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भागलपुर। हम सब जानते है की मिट्टी अनमोल प्राकृतिक संपदा है लेकिन खेती में अधिक लाभ के लिए अंधाधुंध दोहन ने इसे जहरीला बना दिया है। खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग के चलते मिट्टी का जीवन खतरे में पड़ गया है। मिट्टी में मौजूद जीव-जीवाणु नष्ट होते जा रहे हैं। यही वजह है कि किसानों का हलवाहा कहा जाने वाला केंचुआ भी अब खेतों का साथ छोड़ गया है। इसने खुद को बचाने के लिए बाग-बगीचों एवं तालाबों में शरण ले लिया है।
अब खेतों में मिट्टी की सेहत सुधारने के लिए जैव उर्वरक और हरी खाद के उपयोग की जरूरत है। बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) सबौर के मृदा वैज्ञानिक डॉ. अरुण कुमार झा का मानना है कि एक इंच मिट्टी बनाने में प्रकृति हजारों वर्ष का समय लेती है, परंतु मानव समाज द्वारा मिट्टी के गलत इस्तेमाल के कारण मृदा का क्षरण तेज हो गया है। यह मृतप्राय होती जा रही है। मृदा संरचना बिगडऩे से पौधों को पोषक तत्व नहीं मिल रहा और वातावरण दूषित हो रहा है। जिस उपजाऊ मिट्टी पर पूरे विश्व में सभ्यता का विकास हुआ आज हानिकारक कृषि रसायन और गलत सिंचाई प्रबंधन के कारण अपनी उर्वरताशक्ति खोती जा रही है।
गंभीर होती जा रही मृदाक्षरण की समस्या
गंगा-कोसी जैसे बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में मृदा क्षरण की समस्या जिस प्रकार गंभीर होती जा रही है। यह न सिर्फ कृषि उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है, बल्कि घोर प्राकृतिक आपदा को भी आमंत्रित कर रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि रसायनिक खाद एवं प्लास्टिक पर रोक के बिना मृदा स्वास्थ को बनाए रखना संभव नहीं है। पृथ्वी की ऊपरी परत जो मानव व जीव-जन्तु के लिए बेहद जरूरी है उसे सुरक्षित करने के लिए आक्सीजन छोडऩे वाले पौधों की संख्या बढ़ानी होगी। ताकि मानव व अन्य जीवों की रक्षा हो सके।
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