हरी फली वाली सोयाबीन की खेती, जानिए इसकी खेती के तौर तरीके और इससे होने वाले लाभ
हरी फली वाली सोयाबीन की खेती, जानिए इसकी खेती के तौर तरीके और इससे होने वाले लाभ
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हरी सोयाबीन एक दलहनी फसल है। इसके दानों का सेवन तब किया जाता है जब फलियाँ पककर हरी होती हैं। सोयाबीन की इस किस्म की कटाई भी 70 से 75 दिन में हो जाती है। इसे दुनिया में 'इडामामे' के नाम से भी जाना जाता है। इसे जापान, पूर्वी एशिया, चीन, थाईलैंड और ताइवान जैसे देशों में प्रमुखता से उगाया जाता है। जापान इसका सबसे बड़ा व्यावसायिक उत्पादक है। हरी सोयाबीन का उपयोग पहली बार लगभग 200 ईसा पूर्व के दौरान एक औषधीय पौधे के रूप में दर्ज किया गया था। पौष्टिक और औषधीय फसल के रूप में सोयाबीन की बढ़ती लोकप्रियता के कारण वर्तमान में इसकी मांग तेजी से बढ़ रही है।

हरी सोयाबीन में चीनी की मात्रा अधिक होती है। यह अपने स्वाद के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है, ठीक वैसे ही जैसे हरी मटर हमेशा से भारतीय खान-पान का हिस्सा रही है। हरी सोयाबीन की किस्मों को भी हरी मटर की तरह खाया जा सकता है। यह एक ऐसी सब्जी है जो मटर से भी अधिक पोषक तत्व प्रदान करती है। इसमें मटर से दोगुना प्रोटीन और दोगुने से भी अधिक खनिज होते हैं। इसमें कैल्शियम, जिंक, आयरन आदि होते हैं और मटर से छह गुना से भी अधिक ऊर्जा होती है। सभी जानते हैं कि अंकुरित दालों को खाने मात्र से ही सभी पोषक तत्वों की कमी पूरी हो जाती है।

हरी सोयाबीन के प्रोटीन में मौजूद आइसोफ्लेवोन्स रक्त में कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करते हैं, जिससे हृदय रोग से बचाव में मदद मिलती है। हरी सोयाबीन एक स्वादिष्ट, सुरक्षित और सस्ता विकल्प है। भारत में हरी सोयाबीन को बड़े पैमाने पर अपनाए जाने और भोजन में इसके प्रचुर उपयोग से प्रोटीन और आयरन की कमी को दूर करने में मदद मिल सकती है। इस दिशा में किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप हरी सोयाबीन की किस्मों का विकास और उत्पादन शुरू हो गया है।

यह फसल खरीफ और रबी दोनों मौसमों में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।

खेती की प्रक्रिया

हरी सोयाबीन भारत के किसी भी क्षेत्र में उगाई जा सकती है। मध्यम से भारी मिट्टी में इसकी उपज अधिक होती है, जिसमें पानी आसानी से निकल जाता है। अत्यधिक अम्लीय और लवणीय मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। फसल की वृद्धि के लिए उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेल्सियस है। 650-750 मिमी वार्षिक वर्षा इसके उत्पादन के लिए अच्छी होती है।

मिट्टी की तैयारी

गर्मियों में बुवाई से पहले खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए तथा उसके बाद पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरा और भुरभुरा बनाना चाहिए। अच्छी तरह से तैयार मिट्टी, जिसमें पर्याप्त नमी और पोषक तत्व हों, इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। मानसून के पहले पंद्रह दिन हरी सोयाबीन की बुवाई के लिए उपयुक्त माने जाते हैं तथा बीज की मात्रा 60-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखने की सिफारिश की जाती है। पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए पंक्तियों के बीच की दूरी 50 सेमी तथा पौधों के बीच की दूरी 15 सेमी रखनी चाहिए।

प्रमुख किस्में
  • एजीएस-406: फूल का रंग जामुनी होता है तथा यह प्रजाति फलीबेधक कीट की प्रतिरोधी है। इसकी फली एक ही समय में पककर तैयार हो जाती है, जिससे कि फलियों को एक साथ आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है।
  • एजीएस-547: इस किस्म के बीज का रंग कत्थई होता है।
  • एजीएस-459: यह किस्म सुगंधयुक्त होती है। फूल का रंग सफेद और बीज काले रंग का होता है।
  • स्वर्ण वसुंधराः यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है, जो कि प्रति हैक्टर 14 से 18 टन तक फली की उपज देती है।
  • हिमसो-1563: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा विकसित यह किस्म स्वाद में अधिक उत्तम मानी जाती है तथा यह एक अच्छा प्रोटीन का स्रोत भी है। यह किस्म 100 से 120 दिनों में पककर तैयार हो जाती है और प्रति हैक्टर 5 टन उपज प्रदान करती है।
  • सोयाबीन एनआरसी 188 किस्म (Soybean NRC 188 variety): सोयाबीन की इस उन्नत किस्म में जब पौधे पर फूल आते हैं तो ये फूल बैंगनी रंग के होते हैं। इनकी फलियाँ थोड़ी चिकनी होती हैं। फिर भी आप इन्हें मटर की तरह खा सकते हैं. सोयाबीन की यह किस्म एनआरसी 188 मध्य विस्तार के लिए उपयुक्त है। सोयाबीन की इस नई किस्म एनआरसी 188 के बीज मुख्य खेत में बोने के 77 दिन बाद पक जाते हैं और खेतों में इस किस्म के बीजों का अंकुरण भी सोयाबीन की अन्य किस्मों की तुलना में बेहतर होता है। इसकी खेती में एक हेक्टेयर में चार से आठ टन तक हरी फलियां पैदा होती हैं।
बीज उपचार

बीज उपचार के लिए 2-3 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा फफूंदनाशक या 10 ग्राम कार्बेन्डाजिम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड को 10 लीटर पानी में मिलाकर उपचारित करना चाहिए।

उर्वरक और खाद

सड़ी हुई गोबर की खाद को बुवाई से 25 दिन पहले 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। हरी सोयाबीन की अच्छी वृद्धि के लिए बुवाई के समय नाइट्रोजन 30 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम तथा पोटेशियम 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। पौधे के पूर्ण विकास और अधिक उपज के लिए मिट्टी की जांच के बाद ही रासायनिक खाद का प्रयोग करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण और सिंचाई

फसल को कीटों से बचाने और मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए खरपतवार निकालना बहुत जरूरी है। समय-समय पर खेत की अच्छी तरह से निराई-गुड़ाई और सिंचाई करनी चाहिए। पहली निराई-गुड़ाई बुवाई के 20 से 25 दिन बाद और दूसरी 30-35 दिन बाद करनी चाहिए। फसल की निराई-गुड़ाई करने से मिट्टी में ऑक्सीजन का प्रवाह आसान होता है। यह राइजोबियम बैक्टीरिया के लिए बहुत जरूरी है। कुछ चुनिंदा खरपतवारनाशक जैसे पेंडीमेथालिन, मेट्रिफ्लक्सिन आदि का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इनका इस्तेमाल सही मात्रा में और सही समय पर सुनिश्चित करना चाहिए। खेत में 10-15 दिन के अंतराल पर पानी देना चाहिए। सिंचाई के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण फली बनने का समय होता है। फसल से खरपतवार के साथ-साथ रोगग्रस्त और कीट-ग्रस्त पौधों को भी निकाल देना चाहिए।

कटाई और प्रबंधन

आमतौर पर फलियों की कटाई अनाज भर जाने के बाद करनी चाहिए। बुवाई के 70-75 दिन बाद फलियाँ कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं। कटाई के बाद फलियों को ठंडी जगह पर रखना चाहिए। कटाई के बाद उन्हें अच्छी तरह से साफ करके छांट लेना चाहिए और फिर बाज़ार में भेजना चाहिए। लंबी फलियों को बाज़ार में अच्छी कीमत मिलती है, जो किसान की आय के लिए अच्छी बात है।

स्त्रोत : ICAR खेती