सफलता की कहानी: प्रेरणा और प्रशिक्षण, इन दो हथियारों और दृढ़ संकल्प के साथ, एक किसान आधुनिक युग में प्राकृतिक खेती को अपनाकर अच्छी कमाई कर रहे है। फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए बीजामृत और जीवामृत के रूप में बीज शोधन का सहारा लेने वाले ये किसान भी खुद करने के अर्थ के साथ जिले में नई सोच विकसित कर रहे हैं।
5 सालों से अधिक समय से दे रहे है प्राकृतिक खेती को बढ़ावा
पांच साल से अधिक समय से शून्य लागत पर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रहे मैनपुरी प्रखंड के उझैया गांव निवासी अनिल चौहान देसी गाय को ऐसी खेती के लिए किसी वरदान से कम नहीं मानते हैं। इस बार भी रबी सीजन में उन्होंने पांच एकड़ जमीन में गेहूं कम और सरसों ज्यादा उगाई है। इसी वर्ष उन्होंने इस पूरी विधि से गेंदा और मक्का भी उगाया है, जिससे उन्हें बेहतर मुनाफा भी हुआ।
इंदौर में शून्य लागत प्राकृतिक खेती पद्धति का प्रशिक्षण लिया
उन्होंने बताया कि पांच साल पहले 2016 में पद्मश्री सुभाष पालेकर द्वारा इंदौर में आयोजित छह दिवसीय शिविर में शून्य लागत प्राकृतिक खेती पद्धति का प्रशिक्षण लिया गया था। उसके बाद वह अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए भरतपुर में पालेकर के शिविर में भी गए। आज भी वह प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सेमिनारों, किसान मेलों में भाग लेते हैं। उन्होंने बताया कि यह बहुत अच्छा तरीका है, जिसमें पर्यावरण को संतुलित रखा जाता है।
बीजामृत और जीवामृत से खेती बनी प्राकृतिक वरदान
देशी गाय की खाद, फसल पोषण, कीट नियंत्रण के बारे में भी जागरूक होना होगा। बीजों के उपचार की बात पर अनिल चौहान ने कहा कि वह पहले बीज को उपचारित करने के लिए प्राकृतिक अवयवों से बीजामृत बनाते हैं, ताकि पौधे स्वस्थ और कीट मुक्त रहें। देशी गाय के गोबर और गोमूत्र पर आधारित जीवामृत बनाते है, जिसका उपयोग खेतों में सिंचाई के दौरान पानी के साथ किया जाता है। प्राकृतिक खेती से फसल रासायनिक खेती से बेहतर स्वस्थ रहती है, कीटों का प्रकोप भी कम होता है।
कीटों का भी प्राकृतिक इंतजाम
अनिल कीटों का निदान भी प्राकृतिक तरीके से ही करते हैं। उनका कहना है की फसल में कीट आने पर सुभाष पालेकर के बताए गए फार्मूले से पंचपत्ता अर्क, दसपर्णी अर्क, आग्नेयास्त्र आदि बना कर पौधों पर डालते हैं, जिससे कीट भाग जाते हैं। इससे फसल अच्छी होती है, उत्पादन भी अधिक आता है।