शकरकंद की खेती बढ़ाएगी किसानों की आमदनी, इस तरह करें शकरकंद की खेती
शकरकंद की खेती बढ़ाएगी किसानों की आमदनी, इस तरह करें शकरकंद की खेती
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शकरकंद एक कंदीय फसल है जिसकी जड़ प्राकृतिक रूप से मीठी होती है। यह एक फूलदार पौधा है। इसकी संशोधित जड़ तने की गांठों से निकलती है। यह जमीन में प्रवेश कर फूल जाती है और सूजी हुई जड़ में कार्बोहाइड्रेट की अधिक मात्रा जमा हो जाती है। जड़ का रंग लाल या भूरा होता है और यह अपने अंदर भोजन संग्रहित करती है। यह आलू प्रजाति का सदस्य है। लेकिन इसमें मिठास और स्टार्च की मात्रा आलू से अधिक होती है।

भारत समेत पूरी दुनिया में शकरकंद को पसंद किया जाता है। दुनिया में सबसे ज्यादा शकरकंद पैदा करने वाला देश चीन है। शकरकंद के उत्पादन में भारत छठे स्थान पर है। देश में करीब 2 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती होती है। इसका निर्यात लगातार बढ़ रहा है। यह साल भर उगाई जाने वाली फसल है। लेकिन मुख्य रूप से यह सर्दियों में ज्यादा उगती है। इसके पत्ते दिल के आकार के होते हैं। इसके प्रमुख उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल हैं। शकरकंद को भूनकर या उबालकर खाया जाता है। लोग इसकी सब्जी बनाकर भी खाते हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं। इसके सेवन से बालों की ग्रोथ बढ़ती है और चेहरे पर चमक आती है। यह कई रोगों के उपचार में लाभकारी है। शकरकंद की मांग और आय ने भारतीय किसानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इसकी उन्नत खेती किसानों के लिए अच्छी आय का स्रोत बन सकती है।

मिट्टी, जलवायु और तापमान

बलुई दोमट मिट्टी और उचित जल निकास वाली भूमि शकरकंद की खेती के लिए अच्छी मानी जाती है। खेत को मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 बार जोतकर तैयार कर लें और बुवाई से पहले खेत को कुछ समय के लिए छोड़ दें ताकि उसे उचित धूप मिले। इसकी खेती के लिए भुरभुरी मिट्टी होनी चाहिए। खेत से पुरानी फसलों के अवशेषों को पूरी तरह नष्ट कर दें। पथरीली और सख्त भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती क्योंकि ऐसी भूमि में उपज कम होती है। इसकी खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से 6.8 होता है।

शकरकंद की खेती तीनों मौसम में की जा सकती है। इसके पौधे बारिश और गर्मी में अधिक बढ़ते हैं। जबकि सर्दी का मौसम पौधों की वृद्धि के लिए उपयुक्त नहीं होता। आमतौर पर इसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जाता है। इसकी खेती के लिए 20 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान अच्छा माना जाता है।

उन्नत किस्में

आमतौर पर शकरकंद सफेद, लाल और पीले रंग में उपलब्ध होते हैं। इसकी उन्नत किस्में पीली किस्म, सफेद किस्म और लाल किस्म शकरकंद, एसटी 13. एसटी 14. भू कृष्ण, श्री अरुण, भू सोना आदि प्रमुख किस्में हैं साथ ही श्री रत्ना, सीओ 1.2. श्री नंदिनी, श्री वर्धिनी, भुवन शंकर। इनका प्रयोग मिट्टी और मौसम के अनुसार करना चाहिए।

बुवाई

शकरकंद की रोपाई में पंक्तियों के बीच की दूरी 60 सेमी और पौधों के बीच की दूरी 30 सेमी रखें। कंदों की बुवाई में 20-25 सेमी गहराई उपयुक्त मानी जाती है। प्रति एकड़ 25000-30000 कटी हुई बेलें या 280 से 320 किलोग्राम कंद की आवश्यकता होती है। बुवाई से पहले कंदों को प्लास्टिक की थैली में रखकर सल्फ्यूरिक एसिड में 10-40 मिनट तक भिगोकर रखें।

सिंचाई और जल प्रबंधन

शकरकंद को फसल की शुरुआत में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में रोपाई करने पर पौधों को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। इस समय रोपाई के तुरंत बाद पानी देना उचित रहता है। समय के साथ पानी की मात्रा कम की जा सकती है तथा वृद्धि के दौरान सप्ताह में एक बार पानी दिया जा सकता है। कंदों के अच्छे विकास के लिए खेत में नमी बनी रहनी चाहिए। खरीफ की फसल के साथ रोपाई में अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है। शकरकंद की सिंचाई पौधों की आवश्यकता के अनुसार करनी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक

विशेषज्ञों की संस्तुति के आधार पर इसकी खेती में जैविक खाद का प्रयोग करें। इससे उत्पादकता अच्छी एवं स्थायी रहती है। खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई के समय 7-8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद मिट्टी में मिला देनी चाहिए। यदि मिट्टी अधिक अम्लीय है तो प्रति हेक्टेयर की दर से 500 किलोग्राम चूना प्रयोग करने से कंदों का अच्छा विकास होता है।

रासायनिक उर्वरकों में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग क्रमशः 50:25:50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करें। ध्यान रहे कि नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बेल लगाने के आरंभ में जड़ों को देनी चाहिए। शेष नत्रजन को दो भागों में बांटकर पहले 15 दिन तथा अगले भाग को 45 दिन में टाप ड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करें।मैग्नीशियम सल्फेट, जिंक सल्फेट एवं बोरोन 25:15:10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से कंदों का आकार एक जैसा रहता है तथा कंद फटते नहीं हैं।

खरपतवार निकालना और मिट्टी चढ़ाना

शकरकंद की खेती में खरपतवार नियंत्रण बहुत जरूरी है। प्राकृतिक नियंत्रण के लिए खरपतवारों को निराई-गुड़ाई करके निकालना चाहिए। इसके पौधों के लिए दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है। पहली निराई अंकुरण के 20 दिन बाद तथा दूसरी निराई पहली निराई-गुड़ाई के 20 दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिए कंदों के अंकुरण से पहले मेट्रिविजिन और पैराक्वेट की अनुशंसित मात्रा का छिड़काव करें। इसकी खेती में खरपतवार ज्यादा नहीं फैलते क्योंकि शकरकंद की बेलें जब फैलती हैं तो खरपतवार जमा नहीं होते। शकरकंद के पौधों में पहली बार रोपाई के एक महीने बाद निराई-गुड़ाई के समय मिट्टी चढ़ाना चाहिए। कम से कम 3 बार मिट्टी चढ़ाना चाहिए। मिट्टी चढ़ाने से कंदों का आकार अच्छा रहता है और उत्पादन बढ़ता है।

प्रमुख रोग

शकरकंद में कई तरह के कीट और जीवाणु रोग देखने को मिलते हैं। विशेषज्ञों की सलाह पर समय रहते इनकी रोकथाम करना जरूरी है ताकि उत्पादन प्रभावित न हो। इसे प्रभावित करने वाले मुख्य कीट और रोग एफिड, शकरकंद माइट, अर्ली ब्लाइट, फ्रूट बोरर आदि हैं।

खुदाई और उत्पादन क्षमता

पौधे लगाने के लगभग 110 से 120 दिन में शकरकंद खुदाई के लिए तैयार हो जाता है। इस समय पौधों की पत्तियां पीली होकर गिरने लगती हैं। खेत में नमी होने पर खुदाई आसान होती है। कंदों को साफ करने के बाद उन्हें छायादार जगह पर सुखाएं। अच्छी तरह सूखने के बाद उन्हें स्टोर करें। इसकी पैदावार किस्मों के हिसाब से अलग-अलग होती है। लेकिन आम तौर पर इसका औसत उत्पादन 25 टन प्रति हेक्टेयर होता है। इस तरह किसान शकरकंद की उन्नत खेती से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।