जनवरी का महीना रबी मौसम में अधिक पैदावार लेने और कृषि कार्यों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस महीने में अधिकतर फसलें अपनी क्रांतिक बढ़वार की अवस्था में होती हैं। इस समय तापमान में तीव्र गिरावट होने के कारण पाला, कोहरा एवं ओले की आशंका बनी रहती है। रबी फसलों का उत्पादन मृदा परीक्षण के आधार पर एकीकृत पोषक प्रबंधन, उचित जल एवं खरपतवार प्रबंधन पर ही निर्भर करता है। देर से बोई गयी गेहूं की फसल में क्रांतिक चंदेरी जड़ अवस्था में होती है, जिसके कारण सिंचाई आवश्यक हो जाती है।
गेहूं और जौ की खेती
नाइट्रोजन की शेष एक तिहाई मात्रा का छिड़काव करें। भारी मृदा में प्रति हैक्टर 132 कि.ग्रा. यूरिया की टॉप ड्रेसिंग पहली सिंचाई के 4-6 दिनों बाद और बलुई दोमट मृदा में 88 कि.ग्रा. यूरिया की टॉप ड्रेसिंग पहली सिंचाई तथा प्रति हैक्टर 88 कि.ग्रा. यूरिया की दूसरी टॉप ड्रेसिंग सिंचाई के बाद करें। मृदा जांच के आधार पर यदि बुआई के समय जिंक एवं लोहा नहीं डाला गया हो और पत्ती पर कमी के लक्षण खड़ी फसल में दिखाई दें तो 1.0 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 500 ग्राम बुझा हुआ चूना 200 लीटर पानी में घोलकर 2-3 छिडकाव 15 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए। इसी प्रकार मैंगनीज की कमी वाली मृदा में 1.0 कि.ग्रा. मैंगनीज सल्फेट को 200 लीटर पानी में घोलकर पहली सिंचाई के 2-3 दिनों पहले एवं आयरन सल्फेट के 0.5 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार एक सप्ताह के अंतर 2-3 छिड़काव की आवश्यकता होती है। छिड़काव साफ मौसम एवं खिली हुई धूप में ही करें।
गेहूं की फसल की सम्पूर्ण अवधि में लगभग 35-40 सें.मी. जल की आवश्यकता होती है। इसकी क्राउन (छत्रक) जड़ों तथा बालियों के निकलने की अवस्था में सिंचाई अति आवश्यक होती है, अन्यथा उपज पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। गेहूं के लिए सामान्यतः 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। भारी मृदा में 4 तथा हल्की मृदा में 6 सिंचाइयां पर्याप्त होती हैं। गेहूं में 6 अवस्थायें ऐसी हैं। जिनमें सिंचाई करना लाभप्रद रहता है। लेकिन सिंचाइयों की उपलब्धता के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए।
- पहली सिंचाई - बुआई के 20-25 दिनों बाद मुख्य जड़ बनते समय।
- दूसरी सिंचाई - दूसरी सिंचाई बुआई के 40-45 दिनों बाद कल्लों के विकास के समय।
- तीसरी सिंचाई - बुआई के 65-70 दिनों बाद तने में गांठ पड़ते समय।
- चौथी सिंचाई - बुआई के 90-95 दिनों बाद फूल आते समय।
- पांचवीं सिंचाई - बुआई के 105-110 दिनों बाद दानों में दूध पड़ते समय।
- छठी/ऑतम सिंचाई - बुआई के 120-125 दिनों में जब दाना सख्त हो रहा हो, करनी चाहिए।
देर से बोये गये गेहूं में पहली सिंचाई बुआई के 18-20 दिनों बाद तथा बाद की सिंचाई 15-20 दिनों के अन्तराल पर करते रहें। वहां भी सिंचाई के बाद एक तिहाई नाइट्रोजन का छिड़काव करना होगा।
सामान्यतः खरपतवार, फसलों को प्राप्त होने वाली 47 प्रतिशत नाइट्रोजन, 42 प्रतिशत फॉस्फोरस, 50 प्रतिशत पोटाश, 24 प्रतिशत मैग्नीनीशियम एवं 39 प्रतिशत कैल्शियम तक का उपयोग कर लेते हैं। इसके साथ-साथ खरपतवार, फसलों के लिए नुकसानदायक कीटों तथा रोगों को भी आश्रय देकर फसलों को क्षति पहुंचाते हैं। इनका नियंत्रण भी एक कठिन समस्या है, किन्तु हाल के वर्षों में अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि इनका नियंत्रण प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।
कम तापमान रहने के कारण यद्यपि रोगों का खतरा कम रहता है। फफूंदजनित रोग के लक्षण दिखाई देने पर प्रोपिकोनॉजोल का 0.1 प्रतिशत अथवा मैंकोजेब का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव किया जा सकता है। गेहूं की फसल को चूहों से बचाने के लिए जिंक फॉस्फाइड या एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की टिकियों से बने चारे का प्रयोग कर सकते हैं। जौ की फसल में दूसरी सिंचाई बुआई के 55-60 दिनों बाद गांठ बनने की अवस्था में करनी चाहिए।
पत्ती व तनाभेदक की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरोप्रिड 200 ग्राम प्रति हैक्टर या क्यूनालफॉस 25 ई.सी. दवा 250 ग्राम/हैक्टर का प्रयोग करें या प्रोपिकोनाजोल 0.1 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें।
मोल्याः रोगग्रस्त पौधे पीले व बौने रह जाते हैं। इनमें फुटाव कम होता है तथा जड़ें छोटी व झाड़ीनुमा हो जाती हैं। जनवरी-फरवरी में छोटे-छोटे गोलाकार सफेद चमकते हुए मादा सूत्रकृमि जड़ों पर साफ दिखाई देते हैं, जो इस रोग की खास पहचान है। यह रोग समय पर बोये गेहूं पर नहीं आता है। संभावित रोगग्रस्त खेतों में 6 कि.ग्रा. एल्डीकार्व या 13 कि.ग्रा. कार्बोफ्यूरॉन बुआई के समय खाद में मिलाकर डालें। पाले से बचाव के लिए खेतों के आस-पास धुआं करें, जिससे तापमान बढ़ जाता है तथा पाला पड़ने की आशंका कम हो जाती है। अधिक सर्दी वाले दिनों में शाम के समय सिंचाई करने से भी पाले से बचाव होता है।