हल्दी एक महत्वपूर्ण मसाले वाली फसल है, जिसका प्रयोग मसाले, औषधि, रंग सामग्री और सौंदर्य प्रसाधन के रूप में तथा धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है। हल्दी की खेती एवं निर्यात में भारत विश्व में पहले स्थान पर है। यह फसल गुणों से परिपूर्ण है हल्दी की खेती आसानी से की जा सकती है तथा कम लागत तकनीक को अपनाकर इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है।
आइये जानते है हल्दी की फसल में लगने वाले हानिकारक किट और रोग की पहचान और उनके रोकथाम के उपाय:
हानिकारक रोग एवं नियंत्रण के उपाय
प्रकन्द विगलन रोग: पत्तियाँ पीली पड़कर सुखने लगती हैं तथा जमीन के ऊपर का तना गल जाता है। भूमि के भीतर का प्रकन्द भी सड़कर गोबर की खाद की तरह हो जाता है। यह बीमारी जल जमाव वाले क्षेत्रों में अधिक लगती है। इस रोग से बचाव के लिए Mancozeb 75% WP (मैनकोज़ेब 75% WP) का 25 ग्राम एवं वेविस्टीन का 1 ग्राम मिश्रण बनाकर प्रति लीटर पानी में घोलकर बीज उपचारित कर लगावें और खड़ी फसल पर 15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन छिड़काव करें तथा रोग की अधिकता में पौधों के साथ-साथ जड़ की सिंचाई (ड्रन्चिंग) करें।
पूर्ण धब्बा रोग: पत्तियों के बीच में या किनारे पर बड़े-बड़े धब्बे बन जाते हैं जिससे फसल की बाढ़ रूक जाती है। इस रोग से बचाव के लिए 15 दिन के अंतराल पर दो से तीन छिड़काव मे Mancozeb 75% WP (मैनकोज़ेब 75% WP) 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
पर्ण चित्ती रोग: इस बीमारी का प्रकोप होने पर पत्तियों पर बहुत छोटी-छोटी चित्तियाँ बन जाती हैं। बाद में पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं और सूख जाती हैं। पर्ण धब्बा रोग एवं पर्ण चित्ती रोग से बचाव के लिये 15 दिन के अन्तराल पर दो से तीन छिड़काव Mancozeb 75% WP (मैनकोज़ेब 75% WP) का 2.5 ग्राम वेविस्टीन का 1 ग्राम का मिश्रण बनाकर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। इस बीमारी को जीनेव 3 ग्राम 1 लीटर पानी में घोल बनाकर या बोर्डोक्स मिक्सचर (1.0 प्रतिशत) छिड़काव कर के रोका जा सकता है।
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हानिकारक कीट एवं नियंत्रण के उपाय
तना छेदक :- तना छेदक (कोनोगेलेस पंक्टिफेरालिस) हल्दी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाले कीट हैं। इनसकी सूँडियाँ अस्थाई तनों में रहती हैं और भीतरी ऊत्तकों को खाती हैं। छिद्रों में फ्रास (Frass) निकलना और मुरझाए हुए प्ररोह के मध्य भाग कीट होने के स्पष्ट लक्षण हैं। इसके वयस्क पतंगे मध्यमाकार वाले, जिनके पंख 20 मि.मी. चौड़ाई के और इन पंखों पर नारंगी-पीले रंग की छोटी काली बिन्दियाँ होती हैं। पूर्ण विकसित सूँडियाँ हल्के बादामी रंग के रोम वाली होती हैं। जुलाई-अक्तूबर के दौरान 21 दिनों के अन्तराल में मैलाथियन - 0.1% या मोनोक्रोटोफोस - 0.075% या डिपेल - 0.3% (बासिल्लिस तुरेंनसिस से उत्पन्न) का छिड़काव से इन कीटों पर नियंत्रण कर सकता है। जब अस्थाई तनों के अंदरूनी पत्तों में कीट संक्रमण का प्रथम लक्षण दिखाई पड़े तब छिड़काव शुरू किया जा सकता है।
राइजोम स्केल :- राइजोम स्केल (अस्पिडेल्ला हार्टी) प्रकन्दों में खेतों में (फसल कटाई के समय) और भण्डारण में संक्रमित करता है। वयस्क (मादा) स्केल वृत्ताकार (लगभग 1 मि.मी. व्यास में) और हल्के बादामी से भूरे रंग वाली होती है तथा प्रकन्दों पर पपड़ी के रूप में दिखाई पड़ती है। ये प्रकन्दों से रस चूसती हैं और जब प्रकन्दें ज्यादा संक्रमित होती हैं तब सिकुड़कर सूख जाती हैं, जिससे अंकुरण भी प्रभावित हो जाता है। बीज सामग्रियों को भण्डारण के पहले और बोने से पहले भी (यदि संक्रमण बना रहता है तो) क्विनालफोस - 0.075 % से 20 - 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए। अधिक संक्रिमत पौधों का भण्डारण न करें और उन्हें छोड़ देना चाहिए।
लघु कीट :- लघु कीट के लारवा और वयस्क जैसे लीमा स्पी. पत्तों को खा लेते हैं, खासतौर पर मानसून के दौरान ये पत्तों पर लम्बें समानान्तर निशान बनाते हैं। प्ररोह वेधकों को रोकने के लिए मालथयोन - 0.10.3 % का छिड़काव करना काफी है।
लेसविंग कीटों (स्टेफानैटिस टाइपिकस) से संक्रमित पत्ते पीले होकर सूख जाते हैं। इन कीटों का संक्रमण मानसूनोत्तर काल में अधिक होता है, खासकर देश के सूखे इलाकों में डाइमेथोएट या फोस्मामिडोन (0.05%) के छिड़काव से इन कीड़ों को रोका जा सकता है।
थ्रिप्स :- छोटे लाल, काला एवं उजले रंग के कीड़े पत्तियों के रस को चूसते हैं एवं पत्तियों को मोड़कर पाईपनुमा बना देते हैं। इससे बचाव के लिये डाईमिथोएट का 15 मि.ली. या कार्बाराईल का 1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर तीन छिड़काव करें।
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