल्यू. 621-50 (समय से बुआई), एच.डी. 3059, डी.बी. डब्ल्यू. 16, डी.बी.डब्ल्यू. 71, डी.बी.डब्ल्यू. 90, डब्ल्यू.एच. 1124, डब्ल्यू. एच. 1021, पी.बी.डब्ल्यू. 590 (देर से बुआई) एवं एच.डी. 3043, पी.बी.डब्ल्यू. 396, पी.बी.डब्ल्यू. 644, डब्ल्यू.एच. 1080 (समय से बुआई-असिंचित) आदि अनुमोदित प्रजातियां ही उगायें।
इस रोग की रोकथाम के लिए खड़ी फसल में टिल्ट 25 ई.सी. (प्रॉपीकोनेजोल) या ट्राइडिमिफेन 25 डब्ल्यू.पी. या टैबूकेनेजेल 250 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घेल बनाकर छिड़काव करें। प्रति एकड़ के लिए 200 मि.ली. दवा 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।