अफीम की उन्नत खेती की तकनीक, जानें अफीम की खेती के बारे में

अफीम की उन्नत खेती की तकनीक, जानें अफीम की खेती के बारे में
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Kisaan Helpline

Crops Feb 14, 2022

Opium Cultivation:अफीम (पेपवर सोमनिफेरम एल.) एक महत्वपूर्ण व्यापारिक औषधीय फसल है। भारत में इसकी खेती अफीम एवं बीजों के लिए की जाती है। अफीम पोस्त के डोडों से प्राप्त की जाती है। यह एक औषधीय पौधा है। अफीम सफेद रंग के सूक्ष्म गोल, मधुर और स्निग्ध दाने बीज के रूप में होते हैं जिसे हम आमतौर पर खसखस के नाम से जानते हैं। इसमें विशिष्ट प्रकार की तीव्र गंध होती है, जो स्वाद में तीखी होती है।

उपयोगिता एवं महत्व 
यह एक औषधीय पौधा है अम का प्रयोग विभिन्न प्रकार की दवाइयों को बनाने में किया जाता है। यह एक मादक पदार्थ है इसका प्रयोग नशे के लिए भी किया जाता है जो काफी हानिकारक है। इसमें चीरा लगाने से एक गाढ़ा दूध निकलता है उसे इक्कठा करके सुखा लिया जाता है। यही व्यावसायिक या औषधि अफीम है। सूखने के बाद अफीम गम का प्रयोग कई प्रकार की दवाईयों में किया जाता है। अफीम का दूध जो कि इसके संपुट (डोडों) से चीरा लगाकर प्राप्त किया जाता है। अफीम के दूध में 40 प्रकार के एल्केलाइड्स पाये जाते हैं। इसलिये इनका उपयोग रोगियों को नींद के लिये, चित्त को स्थाई करने, दर्द को कम करने हेतु तथा कैंसर व सिर में चोट से उत्पन्न दर्द को ठीक करने में प्रयोग किया जाता है। अफीम का दूध जो कि इसके संपुट (डोडों) से चीरा लगाकर प्राप्त किया जाता है। अफीम में औषधीय उपयोग हेतु एल्केलाइड्स की मात्रा पायी जाती है इनमें मुख्यतः मॉफिन (7–17 प्रतिशत), कोडिन (2.1-4.4 प्रतिशत) थिबेन (1.0-30 प्रतिशत) नारकोटिन (3. –10.0 प्रतिशत) व पेपवरिन (0.5–3.0 प्रतिशत) है। इस एल्केलाइड्स का प्रयोग दर्द निवारक व विभिन्न प्रकार की दवाइयों के निर्माण में होता है तथा शेष प्रजातियां बगीचों में सजावटी पौधों के रूप में उगाई जाती है। अफीम के दानों में लगभग 42–52 प्रतिशत तेल पाया जाता है, जिनमें लिनोलिक अम्ल की मात्रा बहुत अधिक 68 प्रतिशत तक होती है। अतः यह मनुष्यों के खून में कोलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करता है। विश्व में औषधीय प्रयोग के लिये इसकी खेती भारत, पूर्व सोवियत संघ, मिश्र, यूगोस्लाविया, चेकास्लोवाकिया, पोलेण्ड, जर्मनी, नीदरलैण्ड, चीन, जापान, अर्जेन्टीना, स्पेन, बुल्गारिया, हंगरी एवं पुर्तगाल में होती है। अफीम की खेती भारत में राजस्थान के झालावाड़, बारां, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, मध्यप्रदेश के नीमच, मन्दसौर, रतलाम क्षेत्र तथा उत्तरप्रदेश के फैजाबाद, बाराबंकी, बरेली, शाहजहाँपुर क्षेत्र में दाने तथा अफीम दूध के उत्पादन के लिये भारत सरकार के अधीन केन्द्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो द्वारा जारी पट्टे के आधार पर की जाती है।

अनुकूल जलवायु
अफीम एक समशीतोष्ण जलवायु वाली फसल है, लेकिन इसे उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सर्दियों के दौरान सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। ठंडी जलवायु इसकी उपज को बढ़ा देती है, जबकि दिन और रात के उच्च तापमान आमतौर पर उपज को प्रभावित करते हैं। ठंढा या शुष्क तापमान, बादल या बरसात का मौसम न केवल उत्पादन को कम करता है बल्कि अफीम की गुणवत्ता को भी कम करता है। 

उपयुक्त मिट्टी
अफीम उत्पादन के लिए एक अच्छी जल निकासी वाली, अत्यधिक उपजाऊ हल्की काली या दोमट मिट्टी जिसका इष्टतम pH लगभग 7.0 हो, अफीम उत्पादन के लिए उपयोगी है।

प्रमुख उन्नत किस्मे
अब तक किसान की स्थानीय प्रजातियाँ जैसे काली डाण्डी, सफेद डाण्डी, सुया पंखा, रणजटक, तेलिया, धोलिया इत्यादि का प्रयोग करते आ रहे हैं जिनकी उत्पादन क्षमता कम है व रोगों के प्रतिरोधक क्षमता भी कम पायी जाती है। भारत में कृषि अनुसंधानों से नवीनतम किस्मों का विकास किया गया है जिनका विवरण इस प्रकार है। तेलिया, रनजटक, धोला चोटा गोटिया, एम.ओ.पी.-3, एम.ओ. पी. - 16 (जवाहर अफीम - 16 ), शामा, श्वेता, कीर्तिमान (एन.ओ.पी.-4), चेतक (यू. ओ.-285), तृष्णा (आई.सी.-42) एवं जवाहर अफीम–540 (जे.ओ.पी.-540)

जमीन कैसे तैयार करें
मिट्टी को अच्छी तरह से बारीक़ करने के लिए खेत की 3 या 4 बार जुताई करनी चाहिए। तब खेत में एक सुविधाजनक आकार का क्यारियाँ तैयार किया जा सकता है।

बुवाई
अफीम के बीजो को या तो प्रसारण विधि से या पंक्तियों में बोया जाता है। प्रसारण से पहले बीज को आमतौर पर महीन रेत के साथ मिलाया जाता है ताकि बीज क्यारियों में समान रूप से फैल जाए।

बीज उपचार 
बुवाई से पहले, बीजों को फफूंदनाशकों जैसे डाइथेन एम -45 @ या मेटालेक्सिल 35% डब्ल्यू.एस. 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के साथ उपचारित किया जा सकता है।

बुवाई का समय
बुवाई का सबसे अच्छा समय अक्टूबर के अंत या नवंबर की शुरुआत है। प्रसारण विधि के लिए बीज दर 7-8 किग्रा / हेक्टेयर और लाइन बुवाई के लिए 4-5 किग्रा / हेक्टेयर है।

बुवाई की विधि
अफीम की बुवाई दो प्रकार से य नेकी छिड़काव विधि से या कतारों में की जाती है। किन्तु कतारों में बुवाई करना ज्यादा उपयुक्त रहता है क्योंकि इस विधि से निराई-गुड़ाई अफीम में चीरा लगाना एवं अफीम लूने व कटाई करने में आसानी रहती है। इसमें बीजों का अंकुरण 8 से 10 दिनों में पूर्ण हो जाता है । कतारों में बुवाई के लिए पंक्ति की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी. होनी चाहिये। एक हेक्टर क्षेत्र के लिये अफीम में पौधों की संख्या लगभग 3.33 लाख होनी चाहिये। अंकुरण के 30-35 दिन पश्चात् फालतू तथा घने पौधों को निकालकर पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. कर देनी चाहिये । छिटकवां विधि में बीज को समतल क्यारियों में समान रूप से हाथ से बिखेर कर रेक द्वारा मिट्टी में मिला देना चाहिये। इसके बीज बहुत छोटे होते हैं, इसलिये बीजों पर अधिक मिट्टी नहीं आनी चाहिये वरना अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है एक जैसी बुवाई के लिये बीज के साथ आठ से दस गुना सूखी मिट्टी तथा रेत मिला देना चाहिये ।

बुवाई के बाद
मिट्टी की नमी के आधार पर अंकुरण में पांच से दस दिन लगते हैं। पौधे की एकसमान और बेहतर वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए थिनिंग एक महत्वपूर्ण फसल गतिविधि है। यह आमतौर पर तब किया जाता है जब पौधे 5-6 सेंटीमीटर ऊंचे होते हैं और पौधे में 3-4 पत्तियां होती हैं। जब तक पौधा 14 से 15 सेमी की ऊंचाई तक नहीं पहुंच जाता, तब तक इसे पतला किया जाता है। यह प्रक्रिया 3-4 सप्ताह की अवधि में की जाती है।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
अफीम खाद और उर्वरकों के उपयोग के लिए उल्लेखनीय रूप से प्रतिक्रिया करता है, जिससे अफीम की उपज और गुणवत्ता दोनों में वृद्धि होती है। खेत की जुताई के समय, प्रसारण विधि द्वारा खेत को 20-30 टन/हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद दी जाती है। इसके अलावा, 60- 80 किग्रा एन और 40-50 किग्रा P2O5 प्रति हेक्टेयर की सिफारिश की जाती है। इसमें पोटाश का उपयोग नहीं किया जाता है। N का आधा और पूरा P खेत में लगाने की विधि से बुवाई के समय और N का शेष आधा रोसेट अवस्था में दिया जाता है।

खरपतवार नियंत्रण और छटाई 
खरपतवार नियंत्रण एवं छटाई की पहली क्रिया बुवाई के 25-30 दिनों बाद तथा दूसरी क्रिया 35-40 दिनों बाद रोग व कीटग्रस्त एवं अविकसित पौधे निकालते हुए करनी चाहिए। अन्तिम छटाई 50-50 दिनों बाद पौधे से पौधे की दूरी 8-10 से.मी. रखते हुए करें।

सिंचाई प्रबंधन
अफीम की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए सावधानीपूर्वक सिंचाई प्रबंधन आवश्यक है। एक हल्की सिंचाई बुवाई के तुरंत बाद और दूसरी हल्की सिंचाई बीज के अंकुरित होने के 7 दिन बाद करनी चाहिए। फूल आने से पहले 12 से 15 दिनों के अंतराल पर तीन बार सिंचाई करनी चाहिए और फिर फूल आने और कैप्सूल बनने की अवस्था में सिंचाई की बारंबारता 8-10 दिनों तक करनी चाहिए। आम तौर पर, पूरी फसल अवधि के दौरान 12-15 सिंचाइयां दी जाती हैं। फलने और लेटेक्स निष्कर्षण चरण के दौरान नमी की कमी से पैदावार में काफी कमी आती है।

चीरा लगाना एवं अफीम लूना / इकट्ठा करना
अफीम के पौधे के संपुट (डोडे) के बाहरी सतह पर चीरा लगाकर अफीम इकट्ठी की जाती है। डोडों में 70 प्रतिशत तक मॉर्फिन व अन्य एल्केलाइड्स पाये जा है। फूलों की पंखुडियों गिरने के 15 दिन बाद पके हुए हरे डोडे पर चीरा लगाया जाता है। चीरा लगाने का कार्य दोपहर बाद ( 3 बजे बाद) तथा डोडों पर चीरा लगाने के लिये 3-4 नोक नश्तर का प्रयोग किया जाता है। चीरा लगाते समय यह ध्यान रखते हैं कि चीरे की गहराई 0.5 से 1.00 मिमी. रहे। अफीम के प्रत्येक डोडे पर सामान्यतया 3–5 चीरे लगाये जाते है तथा दूसरा चीरा एक दिन छोड़कर अर्थात् प्रथम चीरे लगाने का कार्य बंद रखना चाहिये। चीरा लगाने के दूसरे दिन अफीम डोड़े से सुबह जल्दी खुरज कर इकट्ठा की जाती है। सुबह जल्दी हवा में अधिक आद्रता एवं कम तापमान में वृद्धि व आर्द्रता कम होने पर अफीम का दूध सूखकर डोडो पर चिपक जाता है जिससे अफीम लूने में कठिनाई रहती है। प्रत्येक डोडे से प्रथम चीरे में अधिक अफीम का स्त्राव होता है। उसके बाद धीरे-धीरे चीरे बढ़ने पर स्त्राव कम होता जाता है। डोडों से अफीम इकट्ठा कर लेने के बाद डोडों को पौधों पर 15-20 दिन तक सूखने दिया जाता है।

कटाई और थ्रेसिंग
फसल को लगभग 20-25 दिनों के लिए सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है जब कैप्सूल से लेटेक्स रिलीज आखिरी बार बंद हो जाता है। उसके बाद कैप्सूल को तोड़ा जाता है और पौधे के बचे हुए हिस्से को काट दिया जाता है। एकत्र किए गए कैप्सूल को फिर खुले मैदान में सुखाया जाता है और बीजों को लकड़ी के डंडों से पीटकर एकत्र किया जाता है। कच्ची अफीम की उपज 50 से 60 किग्रा/हेक्टेयर होती है।

अफीम की खेती के लिए लाइसेंसिंग प्रक्रिया
केंद्रीय नारकोटिक्स विभाग लाइसेंसिंग प्रक्रिया को पूरा करता है, और अफीम की उपज भी खरीदता है। इससे पहले भारत के अन्य राज्यों में अफीम उगाने के कई प्रयास किए गए, लेकिन प्रतिकूल मौसम के कारण सफल नहीं हो सके। इसलिए उन राज्यों के किसानों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए। वर्तमान में, यह केवल मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्यों में उगाया जाता है। यह लाइसेंस केवल उन्हीं किसानों को दिया जाता है जो पहले से ही सरकारी नियमों का पालन करते हुए अफीम की खेती कर रहे हैं। पात्र किसानों को एक वर्ष के लिए लाइसेंस दिया जाता है और एक वर्ष के बाद फिर से एक नया लाइसेंस जारी किया जाता है। अफीम नीति के तहत सरकार लाइसेंस देती है, इस लाइसेंस के लिए कोई आवेदन जमा करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि पहले से मौजूद रिकॉर्ड के आधार पर लाइसेंस दिया जाता है।

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