ट्राइकोडर्मा पौधों के जड़ विन्यास क्षेत्र (राइजोस्फियर) में खामोशी से अनवरत कार्य करने वाला सूक्ष्म कार्यकर्ता है। यह एक अरोगकारक मृदोपजीवी कवक है, जो प्रायः कार्बनिक अवशेषों पर पाया जाता है। इसलिए मिट्टी में फफूंदों के द्वारा उत्पन्न होने वाले कई प्रकार की फसल बीमारियों के प्रबंधन के लिए यह एक महत्वपूर्ण फफूंदी है।
ट्राइकोडर्मा का विभिन्न उपयोग (Various Uses of Trichoderma)
ट्राइकोडर्मा बहुत ही महत्वपूर्ण एवं कृषि की दृष्टि से उपयोगी है। यह एक प्रकार का फफूंद है, जो रोग पैदा करने वाले फफूंदों के शरीर से चिपक कर उनके शरीर को गला कर, अंदर का सारा जैव पदार्थ प्रयोग कर लेता है, जिससे वे नष्ट हो जाते है। इसके साथ ही पौधों में नुकसान पहुंचाने वाले निमाटोट्स को भी नष्ट करता है, जिससे फसलों में निमाटोड से पैदा होने वाली बीमारियां नहीं होती है। इसके साथ-साथ ट्राइकोडर्मा का कई अन्य फायदों के बारे में अनुसंधान हो रहे हैं, जैसे पौधों की रोग प्रतिरोधी क्षमता, जड़ों का अच्छा विकास, एंजाइम्स एवं विटामिन्स को नियंत्रित करना, साथ ही साथ पैदा होने वाले अनाज फल-फूल सब्जियों के स्वाद में वृद्धि करना प्रमुख कार्य है।
ट्राइकोडर्मा उत्पादन करने की विधि (Method to produce Trichoderma)
ट्राइकोडर्मा के उत्पादन की ग्रामीण घरेलू विधि में गोबर के उपलों का प्रयोग करते हैं। खेत में छायादार स्थान पर गोबर के उपलो को कूट-कूट कर बारीक कर देते इसमें 28 किलोग्राम या लगभग 85 गोबर के उपले रहते है। इनमें पानी मिला कर हाथों से भली-भांति मिलाया जाता है, जिससे कि कण्डे का ढेर गाढ़ा भूरा दिखाई पड़ने लगे। अब उच्च कोटि का ट्राइकोडर्मा शुद्ध कल्चर 60 ग्राम इस ढेर में मिला देते हैं। इस ढेर को पुराने जूट के बोरे से अच्छी तरह ढक देते है और फिर बोरे को ऊपर से पानी से भिगो देते है। समय-समय पर पानी का छिड़काव बोरे के ऊपर करने से उचित नमी बनी रहती है। 12 से16 दिनों के बाद ढेर को फावड़े, से नीचे तक अच्छी तरह से मिलाते है और पुनः बोरे से ढक देते है। फिर पानी का छिड़काव समय-समय पर करते रहते है। लगभग 18 से 20 दिनों के बाद हरे रंग की फफूंद ढेर पर दिखाई देने लगती है। लगभग 18 से 20 दिनों के बाद हरे रंग की फफूंद ढेर पर दिखाई देने लगती है। लगभग 28 से 30 दिनों में ढेर पूर्णतया एवं हरा दिखाई देने लगता है। अब इस ढेर का उपयोग मृदा उपचार के लिए कर सकते है। इस प्रकार अपने घर पर सरल, सस्ते व उच्च गुणवत्ता युक्त ट्राइकोडर्मा का उत्पादन कर सकते हैं। नया ढेर पुनः तैयार करने के लिए पहले से तैयार ट्राइकोडर्मा का कुछ भाग बचा कर सुरक्षित रख सकते है और इस प्रकार कल्चर के रूप में कर सकते है, जिससे बार-बार हमें मदर कल्चर बाहर से नहीं लेना पड़ेगा।
ट्राइकोडर्मा का उपयोग (Uses of Trichoderma)
बीज शोधन में: बीज शोधन के लिए ट्राइकोडर्मा पाउडर 6-10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाते हैं। इस पाऊडर और बीज को 5-7 मिनट तक घड़े में हिलाते है, जिससे यह बीज के ऊपर चिपक जाते हैं तथा बीज को भिगोने की जरुरत नहीं होती है, क्योंकि पाऊडर में कार्याक्सी मिथाइल सेल्यूलोज मिला होता है। बीज के जमने के साथ-साथ ट्राइकोडर्मा भी मिट्टी में चारों तरफ बढ़ता है और जड़ को चारों तरफ से घेरे रहता है, जिससे कि उपरोक्त कोई भी कवक आस-पास बढ़ नहीं पाता, जिससे फसल की अच्छी बढ़त होती है तथा बीमारी भी नहीं के बराबर होती है। इसका असर फसल के ऊपर अन्तिम अवस्था तक बना रहता है तथा शोधन करने से बीजों का जमाव अच्छा और अपेक्षाकृत जल्दी होता है।
भूमि शोधन में : 2.5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाऊडर को 60 किलोग्राम गोबर की सड़ी-गली खाद, कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट में स्पोर मिला कर 24-72 घंटे जूट से ढक देते है, जिससे कि ट्राइकोड़मों पूरे कम्पोस्ट में अच्छी तरह फैल जाए। इसके बाद नमी युक्त खेत में बुवाई से 15 दिन पहले खाद को छिड़क कर मिट्टी में मिला देते है। इसके बाद बुवाई करनी चाहिए। भूमि शोधन में प्रयोग करने से मृदा में रहने वाले रोग जनक कवकों को नष्ट कर देता है। साथ ही कार्बनिक पदार्थ को कम्पोस्ट में बदलने में भी सहयोग करता है।
जड़ कन्द (राईजोम) शोधन में : 8-10 ग्राम ट्राइकोडर्मा को लेकर गुड़ व पानी में मिला कर ट्राइकोडर्मा का मिश्रण तैयार करते है। 2 ग्राम प्रति लीटर गुड़ को अच्छी तरह घोल कर जड़ या कन्द में 15-30 मिनट के लिए डुबोकर छाया में सुखा कर रोपाई / बुवाई करनी चाहिए, जिससे कन्द वाली फसलों जैसे हल्दी, अदरक, आलू, धुंइया, शकरकन्द, जिमीकन्द आदि के बुवाई से पहले कन्द शोधन में तथा नर्सरी की जाने वाली फसलों को भी शोधित किया जाता है।
खड़ी फसल में : 4-5 ग्राम ट्राइकोडर्मा के साथ 1-2 ग्राम गुरु को प्रति लीटर पानी में अच्छी तरह घोल कर छिड़काव करने से पती सड़न, जड़ सड़न आदि रोगों का नियंत्रण भी किया जाता है। रोगों के प्रकोप से रक्षा करने के लिए, इसका उपयोग फसल के ऊपर छिड़काव के लिए भी किया जा सकता है।
ट्राइकोडर्मा के प्रयोग पूर्ण आंशिक रूप से नियंत्रण होने वाली बीमारियां : आर्द्र गलन, उकठा, बीज सड़न, तना सड़न, मूल ग्रन्थि आदि रोगों का नियंत्रण किया जा सकता है।
ट्राइकोडर्मा प्रयोग में सावधानियां (Precautions in Trichoderma Use)
- इसका प्रयोग क्षारीय भूमि में कम लाभकारी है।
- प्रयोग करते समय खेत में उचित नमी होना अनिवार्य है।
- प्रयोग वैधता तिथि के अन्दर ही कर लेना चाहिए।
- भूमि शोधन, बीज शोधन तथा जड़-कन्द शोधन के बाद उनको धूप में नहीं सुखाना चाहिए।
- इसके प्रयोग के साथ कोई फफूंदनाशक रसायन का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
- इसको धूप-ताप- गर्मी से बचाना चाहिए।
ट्राइकोडर्मा के प्रयोग करने से लाभ (Benefits of using Trichoderma)
- भूमि जनित तथा बीज जनित रोगों से फसल बचाने में अत्याधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- मिट्टी के लाभदायक जीवों तथा आदमी एवं अन्य जीवो के स्वास्थ्य पर कोई दुष्प्रभाव नहीं डालता है।
- मिट्टी, हवा, जल आदि में प्रदूषण नहीं फैलाता है।
- उत्पादों का स्वाद बढ़ता है तथा रोगों में इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता नहीं फैलाता है।
- इसके प्रयोग से उत्पादित फसल, सब्जियों, फल आदि लम्बे समय तक ताजे बने रहते हैं।
- इसका प्रयोग अनाज, दलहन, तिलहन, मसाले, औषधियां, फूलों, पान, सब्जियों एवं फलों आदि सभी प्रकार की फसलों पर किया जा सकता है।
- इसके प्रयोग से आर्द्र गलन, बीज सड़न, जड़ सड़न, तना सड़न, उकठा, मूल ग्रन्थि आदि रोगों में पूर्ण या आंशिक फायदा पहुंचाता है।
लक्ष्मण प्रसाद बलाई, कृषि महाविद्यालय, किशनगढ़बास, अलवर (श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय जोबनेर ) व सागर मल खारड़िया, ओ.पी.जे.एस. विश्वविद्यालय, चुरू