Baby Corn Farming: किसान भाई ज्यादातर उसी तरह की सब्जियों की खेती करते रहे हैं जो उनके आसपास होती हैं जैसे गोभी, बैंगन, टमाटर, भिंडी आदि। विविधता लाने और अधिक लाभ पाने के लिए एक नई तरह की सब्जी बेबी कॉर्न की खेती की जा सकती है। बेबी कॉर्न मकई के समान होता है। केवल अन्तर यह है कि इसकी बालियां (काब्स) निकलने के 3-4 दिन बाद जब इसके सिल्क 2-3 सेमी हो) इसकी तुड़ाई कर ली जाती है, जिसे बेबी कार्न कहते हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं. इसका उपयोग सब्जी, सलाद और कई अन्य व्यंजन बनाने में किया जा रहा है। बेबी कॉर्न चीन, अमेरिका, यूरोप, दक्षिण एशिया के रेस्तरां में बहुत लोकप्रिय है। हमारे देश में बेबी कॉर्न को भी काफी पसंद किया जा रहा है। बेबी कॉर्न के भुट्टों की कटाई के बाद पौधे का पूरा हरा भाग पशुओं के लिए हरे चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। इसकी खेती किसानों के लिए फायदेमंद है, हमारे किसान भाई साल में 2-3 बार बेबी कॉर्न की खेती कर सकते हैं।
बेबी कॉर्न में पाए जाने वाले पोषक तत्व
बेबी कॉर्न पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसमें फाइबर (खाद्य फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, फास्फोरस, लौह तत्व, थायमिन, राइबोफ्लेविन और एस्कॉर्बिक एसिड आदि पाए जाते हैं। यह कोलेस्ट्रॉल मुक्त होता है।
भूमि और खेत की तैयारी
बेबी कॉर्न की खेती के लिए रेतीली और दोमट मिट्टी अच्छी होती है। मिट्टी का pH मान 6-7 तक होना चाहिए। सबसे पहले खेत की एक बार गहरी जुताई की जाती है, उसके बाद दो बार हैरो से जुताई करने के बाद उसमें खाद डालकर कल्टीवेटर से जुताई की जाती है, अच्छी जुताई से खेत में खरपतवार कम हो जाते हैं। रिज मेकर द्वारा एक क्यारी या मेड़ बनाई जाती है, जिसकी ऊँचाई 15 सेमी तथा पंक्ति से पंक्ति की दूरी 35-40 सेमी रखी जाती है।
खाद और उर्वरक
एक हेक्टेयर खेत में कम्पोस्ट लगभग 15 टन, नाइट्रोजन 120 किग्रा फास्फोरस 60 किग्रा और पोटाश 60 किग्रा. प्रयोग किया जाता है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय डाली जाती है। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा दो खुराक में बुआई के 30 दिन बाद तथा 45-50 दिन पर खड़ी फसल में दी जाती है। उर्वरक का उपयोग ड्रिप के माध्यम से भी किया जा सकता है। फसल में घुलनशील उर्वरकों को ड्रिप विधि से देना फर्टिगेशन कहलाता है। फर्टिगेशन विधि से उर्वरक देने से इसकी बढ़वार अच्छी होती है और उर्वरक की मात्रा भी बच जाती है. फसल को जितनी शुद्ध उर्वरक की आवश्यकता होती है, इस विधि से उतनी ही मात्रा में उर्वरक मिलता है।
बीज की बुआई
उत्तर भारत में इसे फरवरी से नवंबर के बीच लगाया जाता है। अगस्त से नवंबर के बीच बोया गया बेबी कॉर्न अच्छा उत्पादन देता है। प्रयुक्त बीज दर 20-25 किग्रा/हेक्टेयर है। बीज को क्यारियों या मेड़ों पर4-5 सेमी. की गहराई पर किया जाता है।सामान्यतः पंक्ति से पंक्ति की दूरी 35-40 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 20-25 सेमी. रखते हैं। हर जगह (हिल) एक या दो बीज बोये जाते हैं। पौध ज्यामिति अपनाकर प्रति हिल एक बीज या दो बीज या तीन बीज या चार बीज भी बोये जा सकते हैं। प्रति हिल एक या दो बीज बोने से तीन या चार बीज की तुलना में बेहतर और तेजी से पैदावार होती है। बुआई से पहले बीजों को थीरम या कार्बोंडाजिम (2.5 ग्राम/किग्रा बीज) से उपचारित करना चाहिए।
सिंचाई
कूड़ विधि से बोए गए बेबी कॉर्न की सिंचाई बुआई के 10 दिन बाद की जाती है। बेबी कॉर्न की फसल में मौसम, फसल की अवस्था और मिट्टी के अनुसार सिंचाई की आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में सामान्यतः 5-7 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है जो लगभग हर सप्ताह की जाती है। अन्य मौसम में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त होती हैं। आमतौर पर पहली सिंचाई पौधे के छोटे होने की अवस्था में, दूसरी फसल के घुटने की ऊंचाई के समय, तीसरी रेशम निकलने के समय और चौथी बेबी कॉर्न की कटाई के समय करनी चाहिए। जब ड्रिप विधि से सिंचाई की जाती है तो फसल को जितनी सिंचाई की आवश्यकता होती है, 1-2 दिन के अंतराल पर सिंचाई की जाती है। ड्रिप विधि का प्रयोग करने पर लगभग 35-40 प्रतिशत खाद एवं पानी की बचत के साथ-साथ उत्पादन में भी वृद्धि होती है।
अंतरफसल प्रथाएं और फसल सुरक्षा
बेबी कॉर्न की फसल को 1-2 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। ड्रिप विधि अपनाने पर निराई-गुड़ाई की आवश्यकता और भी कम हो जाती है। निराई-गुड़ाई के बाद उर्वरक डालकर पौधों की जड़ों के पास निराई-गुड़ाई करके हल्की मिट्टी चढ़ा दी जाती है। इससे तेज हवा से पौधे गिरते नहीं हैं। तना छेदक, गुलाबी तना छेदक और ज्वार तना मक्खी बेबी कॉर्न के लिए गंभीर समस्याएँ हैं। इसकी रोकथाम के लिए बीज जमाव के 15-20 दिन बाद 2.5 ग्राम कार्बेरिल प्रति लीटर पानी में घोलकर एक या दो छिड़काव करें।
नर पुष्प को तोड़ना (डिटेस्लिंग)
बेबी कार्न के टेसल (नर भाग) के बाहर निकलने पर परागकण बनने से पहले इसे तोड़ने की क्रिया को डिटेस्लिंग कहा जाता है। इस क्रिया में टेसल को काट दिया जाता है। या ऊपर से पकड़ कर बाहर की ओर सावधानीपूर्वक निकल दिया जाता है। ऐसा न करने से परागण की क्रिया पूरी हो जाती है, जिससे फसल की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है। डिटेस्लिंग करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि फसल का कोई और भाग प्रभावित न हो ।
उपज
बेबी कार्न की बालियों की पहली तुड़ाई, बुआई के 45-50 दिन बाद करते है। जब बालियों से सिल्क 1-2 सेन्टी मीटर बाहर निकल आये। इस समय बालियों की लम्बाई 20-22 सेमी., व्यास 4-5 सेमी. और वजन 50-60 ग्राम हो और जब इससे छिलका हटा दिया जाता है तब इसकी लम्बाई 9-10 सेमी. व्यास 1-1.5 सेमी और वजन 11-12 ग्राम होता है। एक फसल में लगभग 3-4 बार तुड़ाई की जाती है। जब फसल ज्यामिती एक पौधा हो तो उसमें बालिया दो और तीन पौधों का फसल ज्यामिती की अपेक्षा पहले आती हैं, जहाँ पर फसल ज्यामिती चार पौधों का होता है वहा बालियां सबसे बाद में आती हैं, और उसकी तुड़ाई सबसे बाद में की जाती है। एक पौधे में 3-4 बालियां आती है। बालियों की तुड़ाई करते समय यह सावधानी रखा जाता है कि पौधे का कोई भाग प्रभावित न हो ताकि दूसरी और तीसरी तुड़ाई की जा सके। दूसरी और तीसरी तुड़ाई 2-3 दिन के अन्तर पर किया जाता है। छिलका सहित बेबी कार्न की बालियों का उपज लगभग 75-100 कुन्तल / हेक्टेयर होता है। छिलका रहित बेबी कार्न की बालियों का उपज लगभग 10-15 कुन्तल / हेक्टेयर होता है। बालियों की अंतिम तुड़ाई के बाद हरा चारा लगभग 150-400 कुन्तल / हेक्टेयर प्राप्त होता है। बाजार में नयी सब्जी होने के कारण बेबी कार्न को काफी पसन्द किया जा रहा है। इससे किसानों को अच्छे बाजार भाव मिलते हैं।
बेबी कार्न पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इससे तैयार कई तरह के व्यंजन काफी पसंद किये जा रहे है। इसकी खेती से अल्पावधि में अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सकता है। दूसरी उगाई जाने वाली फसलों के लिये खेत जल्दी खाली मिल जाता है। बेबी कार्न की खेती से प्राप्त हरे चारे से पशुपालन को बढ़ावा मिलता है। इससे किसान भाइयों को लाभ तथा ग्रामीण महिलाओं एवं युवकों को रोजगार मिलता है।