जिस प्रकार मानव जीवन में भी एक दोस्ती - दुश्मनी का संबंध होता है, उसी तरह पौधे भी इतने प्रभाव रखते है की वे दूसरे पौधों को पनपने नहीं देते। पौधों के इस आपसी संबंध तथा प्रभाव के विज्ञान को 'एलिलोपैथी' कहा जाता है। अमेरिका के लाल गेहूँ और लाल जुवार के साथ गाजरघास नामक खरपतवार के बीज भारत में आए तो एक आक्रामक वनस्पति की तरह यहाँ के स्थानीय खरपतवारों को दबाकर पूरे भारत में छा गए।
कारण यह रहा कि गाजरघास की जड़ों से जहरीला स्राव (एक्सूडेंट) निकलता है, जिसका प्रभाव इतना खतरनाक होता है की उसके आसपास अन्य वर्ग के पौधों को पनपने नहीं देता है। इसी कारण जहाँ भी इसके पौधे उगे, उनके आसपास कोई अन्य प्रजाति के पौधे नहीं पनप पाए और परिणाम स्वरुप इनकी संख्या बढ़ती चली गई।
गाजरघास की जड़ों से पार्थेनिक, पी. काउमेटिक एसिड, कैफिक एसिड व मैलिक एसिड जैसे घातक एलिलो रसायनों का स्राव होता है। इनकी वजह से गाजरघास ने मालवा में पवार (पुवाड्या), ग्वालियर क्षेत्र में सफेद मुगी, उत्तरप्रदेश में लहसुआ, निमाड़ क्षेत्र में गोंगला (गेहुँआ) जैसे स्थानीय उपयोगी खरपतवारों को दबाकर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।
सोयाबीन के लगातार बोए जाने के कारण मिट्टी में राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोशियम व फ्यूजेरियम नामक फफूँदों (फंगस) के कारण ग्वार, चौला, बैंगन, मिर्च, टमाटर आदि फसलें भी नहीं ली जा सकती हैं, क्योंकि इन पर भी इनसे उत्पन्न रोग लग जाते हैं, वहाँ यदि जुवार (देशी या हाइब्रिड कोई भी) लगातार दो-तीन मौसम या वर्षों तक लगा दी जाए तो इन रोगों का प्रभाव समाप्त या कम हो जाता है। जुवार के पौधों की जड़ों से भी भूमि में कम नमी की हालत में एक प्रकार का घातक जहर हाइड्रोसाएनिक एसिड, जिसे एचसीएन भी कहा जाता है, निकलता है।
वर्तमान में प्रचलित रासायनिक कृषि जिसमें रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशक, रासायनिक रोगनाशक, रासायनिक खरपतवारनाशक उपयोग में लाए जा रहे हैं उनसे निजात पाई जा सकती है या उनकी मात्रा को कम किया जा सकता है।