Linseed Farming: अलसी एक तिलहनी फसल है। इसके दानों से तेल प्राप्त होता है। व्यापारिक दृष्टि से इसका बहुत महत्व है। तेल निकालने के बाद बची हुई खली पशुओं के लिए पौष्टिक आहार के रूप में उपयोग की जाती है। इसका उपयोग उर्वरक के रूप में भी किया जाता है। अलसी के बीजों को भी अन्य अनाजों के साथ पीसकर भोजन में उपयोग किया जाता है। इसके बीजों का उपयोग सुगंधित तेल और अन्य औषधियाँ बनाने में भी किया जाता है। इसके पौधों के तनों से प्राप्त रेशे का उपयोग कैनवास, कालीन तथा अन्य प्रकार के मोटे कपड़े तैयार करने में किया जाता है। तने के रेशों को हटाने के बाद जो कठोर हिस्सा बचता है उसका उपयोग सिगरेट में इस्तेमाल होने वाला कागज बनाने में किया जाता है।
अलसी के तेल का प्रयोग रंग, पेन्ट्स, वार्निश और छपाई के लिये प्रयुक्त स्याही तैयार करने के लिये किया जाता है। इसके अलावा तेल का उपयोग खाना पकाने, साबुन बनाने और कुछ स्थानों पर दीपक जलाने के लिए भी किया जाता है।
क्षेत्र एवं वितरण
अलसी की खेती अर्ध-उष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण और तीव्र जलवायु में भी की जा सकती है। अलसी के क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है, परन्तु उत्पादन की दृष्टि से भारत का स्थान चौथा है। विश्व में अलसी के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत भारत में है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान देश में अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। अलसी की फसल के लिए काली, भारी एवं दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। बेहतर फसल उपज के लिए मध्यम उपजाऊ, दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है।
उन्नत प्रजातियाँ
विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलसी की उन्नत किस्में बतायी गयी हैं।
- उत्तर प्रदेश - नीलम हीरा, मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी 27, टी 397, के. 2, शिखा, पद्मिनी
- पंजाब, हरियाणा - एल.सी. 54. एल.सी. 185 के. 2. हिमालिनी, श्वेता, शुभ्रा
- राजस्थान - टी. 397, हिमालिनी, चम्बल, श्वेता, शुभ्रा, गौरव
- मध्य प्रदेश - जे.एल.एस. (जे) 1, जवाहर 17, जवाहर 552, जवाहर 7, जवाहर 18, टी. 397, श्वेता, शुभ्रा, गौरव, मुक्ता
- बिहार - बहार टी. 397, मुक्ता, श्वेता, शुभ्रा, गौरव
- हिमाचल - हिमालिनी, के. 2, एल.सी. 185
भूमि की तैयारी
बीजों के अच्छे अंकुरण एवं पौधों की वृद्धि के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की 3-4 जुताई देशी हल या हैरो से करनी चाहिए। जुताई के बाद पाटा लगाना आवश्यक है।
बीज
अलसी के बीज बोने के लिए 15-20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। बड़े बीज वाली किस्मों में 25-30 कि.ग्रा. तथा मिश्रित फसल के लिए बीज की मात्रा 8-10 किग्रा. प्रति हेक्टेयर दर आवश्यक है।
बुवाई
इसकी बुआई 7 अक्टूबर से 13 नवंबर तक की जा सकती है. किन्हीं कारणों से देरी होने पर 31 नवंबर तक बुआई की जाती है। बिहार व राजस्थान में धान की खड़ी फसल में अगर बुआई करनी है, तो सितंबर के अंत तक बीज छिटककर बुआई कर देनी चाहिये।
बुआई विधि
अलसी की बुआई अलग-अलग क्षेत्रों में छिटकवां विधि तथा पंक्तियों में की जाती है। मध्य प्रदेश में धान की खड़ी फसल में छिटकवां बुआई को 'उतेरा' व बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'पेरा' विधि कहते हैं। पंक्तियों में बुआई करने के लिये, वांछित दूरी पर कूंड तैयार करके बुआई करते हैं। मिश्रित फसल की बुआई करने के लिये, चने की तीन पंक्तियां, गेहूं की 5-8 पंक्तियों के बाद, अलसी की फसल (1-1.5 मीटर के अंतर पर) पंक्तियों में बोई जाती है। शरदकालीन गन्ने की दो पंक्तियों के बीच अलसी की दो पंक्तियां उगा सकते हैं। सामान्य अवस्थाओं में बीज बोने की गहराई 3-4 सें.मी. रखते हैं।
उर्वरक
पोषक तत्वों की मात्रा हमेशा उस क्षेत्र की मिट्टी का परीक्षण करके निर्धारित की जानी चाहिए। सामान्यतः अलसी की फसल को नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा क्रमशः 80:40:20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। फॉस्फोरस व पोटाश की मात्रा बुआई के समय व नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के समय व आधी पहली सिंचाई पर देने से अधिक लाभ प्राप्त होता है। नाइट्रोजन को अमोनियम सल्फेट द्वारा देने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं।
सिंचाई एवं जल निकासी
देश के अधिकांश क्षेत्रों में अलसी की खेती मुख्यतः वर्षा पर निर्भर करती है। अलसी की खेती में सिंचाई बहुत जरूरी है। यदि शरदकालीन वर्षा न हो तो पहली सिंचाई 4-6 पत्तियाँ आने पर तथा दूसरी फूल आने के समय करना लाभकारी रहता है।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
पहली निराई-गुड़ाई बुआई के 30-35 दिन बाद की जाती है। इसी समय पंक्तियों में पौधों की छंटाई करके पौधों के बीच का फासला 5-7 सें.मी. कर देते हैं। फसल को खरपतवारों से मुक्त करने के लिए 20-25 दिन बाद दूसरी निराई-गुड़ाई कर सकते हैं।
मिश्रित खेती
अलसी की फसल मुख्यतः चना, जौ तथा गेहूँ के साथ मिश्रित रूप में उगाई जाती है। इसकी फसल शरद ऋतु में गन्ने के साथ उगाई जाती है। अलसी की फसल रबी की फसल के किनारे भी उगाई जाती है।
कटाई, मड़ाई और उत्पादन
दाने वाली फसल की कटाई मार्च के मध्य से अप्रैल के प्रारंभ तक की जाती है। फसल की कटाई के बाद बंडलों को खलिहान में लाया जाता है। यहां बंडलों को 4-5 दिन तक सुखाया जाता है। बाद में थ्रेसिंग के लिए मशीन (थ्रेशर) की सहायता से अनाज को अलग कर लिया जाता है। शुद्ध फसल से दाने की उपज 8-10 क्विंटल, उन्नत किस्मों से औसत उपज 15-25 क्विंटल तथा मिश्रित फसल से दाने की उपज 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
भंडारण
भण्डारों में रखने से पहले दानों को सुखाकर 10-12 प्रतिशत तक नमी छोड़ी जाती है। नमी की मात्रा अधिक रहने से बीजों के अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बीज को 40 डिग्री सेल्सियस तापमान पर काफी दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इससे अंकुरण पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।