सोयाबीन की फसल को बर्बाद करने वाली गंभीर बीमारी, जानें इसकी पहचान और नियंत्रण के उपाय
सोयाबीन की फसल को बर्बाद करने वाली गंभीर बीमारी, जानें इसकी पहचान और नियंत्रण के उपाय
Android-app-on-Google-Play

चारकोल रॉट, सोयाबीन की फसल में एक गंभीर बीमारी है, जो मिट्टी के माध्यम से पौधों के जड़ और तने को प्रभावित करती है। खास तौर पर यह रोग गर्मियों के मध्य से लेकर अंत तक, जब पौधे गर्मी और सूखे के तनाव में होते हैं, तब तेजी से फैलता है। प्रभावित पौधे अक्सर समय से पहले मर जाते हैं, मुरझा जाते हैं, और बौने रह जाते हैं, जिससे उपज में काफी कमी आ सकती है। इस रोग का प्रकोप दक्षिणी राज्यों और मध्य-पश्चिम के गर्म और शुष्क क्षेत्रों में देखा जाता है। 1999 में मिनेसोटा और 2002 में नॉर्थ डकोटा में चारकोल रॉट की पुष्टि हुई थी, और यह उत्तरी मध्य-पश्चिम में तेजी से फैल रहा है। मकई और सूरजमुखी जैसी फसलें भी इस बीमारी से प्रभावित होती हैं।

चारकोल रॉट का कारण और फैलाव

चारकोल रॉट एक फफूंदजनित रोग है, जो आमतौर पर पौधों के शुरुआती चरणों में उन्हें संक्रमित करता है। इसके लिए कम आर्द्रता और 30 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल होता है। सूखे की स्थिति में इस रोग के लक्षण फूल आने और फलियों के पकने के समय दिखाई देते हैं, जिससे सोयाबीन उत्पादन में 77% तक की कमी हो सकती है। पौधों की अधिक संख्या और पोषक तत्वों या उर्वरकों की असंतुलित मात्रा इस रोग की तीव्रता को बढ़ा सकती है। यह रोग मिट्टी और बीज जनित है, और संक्रमित पौधों में पत्तियाँ छोटी रह जाती हैं। समय पर नियंत्रण न होने पर पत्तियाँ पीली और फिर भूरी हो जाती हैं, और पौधा सूखने लगता है। संक्रमित पौधे के तने को बीच से फाड़ने पर तने की निचली सतह और जड़ों पर असंख्य काले दाने दिखाई देते हैं, जिससे तना काला पड़ जाता है। यह इस रोग का मुख्य लक्षण है।

रोकथाम और नियंत्रण के उपाय

चारकोल रॉट की रोकथाम हेतु बुवाई के समय बीजों को अनुशंसित रसायनों से उपचारित करना आवश्यक है। सोयाबीन की बुवाई चौड़ी क्यारियों में करने और बुवाई के समय जिंक सल्फेट 25 किग्रा/हेक्टेयर को 500 ग्राम बोरॉन में मिलाकर प्रयोग करने से इस रोग के फैलाव को कम किया जा सकता है। फिर भी इस बीमारी का प्रकोप यदि होता है, इसकी प्रारंभिक अवस्था में फसल की पत्तियों पर अच्छी तरह से टेबुकोनाजोल 10 + सल्फर 65WDG को 1.25 मिली/लीटर (500 लीटर पानी/हेक्टेयर) की दर से 15 दिन के अंतराल पर तीन बार छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय 500 लीटर पानी/हेक्टेयर का प्रयोग करने का विशेष ध्यान रखें।