विकास सिंह सेंगर (कृषि अर्थशास्त्र), नवीन कुमार (टीचिंग असिस्टेंट कृषि सांख्यिकी विभाग बुंदेलखण्ड विश्व विद्यालय झांसी) आर0 के 0 आर्यन (कृषि मौसम विज्ञान), एंव रियाज अहमद (कृषि अर्थशास्त्र), आचार्य नरेंद्र देव कृषि एंव प्रौद्योगिकीय विश्वविद्यालय कुमारगंज अयोध्या उत्तर प्रदेश
“घास” जी हाँ वही जो खुद को स्थापित कर लेती है| विनम्र इतनी है कि पैरों से रौंदे जाने का भी बुरा नहीं मानती। वही घास जो गाय के पेट में जाती है| तो दूध बनकर हमारा पोषण करती आज घास धरती पर हर जगह मौजूद है। चाहे ऊँचें पर्वत हों, समतल उपजाऊ मैदान, या फिर सूखे गर्म रेगिस्तान। आज हमारे चारों ओर घास की बहुतायत है घास हमें बड़ी साधारण सी चीज लगती है। पर असल में ये अपने में असाधारण गुणों को समेटे है जिसके विकसित होने में बहुत समय लगा है। घास का धरती पर 6 करोड़ वर्ष पहले हुआ है। गेहूं ‘जो कि मध्य एशिया में पायी जाने वाली एक साधारण घास थी’ न जाने कैसे आज से 10 हजार साल पहले खाने की तलाश में यहाँ वहां भटकते हमारे खानाबदोश पूर्वजों में से किसी को उसका स्वाद भा गया। उन्होंने सोचा यहाँ वहां भटकने से बेहतर है, क्यों न इसे उगाकर इसका संचय कर लिया जाए। और इस तरह कृषि की नींव पड़ी। जब कृषि शुरू हुयी तो विभिन्न स्थानों पर पायी जाने वाली घास की कुछ अन्य प्रजातियों जैसे घान, बाजरा, मक्का, गन्ना इत्यादि को भी उगाया जाने लगा। बताने की जरुरत ही नहीं कि आज हमारी निर्भरता इन पर किस कदर है।
घास के आने से पहले भूमि पर हर ओर इन विशाल वृक्षों का साम्राज्य था। ज्यादा से ज्यादा सूर्य का प्रकाश पाने की होड़ में विशाल वृक्ष विजेता बनकर उभरे थे। जहाँ होते वहां अपनी शाखाएं फैलाकर आकाश पर कब्ज़ा जमा लेते। इसके तले रौशनी की एक बूँद के लिए तरसकर मर जाना ही छोटे पौधों की नियति थी। छोटे मुलायम तने वाले पौधों की न जाने कितनी प्रजातियाँ यूँ ही रौशनी के लिए तरसकर खत्म हो गयीं और जो बचीं भी किसी तरह हाशिये पर जिन्दगी बसर कर रही थीं।
घास दिखने में बड़ी मामूली थी पर थी, उसने दुनिया के हर रंग को देखा था, हर दर्द को जिया। क्योंकि वो विकसित हुयी थी उन जगहों पर जो जगह विशाल वृक्षों ने तरस खाकर छोड़ दी थी। उसमें थे तपते मरुस्थल, ठन्डे पर्वत जो साल में 6 महीने बर्फ में दबे रहते थे, पोषक तत्वों से हीन रेतीली अनुपजाऊ भूमि इत्यादि इत्यादि। इन जगहों पर पलने के कारण घास में कुछ कमाल के गुणों का विकास हुआ। यह तेजी से बढ़ सकती थी। कम पानी कम पोषक तत्वों में गुजारा कर सकती थी। तेजी से फ़ैल सकती थी। इसको परागण के लिए कीटों की आवश्यकता नहीं थी। इसके छोटे हल्के परागकण हवा के साथ दूर दूर तक फ़ैल जाते थे। नष्ट करना मुश्किल था क्योंकि नष्ट हो जाने के बावजूद भी भूमि में मौजूद तने में से कुछ समय बाद नए अंकुर फूट पड़ते थे। जल जाने के बावजूद भी इसका भूमिगत तना सुरक्षित रहता और पहली फुहार के साथ पुनः उठ खड़ी होती थी।
धीरे धीरे घास ने वृक्षों द्वारा छोड़ी गयी हर जमीन पर अपना कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया। विशाल वृक्षों को कोई अंदाजा ही नहीं था , गर्मी का महिना ,घास के झुण्ड सूखकर पीले पड़ चुके थे अचानक आकाश से वज्रपात हुआ और देखते - देखते घास के सूखे झुंडों ने आग पकड़ ली। आग के फैलने के लिए सूखी घास के रूप में बढ़िया ईंधन उपलब्ध था तो जल्द ही उसने विकराल रूप धारण कर लिया और घास के जरिये जंगल को चारों तरफ से घेर लिया। और फिर जो आग भड़की तो धुआं छंटने तक कई कई किलोमीटर तक जंगल का सफाया हो चुका था। वे वृक्ष जिनको बढ़ने में सौ सौ वर्ष लगे थे वे मात्र कुछ घंटों में राख का ढेर बन चुके थे।
वृक्षों से खाली हुयी इस नयी जमीन को जल्द ही घास ने अपने कब्जे में ले लिया, हिमयुग के दौरान हुए जंगलों के संहार का भी घास ने भरपूर फायदा उठाया। आज से 1.5 करोड़ साल पहले स्थिति एकदम बदल चुकी थी। किसी समय हाशिये पर जीने वाली घास अब न केवल एक तिहाई भूभाग पर काबिज थी बल्कि उसकी हजारों प्रजातियाँ भी विकसित हो चुकी थीं। घास द्वारा बदले गए इस भूदृष्य ने नयी संभावनाओं को जन्म दिया जिससे नए तरह के जीवों के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ |हमारे आदि पूर्वजों को भी वन क्षेत्र घटने और बिखरने के कारण पेड़ों से उतरकर भूमी पर आने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूमि पर आने के बाद दूर तक नजर रखने के लिए उन्हें द्विपादचारी गमन अपनाना पड़ा जिसका लाभ ये हुआ कि उनके हाथ मुक्त हो गए जिन्हें वे अन्य कामों के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। उन्होंने टूल्स का इस्तेमाल सीखा। और चूँकि वे शारीरिक रूप से अन्य थलचरों जितने मजबूत नहीं थे लिहाजा उन्होंने समूह में शिकार करना सीखा। बीतते समय के साथ धीरे धीरे धरती अब बिल्कुल नए तरह के जीवों से आबाद हो गई थी, जिसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ घास को जाता था।लेकिन घास की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती। वो तो कुछ ऐसा करने के इरादे से आई थी जो आज तक किसी ने नहीं किया था। और उसने किया भी। उसने धरती के सबसे उन्नत कहे जाने वाले जीव को अपने मोहपाश में बाँध लिया।
गेहूं ‘जो कि मध्य एशिया में पायी जाने वाली एक साधारण घास थी’ न जाने कैसे आज से 10 हजार साल पहले खाने की तलाश में यहाँ वहां भटकते हमारे खानाबदोश पूर्वजों में से किसी को उसका स्वाद भा गया। उन्होंने सोचा यहाँ वहां भटकने से बेहतर है, क्यों न इसे उगाकर इसका संचय कर लिया जाए। और इस तरह कृषि की नींव पड़ी। जब कृषि शुरू हुयी तो विभिन्न स्थानों पर पायी जाने वाली घास की कुछ अन्य प्रजातियों जैसे घान, बाजरा, मक्का, गन्ना इत्यादि को भी उगाया जाने लगा। बताने की जरुरत ही नहीं कि आज हमारी निर्भरता इन पर किस कदर है।
घास की इंसानों से हुयी इस दोस्ती का फायदा दो तरफ़ा हुआ। एक तो इंसानों को बिना दर दर भटके पेट भरने के लिए एक आसान संचय योग्य स्वादिष्ट भोजन मिल गया तो दूसरी ओर घास को अपनी देखभाल और विस्तार के लिए अच्छा सेवक मिल गया। घास का ये सेवक उसके पूरे नाज़ नखरे उठाते हुए कड़ी धूप में भी अपने झुलसने की परवाह किये बिना उसकी सेवा में जुटा रहता। उसे उसकी जरुरत की सभी चीजें पानी से लेकर खाद कीटनाशक सब उपलब्ध कराता। इंसानों का साथ मिला तो घास की ये प्रजातियाँ जो कभी दुनिया के किसी अनजान कोने में किसी तरह गुजर बसर कर रहीं थीं प्राकृतिक सरहदों को पार कर न केवल पूरी दुनिया में पहुँच गयीं बल्कि बड़े पैमाने पर फ़ैल गयीं। जब भोजन सुलभ हुआ तो जनसँख्या बढ़ी। जब जनसँख्या बढ़ी तो और अधिक भोजन उगाने के लिए जंगलों का सफाया कर इनके लिए खेत तैयार किये गए।
घास का महत्व हमारे लिए केवल भोजन की दृष्टी से ही नहीं है बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, कला, विज्ञान सब इसके ऋणी हैं। यदि घास ने हमारे पूर्वजों को खानाबदोशी से बाहर न निकाला होता तो न तो सभ्यताएं बनतीं, न संस्कृतियाँ, न कला विकसित होती और न विज्ञान। तो आगे से जब कभी आप अपने लॉन में टहल रहे हों या किसी पार्क में बैठे हों इस कमाल की वनस्पति के अहसानों को याद रखियेगा।