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विभिन्न फसलों में कपास खरीफ की प्रमुख फसल है। यह फसल श्रीगंगानगर एवं हनुमानगढ़ जिलों के सिंचित क्षेत्रों में लगाई जाती है। जिलों में अमेरिकन कपास (नरमा) तथा देशी कपास दोनों को लगभग बराबर महत्व दिया जाता है। देशी कपास की बिजाई ज्यादातर पड़त या चने की फसल के बाद की जाती है जबकि अमेरिकन कपास की बिजाई पड़त, गेहूं, सरसों, चना आदि के बाद की जाती है। दोनों कपास की फसलों में अंतर है।
कपास के पौधों की अनियंत्रित वृद्धि, शाखाओं एवं पत्तियों के बनने, पुष्प कलिकाओं तथा कालांतर में टिण्डे बनने की क्रिया सभी एक समयबद्ध चक्र में होती रहती है। जल एवं पोषक तत्वों की कमी, तापमान की प्रतिकूलता तथा कीटों के प्रकोप से पुष्प कलिकाओं तथा टिण्डों का गिरना जारी रहता है। यदि इन कारकों पर प्रभावी नियंत्रण कर लिया जाए तो कपास की अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। इन साडी बातो में ध्यान रखकर खेती करने पर आप अपने कपास के उत्पादन में वृद्धि कर सकते है।
जल आवश्यकता
कपास की फसल को 7 से 9 मिलीमीटर जल की आवश्यकता होती है। सिंचित उत्तर- पश्चिमी क्षेत्र में कपास की फसल के दौरान औसतन 275 मिलीलीटर पानी वर्षा के रूप में प्राप्त हो जाता है। शेष जल की आवश्यकता सिंचाई के द्वारा पूरी की जाती है।
यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण है और आपकी फसल के लिए श्रेष्ठ है।
सिंचाई
कपास में सिंचाईयो की संख्या वर्षा की मात्रा तथा इसके वितरण पर निर्भर करती है। साधारणतया देशी कपास में 4 से 5 तथा अमेरिकन कपास में 5 से 6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। कपास गहरी जड़ वाली फसल है। इसकी जड़े 1 मीटर से भी ज्यादा गहराई तक जाती है। पलेवा (रोणी) के समय गहरी सिंचाई करे। गहरी रोणी करने पर फसल में गर्मी (लू) सहने की क्षमता बढ़ जाती है तथा पौधे तेज गर्मी में भी कम मरते हैं। जिससे इकाई क्षेत्र में पौधों की पूरी संख्या रहती है और पैदावार अच्छी प्राप्त होती है।
सिंचाई विधि
इस क्षेत्र में कपास में सतही सिंचाई ही प्रचलित है सतही सिंचाई में क्यारों का आकार 5 मीटर लंबा तथा 0.8 से 1 मीटर चौड़ा रखा जाता है। इस क्षेत्र के ज्यादातर मृदाएं रेतीली दोमट है। अतः सतही सिंचाई से रिसाव तथा बहाव द्वारा सिंचाई जल की काफी हानि होती है। क्यारे का तल एकसार न होने के कारण जल वितरण दक्षता सतही सिंचाई से कम होती है। खेत के खाले कच्चे होने के कारण जल वहन में भी काफी पानी रिसाव द्वारा बर्बाद हो जाता है। इन सब कारको की वजह से सतही सिंचाई की दक्षता 4 से 5% ही रह पाती है। लगभग 5 से 6% पानी बेकार चला जाता है। सिंचाई जल की कमी को देखते हुए यह आवश्यक है कि इसका अधिकतम सदुपयोग किया जाये।
बूंद- बूंद सिंचाई पद्धति
इस जल का उपयोग मंदगति से, बूंद- बूंद करके, फसल के जड़ क्षेत्र में किया जाता है। इसके लिए जिस उपकरण का उपयोग किया जाता है, उसके तीन प्रमुख भाग होते हैं पहला भाग एक पम्पिंग यूनिट है जो लगभग 2.5 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर का जल डाब उत्पन्न करती है। इसका दूसरा भाग एक पाइप लाइन होता हैं जो पी.वी.सी. का बना होता है और तीसरा भाग ड्रिप लाइन तथा इस पर ड्रिपर लगे हैं जिनसे पानी पौधों के पास टपकता है। जल को कुए या डिग्गी से उठाकर पाइप लाइन के माध्यम से ड्रिपर तक निश्चित दाब पर पहुंचाया जाता है, जिससे जल बून्द-बून्द करके पौधे के पास टपकता है और भूमि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है।
इस विधि से पौधों को जल की पूर्ति लगातार जारी रहती है जिससे पौधे की बढ़वार तथा विकास अच्छा होता है। इससे अधिक पैदावार के साथ-साथ उत्पाद की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है। इस विधि में जल का उपयोग वहन द्वारा, रिसाव द्वारा तथा भूमि सतह पर वाष्पन द्वारा जल हानि नहीं होती है। अतः इस विधि में सिंचाई दक्षता अत्यधिक हैं। यह विधि शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपयोगी है। यह विधि बाग़ों, सब्जियों तथा चौड़ी कतार वाली फसलों जैसे कपास, गन्ना आदि के लिए अत्यंत उपयोगी है।
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