हमारे देश की लगभग 84 प्रतिशत कृषि, ह फसल एवं पशुपालन आधारित है। इन दोनों उद्यमों से जो अपशिष्ट प्राप्त होता है उनका सदुपयोग हम वर्मीकम्पोस्ट के उत्पादन में कर अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आजकल रासायनिक कृषि के दुष्प्रभाव के कारण जैविक कृषि का महत्व बढ़ रहा है। | जैविक कृषि में फसलों के पोषक तत्वों के स्रोत में केंचुआ खाद का उच्च स्थान है। वर्तमान में वर्मीकम्पोस्ट की मांग बढ़ने के कारण यह बाजार में भी रासायनिक उर्वरकों की तरह अच्छे मूल्यों पर बिक रहा है। वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन से किसान को रोजगार के साथ-साथ उसकी आय में बढ़ोतरी होती है।
वर्मीकम्पोस्ट जैविक खेती की विभिन्न विधियों में वर्मीकम्पोस्ट का बहुत बड़ा योगदान है। वर्मीकम्पोस्ट को केंचुआ खाद भी कहते हैं। केंचुओं का वैज्ञानिक तरीके से तथा नियंत्रित दशाओं में प्रजनन तथा पालन करना वर्मीकल्चर कहलाता है। केंचुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों का पाचन कर फसल उपयोगी कार्बनिक खाद में परिवर्तित करने की क्रिया जिसमें उत्सर्जित पदार्थ, ह्यूमस, जीवित छोटे-छोटे केंचुए व उनके कोकून मिले रहते हैं, वर्मीकम्पोस्टिंग कहलाता है। यह उत्पाद वर्मीकम्पोस्ट कहलाता है।
स्वस्थ जीवांश से भरपूर एवं नम भूमि में केंचुओं की संख्या पचास हजार से लेकर चार लाख प्रति हैक्टर तक होती है। केंचुए प्राकृतिक रूप से भूमि की जुताई कर प्रतिदिन असंख्य छिद्र बनाते हैं। इसके कारण मिट्टी भुरभुरी हो जाती है। भूमि के अंदर हवा का आवागमन बढ़ जाता है।
वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन की आवश्यकताएं
केंचुए: हमारे देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए केंचुओं की दो मुख्य प्रजाति ले सकते हैं:
(1) आइसीनिया फोइटिडा
(2) यूड्रिलस यूजिनी
केंचुओं की ये प्रजातियां तीव्र गति से जैविक पदार्थों को खाद में बदल देती हैं। प्रजनन तीव्र गति से होने के कारण इनकी संख्या में कम समय में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है।
जैविक अपशिष्टः कोई भी कार्बनिक पदार्थ, कृषि अवशेष जैसे खेत से निकलने वाले खरपतवार, फसल अवशेष, गन्ने के अवशेष, नारियल की जटा तथा गूदा. रसोई से निकलने वाले अवशेष जैसे सड़ी-गली सब्जियां या फल आदि केंचुओं के भोजन के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं।
छायादार स्थान: वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए ऐसे छायादार स्थान का चुनाव करना चाहिए, जहां गड्ढे व ढेरियां बनाई जा सकती हैं। उस स्थान को कुत्ते, बिल्ली, सूअर और परभक्षी कीट एवं पक्षियों से बचाने के लिए चारों ओर से घास-फूस की आड़ से घेरा जा सके। गड्ढे या ढेरियों के चारों ओर से पानी की नाली बनाना उचित रहता है। यह नाली चींटी, दीमक आदि को केंचुओं तक पहुंचने से रोकती है।
पानी एवं नमी: वर्मीकम्पोस्ट इकाई का तापमान 25 से 30° सेल्सियस तथा नमी 45 से 50 प्रतिशत होनी चाहिए। तापमान व नमी को अनुकूल बनाए रखने के लिए गड्ढे या ढेरी को जूट के बोरे से ढककर नियमित रूप से कुछ समय के अंतराल में गीला करते रहना आवश्यक होता है। इसके लिए पानी की व्यवस्था का होना अनिवार्य है।
वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन की विधि
वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उपयुक्त नमी एवं तापमान वाले स्थान का चयन कर इसके ऊपर एक छप्पर या अस्थाई शेड बनाया जाता है। इसकी ऊंचाई मध्य में लगभग 2.5 मीटर एवं किनारे 1.8 मीटर रखते हुए इसे स्थानीय रूप से उपलब्ध घास-फूंस, पैरा, प्लास्टिक एवं बांस-बल्ली से निर्मित किया जाता है। अथवा शेड स्थाई रूप से सीमेंट की दीवार एवं एस्बेस्टस की छप्पर से भी बनाया जा सकता है। शेड की लंबाई-चौड़ाई वर्मी टैंक की संख्या पर निर्भर करती है। वर्मी टैंक का मानक आकार 10 मीटर लंबा 1 मीटर चौड़ा तथा 0.5 मीटर गहरा होता है। गड्ढे की लंबाई सुविधा के अनुसार कितनी भी रखी जा सकती है। इसकी चौड़ाई 1 मीटर एवं गहराई 0.5 मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए अन्यथा कार्य करने में असुविधा होगी। वर्मी शेड की आधारीय सतह ईंट-पत्थर के टुकड़े से बनानी चाहिए, जिससे अधिक जल का निकास आसानी से हो सके।
वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए जैविक अवशेषों को उपयोग में लाया जा सकता है।
इसकी भराई इनके कार्बन : नाइट्रोजन अनुपात के आधार पर निम्नानुसार करना चाहिए:
प्रथम परतः 2 इंच मोटी सतह धीमी गति से अपघटित होने वाले जैविक पदार्थों यथा सूखी घास, नांदा पुआल, ज्वार के के डंठल गन्ने के पत्ते आदि को रखना चाहिए।
दूसरी परतः विघटित पदार्थ एवं गोबर की सड़ी हुई दूसरी परत खाद की 2-3 इंच मोटी सतह बनानी चाहिए।
तीसरी परत: तीसरी परत के रूप में खाद के ऊपर केंचुओं को सावधानीपूर्वक छोड़ना चाहिए। केंचुओं की 500-1000 संख्या इनके आकार के आधार पर प्रति वर्ग मीटर की दर से डाली जानी चाहिए।
चौथी परत: केंचुओं को डालने के बाद इसके ऊपर 6-8 इंच की तह में कच्ची गोबर, पत्ती, कचरा आदि डालकर जूट के बोरे या टाट-पट्टी से ढककर पानी का छिड़काव करना चाहिए। इस पर प्रतिदिन आवश्यकतानुसार पानी का छिड़काव करना चाहिए ताकि नमी 45-50 प्रतिशत बनी रहे।
शेड में हमेशा अंधेरा बना रहना चाहिए, क्योंकि अंधेरे में केंचुए ज्यादा सक्रिय रहते हैं। इसलिए शेड के चारों ओर घास-फूस की पट्टी या बोरे लगा देने चाहिए। ग्रीष्मकाल में इन बोरों के ऊपर नियमित रूप से पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। इससे टैंक में नमी बनी रहती है एवं केंचुए सक्रिय बने रहें। टैंक में भरे जैविक अवशेषों को लगभग एक महीने के अंतराल में लोहे के पंजे की सहायता से धीरे-धीरे पलटते रहना चाहिए। इस प्रकार कम्पोस्टिंग के दौरान बनने वाली गैस बाहर निकल जाती है। वायु संचार व तापमान भी उपयुक्त बना रहता है। यह प्रक्रिया 2 से 3 बार दोहराई जाती है। टैंक के अंदर का तापमान 25-30' सेल्सियस एवं नमी 30-35 प्रतिशत बनाए रखना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर तापमान एवं नमी की जांच करते रहना चाहिए। पानी के उचित प्रयोग से तापमान को नियंत्रित किया जा सकता है। लगभग 50-60 दिनों में वर्मीकम्पोस्ट तैयार हो जाती है। इस समय ढेर में चाय पत्ती पाउडर के समान केंचुए के द्वारा निकाली गई कास्टिंग दिखाई पड़ती है। इस विधि में 50-55 दिनों के बाद पानी का छिड़काव बंद कर देना चाहिए। खाद के छोटे-छोटे ढेर बना दें, ताकि केंचुए खाद की निचली सतह में चले जाएं तब केंचुओं को अलग कर दूसरे टैंक में डाल देना चाहिए। तत्पश्चात जालीदार छन्नी की सहायता से खाद को छान लेना चाहिए। छनी हुई खाद को ठंडे स्थान पर बोरियों में उपयोग के समय तक भंडारित कर रख सकते हैं। भंडारण के लिए वर्मीकम्पोस्ट में नमी का स्तर 8-12 प्रतिशत होना चाहिए।
तैयार केंचुआ खाद की पहचान तैयार
वर्मीकम्पोस्ट चाय के पाउडर की तरह दिखाई देता है। यह भार में बहुत हल्का होता है। इससे किसी भी प्रकार की अवांछनीय गंध नहीं आती है।
तैयार वर्मीकम्पोस्ट के गड्ढे से केंचुए इधर-उधर रेंगते हुए दिखाई दें तो समझ लेना चाहिए कि खाद बनकर तैयार हो गई है।