भारत में विभिन्न प्रकार की सब्जियों को उगाया हैं, जिनमें एक बैंगन हैं। बैंगन भारत में ही पैदा हुआ और आज आलू के बाद दूसरी सबसे अधिक खपत वाली सब्जी है। भारत चीन के बाद दूसरा सबसे अधिक बैंगन उगाने वाला देश है।
जन्म स्थान
बैंगन का जन्म स्थान भारत एवं चीन के उष्ण कटिबन्धी प्रदेश ही माने जाते हैं। बैंगन की खेती लगभग पूरे वर्ष भर की जाती हैं।
जलवायु तथा भूमि
बैंगन की अच्छी पैदावार हेतु गर्म जलवायु की आवश्यकता होती हैं। तथा जल निकास युक्त दौमट मिट्टी इसके उत्पादन हेतु सर्वोत्ताम मानी गयी हैं।
उत्पादन तकनीकि
बैंगन की एक हेक्टयर में पौध रोपण हेतु 400-500 ग्राम बीज की आवश्यकता होती हैं। एवं बीजों को बुवाई से पूर्व थाइराम या केप्टान नामक कवकनाशी दवा की 2 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर नर्सरी में बुवाई करनी चाहिए इसके लिए वर्षाकालीन फसल हेतु फरवरी मार्च, शरदकालीन फसल हेतु जून जुलाई एवं बसंतकालीन फसल हेतु सितम्बर में नर्सरी में पौधे 30-40 दिन बुवाई के बाद 10-15 सें.मी. ऊंचाई के हो जायें तो कतार से कतार की दूरी 60-70 सेन्टीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 60 से.मी. ध्यान में रखते हुए रोपाई कर देनी चाहिए। आमतौर पर बैंगन के लिए कहा जाता हैं कि इसमें पोषक तत्वों का अभाव होता हैं, किन्तु यह धारणा निराधार हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सा में बैगन का महत्वपूर्ण स्थान हैं। सफेद बैंगन मधुमेह के रोगी के लिये उत्ताम माना गया है। बैंगन की फसल कई प्रकार के हानिकारक रोगों द्वारा प्रभावित होती हैं। अगर इसका समय रहते नियंत्रण ना किया गया तो बाजार मूल्य में गिरावट एवं अत्यधिक हानि का सामना करना पड़ सकता हैं। अतः बैगन के प्रमुख रोगों की पहचान कर उनका समय पर उपचार करें।
आर्द गलन (डेम्पिंग ऑफ )

यह रोग पीथियम अफेनिडर्मेटम नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। यह रोग मुख्यतः पौधशाला में उगे पौधों पर लगता हैं। यह पौधों की दो अवस्थाओं में पाया जाता हैं । पहली अवस्था में पौधों के भूमि से निकलने से पूर्व अथवा तुरन्त पश्चात तथा दूसरी अवस्था में पौध बन जाने पर। पहली अवस्था में पौधे छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं। दूसरी अवस्था में भूमि के सम्पर्क वाले तने के हिस्से में पीले-हरे रंग के विक्षत बनते हैं। जो तने को प्रभावित कर ऊतकों को नष्ट कर देते हैं। पौधशाला में पौधों का मुरझान और बाद में सूख जाना रोग का प्रमुख लक्षण हैं। इसकी रोकथाम के लिए बीज को बुवाई से पूर्व थाइराम या कैप्टान नामक कवकनाशी की 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोयें। जहाँ तक हो सके बीजों की बुवाई उचित जल निकास युक्त भूमि से 10-15 से.मी. ऊंचाई पर बुवाई करें। बीजों को बुवाई से पूर्व 50 डिग्री से पूर्व 50 डिग्री सेल्सियस तापमान के गर्म पानी से 30 मिनट तक उपचारित कर बोयें। पौधषाला में रोगग्रस्त पोधों को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। खड़ी फसल में बोडो मिश्रण 0.8 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।
झुलसा रोग
यह रोग फोमोप्सिस वेकसेन्स नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता हैं। यह बैंगन का एक भयंकर हानिकारक रोग हैं रोगी पौधों की पत्तियों पर छोटे छोट गोन भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं एवं अनियमित आकार के काले धब्बे पत्तििायों के किनारों पर दिखाई पड़ते हैं। रोगी पत्तििायां पीली पर पड़कर सूख जाती हैं। रोगी फलों पर धूल के काणों के समान भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं जो आकार में बढ़कर फलों को सडाकर जमीन पर गिरा देते हैं यह एक मृदाजनित रोग हैं। इसलिए इस रोग का प्रकोप पौधशाला में भी होता हैं। जिसके कारण पौधे झुलस जाते हैं। रोकथाम के लिए पौधों को 0.2 प्रतिशत कैप्टान का 7-8 दिन में छिड़काव कर रोग मुक्त करें। रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला देवें। रोगप्रतिरोधी किस्में जैसे 'पूसा भैरव' और 'फ्लोरिडा मार्केट' का चयन करें। रोग का अधिक संक्रमण होने पर 2 ग्राम दवा/लीटर जल में मिलाकर छिड़काव करें।
पत्ती धब्बा रोग (लीफ स्पोट्स)

बैंगन में इस रोग का प्रकार चार प्रकार की कवक प्रतातियों द्वारा उत्पन्न होता हैं। (1) अल्टरनेरिया मेलांतनि (2) अल्टरनेरिया सोलेनाई (3) सरर्कोस्पोरा सोलेनाई मेंलाजनि एवं (4) सर्कोस्पोरा सोलेनाई। अल्टरनेरिया की उपयुक्त दोनों प्रजातियों के कारण पत्तीयों पर अनियमित आकार के भूरे धब्बे बन जाते हैं। ये धब्बें आपस में मिलकर विक्षत का रूप धारण कर देते हैं। जिससे पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं। अल्टरनेरिया पेलांजनि के कारण फल भी प्रभावित होते हैं। रोगी फल पीले पड़ जाते है तथा पकने से पूर्व ही गिर जाते हैं एवं सर्कोस्पोस प्रजातियों के कारण पत्तियों में कोणीय से अनियमित आकार के धब्बे बन जाते हैं। जो बाद में मटमैले भूरे रंग के हो जाते हैं। यह रोग जनक कवक फलो में सड़न भी उत्पन्न कर देता हैं। तथा फलों का आकार छोटा रह जाता है। जिससे उपज की भारी हानि होती हैं। रोकथाम के लिए खरपतवारों की रोक थाम नियमित रूप से करते रहना चाहिए। रोगी पत्तििायों को तोड़ कर यथा स्थान जला देना चाहिए। डाइथेन जॅड - 78, फाइटोलोन या शलाइटोक्स आदि के 0.2 प्रतिशत घोल का 7-8 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए ।राोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे- पूसा पर्पिल कलस्टर, एच-4 मंजरी ब्लेक राउण्ड, गोटा, जूनागढ़, चयन - 11 (लम्बा), की पी-8 इत्यादि को बुवाई हेतु उपयोग करना चाहिए।
स्कलेरोटीनिया अगंमारी रोग
यह रोग स्कलेरोटीनिया नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता हैं इस रोग के लक्षणों में संक्रमण स्थान पर शुष्क विवर्णति धब्बा बनता हैं। जो धीरे-धीरे तने या शाखा को घेर लेता हैं। तथा ऊपर नीचे फैल कर संक्रमित भाग को सम्पूर्ण नष्ट कर देता हैं। तने के आधार पर संक्रमण होने पर आंशिक मुरझान दिखाई देती हैं। तने के पिथ में रंग से काले रंग के काष्टकवक बन जाते है। संक्रमित फल में भी मांसल ऊतक विगलित हो जाता हैं।
रोकथाम के लिए रोग की रोगथाम हेतु फसल अवशेष, खरपतवार संक्रमित फल इत्यादि को एकत्रित कर के जला देना चाहिए। खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई कर देने चाहिए। प्याज, मक्का, पालक इत्यादि के साथ फसल चक्र अपनाना चाहिए। ट्राइकोड्रामा हारजीऐनम तथा ट्राइकोड्रामा वीरिडी से बीज उपचारित कर बोना चाहिए ।
उक्टा या म्लानी रोग
यह रोग वर्टिसीलियम डहेली नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता हैं। इस रोग का संक्रमण मुख्यत- जड़ों एवं तनों पर होता है। इससे संक्रमित पौधा बोना रह जाता हैं। और सामान्यतः फलोत्पादन नहीं करता, पुष्प तथा फल विकृत होकर गिर जाते हैं। तने की अनुपस्त तथा लम्बत: काट में संवहनी उत्तक घुसर काले रंग का दिखाई देता हैं। प्रभावित पत्तियां पीली पड़ कर गिर जाती हैं। रोकथाम के लिए यह एक मृदोड़ रोग हैं इसलिए मृदा उपचार टाइकोड्रमा तथा स्यूडोमोनास फ्लरोसेंस द्वारा किया जाता हैं। रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए। रोग के लक्षण दिखने पर बेनटेल (0.1 प्रतिशत) का छिकाव करना चाहिए।
छोटी पत्ती रोग
यह बैंगन का एक माइकोप्लाजमा, जनित विनाशकारी रोग है जिसे 'लीफ होपर' नामक कीट से हिलता हैं। इसमें रोगी पौधा बोना रह जाता हैं। तथा पत्तियां आकार में छोटी रह जाती हैं। प्रायः रोगी पौधों पर फूल नहीं बनते हैं। और पौधा झाड़ीनुमा हो जाता हैं। यदि इन पौधों पर फल भी लग जाते हैं तो वे अत्यंत कठोर होते हैं। रोगी पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए। नियंत्रण के लिए लीफहोपर से फसल को बचाने के लिए 0.1 प्रतिषत एकाटोक्स या फोलीडोल का फल निर्माण तक छिड़काव करना चाहिए। पौधों को रोपाई से पूर्व टेट्रासाइक्लिन के 100 पी.पी.एम. घोल में डुबोकर रोपाई करनी चाहिए। रोग रोधी किस्में जैसे पूसा पर्पिल क्लस्टर और कटराइन सैल 212 - 1, सैल 252-1-1 और सैल 252-2-1 उगाये। पेड़ी फसल ना लेवे।
सूत्रकृमि
यह रोग सूत्रकृमि पेलाडोगाइन की अनेक प्रजातियों द्वारा उत्पन्न होता हैं जिससे रोगी पौधों की जड़ों में गाठें बन जाती हैं, रोगी पौधा बौना रह जाता हैं। पत्तििायां हरी पीली होकर लटक जाती हैं। इस रोग के कारण पौधा नष्ट तो नहीं होता किन्तु गांठो के सड़ने पर सूख जाता हैं। इसके द्वारा 45 55 प्रतिशत तक हानि होती हैं। नियंत्रण के लिए खेत मे नमी होन पर नीम की खली एवं लकड़ी का बुरादा 25 क्विंटल प्रति हेक्टयर की दर से भूमि में मिला देना चाहिए। रोगी पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए। नेभागान 12 लीटर प्रति हेक्टयर की दर से भूमि का फसल बोने या रोपने से 3 सप्ताह पूर्व शोधन करना चाहिए।