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नई दिल्ली। देश-प्रदेश में मशरूम उत्पादन का दायरा बढ़ रहा है। गांव हो या शहर, मशरूम अनेक हाथों को रोजी-रोटी मुहैया करा रहा है। मशरूम उत्पादन को कृषि और उद्योग दोनों ही क्षेत्रों में महत्व दिया गया है। भारतीय मशरूम उद्योग फिलहाल आकारा ले रहा है। बड़े अंतरराष्ट्रीय बाजार में वह अपना स्थान बनाने के संघर्षपूर्ण दौर में है। धीरे-धीरे सफलता भी मिल रही है। देश के अलग-अलग हिस्सों से सफलता की कुछ ऐसी ही प्रेरक कहानियों को बयां करतीं विकासनगर (उत्तराखंड) से राकेश खत्री, सोलन (हिमाचल प्रदेश) से आशुतोष डोगरा, पटना (बिहार) से अरविंद शर्मा और बांका से रवि वर्मा की रिपोर्ट।
हिरेशा के मशरूम की इंडोनेशिया से अमेरिका तक धमक
देहरादून, उत्तराखंड की महिला उद्यमी हिरेशा वर्मा ‘प्रोग्रेसिव मशरूम ग्रोअर’ अवार्ड पाने वाली देश की पहली महिला हैं। आज देश ही नहीं, विदेश में भी उनके मशरूम की धूम है। हाल ही में उन्हें दुबई में संपन्न कनेक्टिंग वूमेन चेंजमेकर्स समिट में अमेरिकी दूतावास की ओर से सफल महिला उद्यमी के रूप में नवाजा गया। वनस्पति विज्ञान में मास्टर्स डिग्री लेने के बाद हिरेशा ने घर से ही इसकी शुरुआत की।
दो हजार रुपये खर्च कर घर पर ही मशरूम के 25 बैग लगाए। इससे उन्हें पांच हजार रुपये की आमदनी हुई। फिर तो मशरूम उत्पादन को ही उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया। 2015 में यहां पछवादून के छरबा में मशरूम प्लांट लगाया। तीन वर्ष में ही प्लांट से एक हजार किलो प्रतिदिन मशरूम का उत्पादन होने लगा है। जिसका बाजार भाव 120 रुपये प्रति किलो है। आज वह स्थानीय बाजार के साथ-साथ निर्यात कर रही हैं। प्लांट में 32 लोगों को रोजगार भी मिला। नियमित मजदूरों को आठ हजार और सुपरवाइजर को 11 हजार रुपये प्रतिमाह वेतन का भुगतान किया जाता हैं।
महिलाओं ने बिहार के झिरवा को दिलाई पहचान
मशरूम उत्पादन में महिलाओं के सामूहिक प्रयास ने बांका, बिहार के झिरवा गांव को देश में अलग पहचान दिलाई है। मशरूम की खेती के बूते गांव की 400 महिलाएं आत्मनिर्भर हो चुकी हैं। शुरुआत गांव की दो महिलाओं विनीता कुमारी और रिंकू कुमारी ने की थी। स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र से प्रशिक्षण लेकर मशरूम उगाना शुरू किया और इसके बाद खुद का उद्यम तो स्थापित किया ही, साथ ही महिलाओं को भी प्रशिक्षण दिया।
गांव की रधिया देवी कहती हैं कि मशरूम की खेती से जुड़ने के बाद अब उन्हें रोजगार के लिए किसी के खेत पर काम करने नहीं जाना पड़ता है। 2013 में रिंकू-विनीता ने गन्ने के पत्ते पर मशरूम उत्पादन का सफल प्रयोग किया था। 2016 को सोसाइटी फॉर अपलिफ्टमेंट ऑफ रूलर इकोनोमी ने रिंकू को प्रोगेसिव वूमन फार्मर अवार्ड से नवाजा। दोनों को इस साल जगजीवन राम अभिनव नवाचार राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए नामित किया गया था।
60 हजार किसानों को बनाया स्वावलंबी
राजेंद्र कृषि विवि के कृषि वैज्ञानिक डॉ. दयाराम को ‘मशरूम मैन’ कहा जाता है। उनके तीन मंत्र हैं- मशरूम उपजाइए, खाइए और बेचिए। तीन दशक से वे पिछड़े इलाके के अभावग्रस्त किसानों को मशरूम की खेती और मुनाफे का गणित समझा रहे हैं। महज दो कमरे की झोपड़ी में मशरूम उगाने की विधि समझाकर उन्होंने 60 हजार से अधिक किसानों की किस्मत बदल दी है। उनसे प्रशिक्षित किसान पुरस्कृत भी हो चुके हैं। परंपरागत खेती से पीछा छुड़ाकर किसानों और महिलाओं को नकदी फसलों के लिए प्रेरित करना दयाराम का मिशन है।
जौनपुर, उप्र के मूल निवासी दयाराम ने 1991 में प्लांट पैथोलॉजी में पीएचडी करने के बाद बिहार की राह पकड़ ली थी। तभी से मशरूम की खेती के लिए प्रयत्न करने लगे। उन्होंने साठ हजार किसानों को आर्थिक गुलामी से मुक्ति दिलाकर आत्मनिर्भर बनाया है। दयाराम ने मशरूम को सिर्फ उगाना ही नहीं सिखाया, बल्कि बिस्किट, समोसा, नमकीन और अचार के रूप में बाजार तक पहुंचाना सिखाया।
मशहूर होता मशरूम
तैयार किया रेडी टू फ्रूट बैग
मशरूम अब रसोई में भी तैयार होगा। इसके लिए विशेष कमरे की जरूरत नहीं पड़ेगी। राष्ट्रीय मशरूम अनुसंधान केंद्र चंबाघाट, सोलन ने इसके लिए रेडी टू फ्रूट (आरटीएफ) बैग तैयार किया है। 25 से 30 रुपये की कीमत के इस बैग से लगभग 20 दिन में 800 ग्राम मशरूम का उत्पादन हो सकेगा। डॉ. वीपी शर्मा, निदेशक, मशरूम अनुसंधान केंद्र ने बताया कि जल्द ही इसे बाजार में उतारने की तैयारी है। बैग की एक खासियत यह भी है कि इसे किसी जलवायु-स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकेगा। हां, पानी का छिड़काव कर नमी का ध्यान रखना होगा। इसमें पिंक ऑयस्टर और व्हाइट ऑयस्टर प्रजाति का मशरूम उत्पादित होगा। ऑयस्टर से आचार व सूप भी तैयार किया जा सकता है।
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